कश्मीर पर कई तरह की खबरें, कहानियां पढ़ने को, देखने को मिल रही हैं। इन्हें देख-पढ़ कर लगता है मानों हम कश्मीर की हकीकत जान रहे हैं। लेकिन पूरी तरह से अनजान बाहर का, जिसे कश्मीर के बारे में कुछ पता नहीं है, दूसरे देश का कोई व्यक्ति या दोस्त अगर यह पूछता है कि कश्मीर में क्या हो रहा है, तो हम कोई भी जवाब देने के पहले जरा ठिठकते हैं, कुछ सोचने लगते हैं कि क्या जवाब दिया जाए? कैसा जवाब देना ठिक होगा?
क्योंकि हम वह असलियत जानते नहीं हैं जो खबरों से हमें पता चलनी चाहिए। ऐसे में तब वह स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसमें पूछने वाला तो उम्मीद और आशाओं के साथ सत्य की चाहना लिए हुए है और दूसरी ओर जिसे जवाब देना है वह अंधेरे व निराशा से घिरा नियति का मारा है। खबर, तथ्य, सत्य सभी को चाहिए। खबरें, खबर स्टोरी तथ्यों, ज्ञान और अनुभव को साझा करने के लिए ही लिखी जाती हैं। सही क्या है और गलत क्या, इसे बताने, समझाने-बूझाने के मकसद से! ये शिक्षा की औजार भर नहीं होती बल्कि उनसे हमें समझ आता है कि हम जिस दुनिया में रह रहे है उसमें हकीकत क्या है? इनके जरिए ही हम दुनिया को समझते हैं, उसकी रोशनी में चीजे समझते-बूझते हैं।
कश्मीर की चर्चाओं ने गुत्थी बनाई है कि घटनाओं का, हालातों का कैसे अर्थ निकाला जाए? अखबारों में जो खबरें हम पढ़ते हैं और टीवी पर जो देखते हैं उसी से हमारा दिमाग यह तय करने की क्षमता बनाता है कि हम क्या देखें, क्या नहीं। जो सामने है और जो नहीं है उससे नजरिया बनता-बदलता है। और फिर नजरिया, दृष्टिकोण हमारे कदम उठवाता है। हम सब अपने भीतर नैरेटिव की वह एक सहज प्रवृत्ति लिए होते है, जिसके जरिए हम अपने भीतर सुन पाते हैं कि हम कौन हैं और कहां खड़े हैं और यही सहज-वृत्ति हमें जटिलताओं और विरोधाभासी संकेतों को समझाने व व्याख्या में मदद करती है।
मगर कश्मीर घाटी के हालातों पर आ रही खबरों से क्या कोई राय बनती है कि हालात क्या है और आने वाले वक्त में क्या होगा? कैसे समझा जाए? एक तरफ भारत का मीडिया है जो सबकुछ ठिक दिखला रहा है। उम्मीदों भरा यह नैरेटिव बनाने में मशगूल है कि भारत सरकार ने वे सब कदम उठा लिए है जो कश्मीर को पटरी पर लाने के लिए, बुरे दिनों के खात्मे के लिए उठाए जा सकते थे। जबकि ठिक विपरित अंतरराष्ट्रीय मीडिया (जिसमें भारत के कई पत्रकार और बुद्धिजीवी भी शामिल हैं) कश्मीर के असहाय पीड़ितों और भविष्य में हिंसा, कत्लेआम की आशंकाओं वाले कुछ और ही संकेत दे रहे है। कैसे खबरों के सच को बूझते हुए नजरिया बनाए? पूछने वाले को कश्मीर के बारे में कैसा जवाब दे?
और सिर्फ कश्मीर ही क्यों ! हालांकि फिलहाल मैं स्वीकार करूंगी कि इस वक्त कश्मीर ही सबसे ज्यादा भावनात्मक और प्रतिरोध का मुद्दा है। लेकिऩ इसके अलावा भी हाल में देश में जो कुछ हुआ है- जैसे राजनीतिक माहौल, अर्थव्यवस्था का गिरना, सामाजिक बदलाव या नागरिक सुरक्षा इन सबमें एक बिखरा हुआ नैरेटिव देखने को मिला है। यही बिखरा हुआ नैरेटिव मेरे और आपके बीच फर्क पैदा कर देता है, हमें बांट देता है। और इस तरह हम ऐसे अलग-अलग नैरेटिव के बीच रहने को मजबूर हैं जिसमें संदेह से परे कोई तथ्य नहीं हैं।
आज अगर बाहर से देखा जाए तो भारत एक लगता है, लेकिन हम भारत के दो अलग-अलग रूपों में रह रहे हैं। एक तो वह रूप है जिसमें कहा जा रहा है कि देश महान है और इसमें सब उत्तम ही उत्तम है, एक क्षमतावान प्रधानमंत्री पद पर आसीन है। राजनीति में सब कुछ अच्छा चल रहा है, सभी लोग संतुष्ट हैं, आर्थिकी भी दुरुस्त है, मीडिया, अदालतें, जांच एजेंसियां स्वायत्त बन चुकी हैं। यानी इस तरह के देश के स्वरूप में सब कुछ अच्छा और स्वीकार्य है।
इस स्वीकार्यता को ही राष्ट्रवाद के रूप में जाना जा रहा है जबकि दूसरे स्वरूप का परिदृश्य यह है कि देश अंधेरे में जा चुका है और प्रधानमंत्री एक जार (राजा) के रूप में सत्ता पर काबिज हैं जिन्होंने आर्थिकी सहित देश के राजनीतिक माहौल और संस्थाओं को चौपट कर डाला है। और जो लोग इसको लेकर सवाल उठाते हैं वे देशद्रोही करार दिए जा रहे हैं। क्या यह माहौल कोई सेंस बनाता है? हमारी इच्छा क्या ऐसा नया भारत बनाने की है जिसमें इस तरह के दो नैरेटिव समानातंर रूप से चलते रहें?
यहां कोई भी तर्क दे सकता है कि लोगों का अलग विचार रखना लोकतंत्र की स्वस्थता का प्रतीक है। लेकिन भारत में हाल में जिस तरह के दो रूप देखने को मिल रहे हैं, उससे साफ है कि लोग हकीकत और वैचारिकता की लाइन पर जबर्दस्त रूप से बंट चुके हैं। इससे देशभक्ति को लेकर बहस खड़ी हो गई है। हर कोई पूछ रहा है कौन देशभक्त है! देशभक्ति को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं, अलग (सत्ताविरोधी) विचार वालों को देशद्रोही कहा जा रहा है। सवाल है भारतीय होना ही क्या अपने आपमें देशभक्त होना नहीं है?
जाहिर है हम ऐसी अवस्था में पहुंच गए हैं जिसमें जब भी हम कोई नई राय बनाते हैं तो मन ही मन सवाल उठने लगते हैं। तभी आने वाले वक्त में यह बहस खड़ी हो सकती है कि आखिर भारत को बनाया क्या जा रहा है, हो सकता है यह सवैधानिक लोकतंत्र को नया रूप देने का काम हो, लेकिन अभी जो हालात हैं उसकी खबर से, खबर स्टोरी में कहीं यह अता पता नहीं है कि क्या तो असलियत है और क्या तथ्य व सत्य है!
श्रुति व्यास
लेखिक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…