4 मार्च 1991 को मेरे निवास के शहर बारामती में मेरी बेटी सुप्रिया का सदानंद सुले के साथ विवाह का आयोजन था। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी, भैरों सिंह शेखावत, फारुख अब्दुल्ला, जनार्दन रेड्डी, एस बंगारप्पा, बी शंकरानंद, चिमनभाई पटेल, एनडी तिवारी तथा कुछ उद्योगपति और दोस्त भी इस समारोह में उपस्थित थे। विवाह समारोह में व्यस्त होने के कारण मुझे दिल्ली के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम की जानकारी नहीं थी। मुझे इतना ही पता था कि कांग्रेस चंद्रशेखर पर अपना दबाव बना रही है और सत्ता में वापसी के लिए प्रत्यत्नशील है। बारामती के स्वागत कक्ष में राजीव गांधी और चंद्रशेखर पास-पास ही बैठे थे। मैं जब उनके पास पहुंचा तो चंद्रशेखर ने राजीव से पूछा कि दिल्ली लौटने की क्या योजना है/ राजीव ने कहा, ‘मेरी कोई विशेष योजना नहीं है।’ तब चंद्रशेखर ने राजीव गांधी से अपने सरकारी विमान में साथ-साथ चलने का प्रस्ताव रखा। बारामती पुणे से लगभग 100 किमी है। इसलिए दिल्ली जानेवालों को कार से पुणे जाकर ही विमान की सुविधा मिल सकती है।
कुछ गपशप के बाद चंद्रशेखर जाने को तैयार हुए। राजीव गांधी ने कहा कि वह मेरे परिवार के साथ कुछ और समय चाहते हैं और वे पुणे में उनसे मिलेंगे। इसके बाद दो घंटे तक प्रधानमंत्री का फोन आता रहा और वह बार-बार पूछते रहे कि राजीव गांधी पुणे के लिए रवाना हुए या नहीं। मैं देख रहा था कि राजीव गांधी इसे सामान्य बात ही समझ रहे थे। मेजबान होने के नाते मैं राजीव गांधी को पुणे जाने की याद दिलाना उचित नहीं समझता था। हालांकि जब फोन जल्दी-जल्दी आने लगे तो मैंने राजीव से पूछा, आप क्या सोच रहे हैं? राजीव गांधी ने कहा, ‘मैं उनके साथ दिल्ली नहीं जाना चाहता। आप उनसे प्रस्थान करने को कह दें।’ इस बात से मुझे झटका सा लगा। मैं बहुत उलझन में पड़ गया और मैंने पुणे के कलेक्टर श्रीनिवास पाटिल को यह सूचना दी। इसके बाद चंद्रशेखर के विमान ने दिल्ली के लिए उड़ान भरी और तब राजीव गांधी भी बारामती से पुणे के लिए चल दिए। यह घटना इस बात का स्पष्ट संकेत थी कि दोनों नेताओं के बीच कुछ गंभीर मतभेद हैं।
इसके ठीक अगले दिन कांग्रेस के सदस्यों ने सदन में शोर मचाया कि राजीव गांधी के घर के बाहर हरियाणा पुलिस के दो सिपाहियों को तैनात कर जासूसी करवाई जा रही है। यह अविश्वसनीय और मूर्खतापूर्ण आरोप था, परंतु इसने राजनीतिक परिस्थिति को संकटपूर्ण बना दिया। 6 मार्च 1991 को चंद्रशेखर ने राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा भेज दिया। राजीव गांधी को शायद अंदाजा नहीं था कि परिस्थिति इतना गंभीर मोड़ ले लेगी। उन्होंने मुझे दिल्ली बुलाया और कहा कि यदि मैं चंद्रशेखर को इस्तीफा वापस लेने के लिए सहमत कर सकूं तो प्रयास करूं। मैं चंद्रशेखर को जानता था, मुझे शंका थी कि मैं इसमें सफल हो पाऊंगा। इसके बावजूद मैं उनसे मिलने गया। चंद्रशेखर अपने पुराने घर में थे, प्रधानमंत्री निवास में नहीं। उन्होंने पूछा कि इधर कैसे आना हुआ? मैंने कहा कि आपसे कुछ बात करनी है तो उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा कि क्या उस आदमी ने आपको मुझे बुलाने के लिए भेजा है? उन्होंने मेरी उलझन वाली स्थिति का अनुमान लगाया और शांत हो गए। मैंने बात आगे बढ़ाई, ‘कुछ गलतफहमी हो गई है।
