ये जीना भी क्या जीना!

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पता नहीं भारत में लोगों को खबर पढ़-सुन झनझनाहट होती है या नहीं? दिमाग सोचना शुरू करता है या नहीं? ताजा खबर कि मुंबई में बारिश से सार्वजनिक छुट्टी घोषित। कल गर्मी के कारण दिल्ली में आठ दिन बाद स्कूलों के खुलने की खबर। एक और खबर कि तीन प्रदेशों में बसों के खाई में गिरने से 42 लोगों की मौत। इसी पर फिर आज यह रिपोर्ट पढ़ने को मिली कि जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बस-वाहनों के खाई में गिरने से पांच महीने में कोई 1170 मौत! कल बिहार विधानसभा में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चमकी बुखार पर ज्ञान बघारते दिखे लेकिन चेहरे पर बच्चों की मौत का रत्ती भर शोक नहीं। यों भी बिहार में भला कौन सीएम या मंत्री लोगों के मरने से दुबला होता है! बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड तो भारत महान देश के वे बाड़े हैं, जहां इंसान ऐसे विविध तरीकों से मरता है कि उसके आगे भेड़ों का जीना फिर भी जीना लगेगा।

पर मुंबई का बाड़ा तो भारत की शान है। अमीरों, आभिजात्यों, ग्लैमर भरे चेहरों वाली खाती-पीती मालदार भेड़ों के कथित श्रेष्ठ शासन वाला महानगर है। वहां भला कैसे ऐसा जो एक दिन की बारिश में चक्का जाम! चेन्नई में लोग प्यासे तड़प रहे हैं। बेंगलुरू और दिल्ली में प्रदूषित, जहरीली गर्मी लोगों की सांसों को जकड़ रही है। मुंबई भी उसमें घुट रहा था, बारिश के लिए तड़प रहा था लेकिन ज्योंहि बारिश हुई त्योंहि मुंबई ठप्प। वह भी तब जब भारी बारिश की चेतावनी थी।

सोचें, हम भेड़ों के नसीब में भी पश्चिम के विकास, विज्ञान की बदौलत यह जानना संभव है कि आने वाले दिनों में मौसम कैसा रहेगा, गूगल (जो अमेरिकी है) ने घर-घर, हर हाथ के मोबाइल फोन में सूचना पहुंचा रखी है कि आज आंधी आएगी या बारिश होगी याकि झुलसा देने वाली गर्मी होगी! ऐसे ही हम और हमारे ड्राइवर, सरकार भी चाहे तो मोबाइल पर देखते हुए सही-सुरक्षित ड्राइविंग कर-करा सकते हैं। हमारे अस्पताल, डॉक्टर, सरकार सब एडवांस में सोच-समझ सकते हैं कि कब चमकी बुखार का प्रकोप होगा तो कब दिमागी बुखार बच्चों को लीलेगा।

लेकिन शर्मनाक व दुखदाय़ी हकीकत है कि अफ्रीका के छोटे, मामूली देशों सियेरा लियोन, माली में इबोला वायरस फूटा तो दुनिया, विश्व स्वास्थ्य संगठन सब तुरंत चेते। सोचें, पश्चिमी अफ्रीका के छोटे-छोटे देशों की बीमारी, वहां की समस्याओं पर वैश्विक जमात तुरंत एलर्ट होती है जबकि सवा सौ करोड़ के देश के चमकी बुखार में डेढ़ सौ बच्चे मर जाएं तब भी वैश्विक मीडिया, विश्व संस्थानों में हलचल नहीं मचती। भला क्यों?

इसलिए क्योंकि दुनिया जानती है, मानती है कि भारत है ही ऐसा! आपदा-विपदा, बीमारी, दुर्घटनाएं भारत में होनी हैं न कि अनहोनी! पिछले कुछ सालों से दिल्ली सहित भारत के तमाम महानगर प्रदूषित हवा के गैस चैंबर बने हैं तो दुनिया ने इसकी वैसी फिक्र नहीं की जैसे शंघाई या मैक्सिको जैसे शहरों को ले कर हुई। वैश्विक संस्थाओं, बिरादरी को यह चिंता है कि चीन के भी महानगर बेहतर बनें। लेकिन किसी को यह चिंता नहीं कि दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता भी ठीक हो। इसलिए क्योंकि मोटे तौर पर वैश्विक बिरादरी, डब्ल्यूएचओ जैसे संगठन सब जानते हैं कि भारत की चिंता करने से क्या बनना है। जब जान की कीमत ही नहीं है, शासन व्यवस्था गड़ेरिए और भेड़ के रिश्ते लिए हुए हैं तो ऐसी कौम को, ऐसी भीड़ को उसके हाल पर छोड़ा जाए।

हां, दुनिया जानवरों की भी चिंता करती है। पर जो दुर्लभ और खूबी विशेष लिए हुए हैं। भेड़-बकरी-गाय-गधे नाम की प्रजाति की चिंता दुहने के लिए, ऊन उतारने के लिए, बोझा ढोने के लिए, अनुशासित कर्म, बंधुआ मजदूरी, कुलीगिरी कराने भर में होती है। दुनिया जानती है कि प्रदूषित हवा के बावजूद दिल्ली के बीपीओ, अनुशासित आईटीकर्मी काम करते रहेंगे। वे बदबूदार, घुटन भरी सांस में भी जी लेंगे, बारिश-गर्मी सब सह लेंगे। तरह-तरह के बुखार, फ्लू आदि सब सह लेंगे व मर गए तो और भेड़ें मौजूद। खाई में गिर कर मरने या बारिश, गर्मी, आंधी में या चमकी-दिमागी बुखार में किसी में भी मरे, यहा के जीवन का भला क्या मोल जो दुनिया दुबली हो।

और दुबली भेड़ें भी नहीं हुआ करती, क्योंकि सोचें तो दुबली हों! इन्हें नियति में रहते हुए कर्म करते हुए जीवन जीना होता है। मुझे भी खबर नहीं थी कि खाई में बस गिरने से हर साल इतनी तादाद में लोग मरते हैं। हां, वाहनों के खाई में गिरने से उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर में हर साल नौ से 11 सौ लोग मरते हैं। सड़क दुर्घटनाओं के अलावा है यह आंकड़ा। सडक दुर्घटनाओं में कितने लाख लोग मरते हैं यह अलग मुद्दा है। लेकिन पहाड़ी प्रदेशों में सड़कों की दुर्दशा वह कारण है, जिससे सेफ ड्राइविंग आसान नहीं है। आप पूछ सकते हैं कि यह यूरोप, अमेरिका में भी होता होगा।

तो जवाब है कतई नहीं। वहां दुर्घटनाएं अपवाद हैं। यूरोप घूमने का अधिकांश इलाका आल्प्स पर्वतमाला के मसूरी, धर्मशाला, गढ़वाल से अधिक ऊंचाई लिए इलाके हैं लेकिन वहां क्या गजब दुर्गम एक्सप्रेस वे है और क्या ग्लेशियर तक पहुंचाती हुई सुरक्षित ट्रेनें। जलवायु परिवर्तन से यूरोप, अमेरिका सब बेहाल हैं लेकिन बारह घंटे की बारिश में शहर ठप्प हो जाए या गर्मी से चमकी-दिमागी बुखार, आंधी-अंधड़-लू में लोग दर्जनों में मरने लगें, ऐसी खबरें वहां नहीं बनतीं क्योंकि वहां इंसान रहते हैं!

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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