महाजनो येन गतः स पंथा!

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संस्कृत के इस सुभाषित का अर्थ है कि जिस रास्ते पर महाजन यानी समझदार लोग चलें उसी रास्ते पर चलना चाहिए। सो, निश्चित रूप से भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को अपने महाजन यानी अपने समझदार बुजुर्ग डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी के बताए रास्ते पर चलना चाहिए। पर उससे पहले खुद डॉक्टर जोशी को उस रास्ते पर चल कर दिखाना चाहिए, जिस पर चलने की सलाह वे दूसरे लोगों को दे रहे हैं। उन्होंने कहा है- मेरा मानना है कि ऐसे नेतृत्व की बहुत जरूरत है, जो बेबाकी से अपनी बात रखता हो, सिद्धांतों के आधार पर प्रधानमंत्री से बहस कर सकता हो, बिना किसी डर के, और बिना इस बात की परवाह किए कि प्रधानमंत्री नाराज होंगे या खुश। इसकी शुरुआत उन्हें खुद करनी होगी। ‘जो बोले, सो कुंडी खोले’ के अंदाज में वे बेखौफ होकर, निडर होकर अगर प्रधानमंत्री से अपनी बात कहते हैं तो इससे दूसरे नेताओं को प्रेरणा मिलेगी, नहीं तो उनकी बात ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे की’ मिसाल बन कर रह जाएगी।

डॉक्टर जोशी ने अपनी पार्टी के दो प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया है। वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे हैं और नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद भी पांच साल तक सांसद रहे और संसद की इस्टीमेट कमेटी की अध्यक्ष थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी वाराणसी सीट उनसे लेकर तब प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में चुनाव लड़ रहे नरेंद्र मोदी को दी गई थी और उनको कानपुर सीट से चुनाव लडऩा पड़ा था। ध्यान नहीं आता है कि इस ‘जबरदस्ती’ के खिलाफ उन्होंने बेखौफ होकर प्रधानमंत्री के दावेदार से बहस की थी।

पांच साल तक उन्होंने सरकार के किसी काम पर सवाल नहीं उठाया। प्रधानमंत्री ने एकतरफा फैसला करके नोटबंदी लागू की। बिना पूरी तैयारी के हड़बड़ी में जीएसटी लागू किया। इन दो फैसलों की वजह से देश की आर्थिकी का भट्ठा बैठा हुआ है। क्या वे मानते हैं कि पिछले पांच साल में केंद्र सरकार ने कोई ऐसा काम ही नहीं किया, जिस पर उनको सवाल उठाना चाहिए था या विरोध करना चाहिए था? अगर सरकार इतनी ही अच्छी, सच्ची और काम करने वाली है तो फिर अब भी अच्छा ही काम कर रही होगी! सो, दूसरे नेताओं को ललकारने का कोई मतलब नहीं बनता है?

वैसे भी इतनी लंबी राजनीतिक पारी खेलने और जीवन के 85 वसंत देखने के बाद जब खुद डॉक्टर जोशी प्रधानमंत्री से सवाल नहीं कर रहे हैं तो दूसरे नेताओं को सवाल क्यों करना चाहिए? या तो डॉक्टर जोशी पार्टी और सरकार के सारे फैसलों से सहमत हैं या सहमत नहीं हैं तब भी जो चल रहा उसे वैसे ही चलने देने के पक्षधर हैं, इसलिए इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ कर खुद कभी बहस नहीं की या नाराजगी जाहिर नहीं की। सो, उन्हें क्यों दूसरे नेताओं को इस बात के लिए ललकारना चाहिए कि वे प्रधानमंत्री से निडर होकर बहस करें? जब डॉक्टर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे बड़े नेता ने भी प्रधानमंत्री के किसी फैसले पर सवाल नहीं किया है। तो तय मानें कि दूसरा कोई नेता भी सवाल उठाने नहीं जा रहा है। विपक्ष के नेता बेखौफ होकर अपनी बात कह रहे हैं तो वह उनका काम है। पर वे भी अपनी पार्टी के सुप्रीमो के सामने निडर होकर तो क्या कैसे भी सवाल नहीं उठाते हैं।

डॉक्टर जोशी ने दूसरी बात यह कही कि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर चर्चा करने की परंपरा लगभग खत्म हो गई है, इसे फिर से शुरू करना होगा। सुनने में यह बात भी बहुत अच्छी लग रही है। पर क्या वे यह नहीं देख रहे हैं कि सरकार किस तरह से राजनीतिक बदले की भावना से काम कर रही है? विपक्षी पार्टियों के नेताओं के साथ सरकार का बरताव कैसा है? कैसे गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं और केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल कर विपक्षी नेताओं को जेल भेजा जा रहा है? क्या उनकी पीढ़ी का कोई नेता यह सोच सकता था कि देश की मुख्य विपक्षी पार्टी को खत्म कर देने का ऐलान किया जाए? जब राजनीतिक माहौल इस कदर बिगड़ा हुआ है और नेता भय के साये में हैं तो कैसे विपक्ष के साथ संवाद की संस्कृति फले फूलेगी?

इसमें कोई संदेह नहीं है कि डॉक्टर जोशी अपने पूरे राजनीतिक जीवन में लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन करते रहे हैं। विरोधियों का सम्मान किया है और पद का दुरुपयोग नहीं किया है। जीवन भर साफ सुथरी राजनीति की है। पर अगर वे चाहते हैं कि बेखौफ होकर मौजूदा प्रधानमंत्री के या आगे के भी किसी प्रधानमंत्री के सामने बात की जाए तो इसकी शुरुआत उन्हीं को करनी होगी। लोग उनके आचरण को देखेंगे, उनके उपदेशों को नहीं। महात्मा गांधी ने उपदेश नहीं दिए थे। उन्होंने कहा था कि उनका जीवन, उनका आचरण ही उनका उपदेश है। सो, उपदेश देने और दूसरों से उस पर अमल करने की उम्मीद पालने से बेहतर है कि वे वैसा आचरण करें, जिसकी दूसरों से अपेक्षा करते हैं।

अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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