कांग्रेस आपकी सरकार नहीं गिराना चाहती है। कृपया आप प्रधानमंत्री पद से दिया गया इस्तीफा वापस ले लें। हम लोग इस पद पर आपको देखना चाहते हैं।’ वह अभी गुस्से से भरे थे। उन्होंने कहा, ‘वापस जाओ और उनसे कह दो कि चंद्रशेखर बार-बार अपना निर्णय नहीं बदलता। मैं किसी भी कीमत पर सत्ता से नहीं चिपकना चाहता। एक बार मैंने निर्णय कर लिया तो उसे लागू करता हूं। मैं इस पर पुनर्विचार नहीं करूंगा। हो सकता है कि अभी तक राष्ट्रपति ने मेरा इस्तीफा स्वीकार न किया हो, लेकिन उनको शीघ्र ही मेरा इस्तीफा स्वीकार करना होगा।’ बाला साहेब मेरे जितने अच्छे मित्र थे, उतने ही अच्छे विपक्षी भी थे। यद्यपि वह मुझसे 14 वर्ष बड़े थे, परंतु उनका राजनीतिक जीवन 1966 में शिवसेना के उदय के साथ शुरू हुआ और शिवसेना के निर्माण के एक वर्ष बाद ही मैं 1967 में महाराष्ट्र विधानसभा में विधायक निर्वाचित हो गया। उस समय से लेकर उनके निधन के समय ( नवंबर 2012 ) तक हम लोग एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक क्षेत्र में तलवारें खींचे रहे। वह अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए मजाकिया मुहावरे गढऩे और चिढ़ाने वाले नाम रखने में माहिर थे।
मैं उनका पसंदीदा निशाना था। वह अक्सर मेरे मोटे शरीर पर व्यंग्य करते हुए मुझे ‘आटे का बोरा’ कहते। 2006 में जब एनसीपी ने राज्यसभा के उम्मीदवार के रूप में सुप्रिया के नाम की घोषणा की तो बालासाहेब ने मुझे बुलाकर उसे अपनी पार्टी का समर्थन देने के बारे में बताया। उन्होंने कहा, ‘शरद बाबू मैंने उसको बचपन से देखा है। उसके कैरियर में यह एक बड़ा कदम है। मेरी पार्टी सुनिश्चित करती है कि वह राज्य सभा के लिए निर्विरोध निर्वाचित होगी।’ मैं उनके इस व्यवहार से बहुत प्रभावित हुआ। महाराष्ट्र में शिवसेना और बीजेपी का गठबंधन था, इसलिए मैंने पूछा, ‘और बीजेपी का क्या’ अपने चरित्र के अनुसार ही बाला साहेब ने तुरंत उत्तर दिया, ‘अरे कमलाबाई के बारे में मत परेशान हो (कमल बीजेपी का चुनाव चिह्न था, इसलिए वह व्यंग्य में कमलाबाई बोले)। वह वही करेगी जो मैं कहूंगा।’ और बात बिल्कुल सही निकली। उस चुनाव में सुप्रिया राज्यसभा की सदस्य निर्वाचित हुई। व्यक्तिगत मीटिंगों में बाला साहेब बहुत उत्साह और गर्मजोशी से भरे दिखते। कम ही लोग जानते हैं कि वह जड़ी-बूटियों वाली औषधियों के बहुत अच्छे जानकार थे और बांद्रा में अपने घर मातोश्री के एक हिस्से में वह इन औषधीय पौधों को उगाते भी थे।
शरद पवार
(शरद पवार की पुस्तक ‘अपनी शर्तों पर’, प्रकाशक राजकमल से साभार)