बेवजह बयानबाजी

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किसी फैसले पर असंतुष्ट होने और उसके खिलाफ पुनर्विचार के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाना तो स्वाभाविक है लेकिन जिस तरह से इस मसले पर बयानबाजी सामने आ रही है, वो ना होती तो अच्छा होता। इस बारे में यही कहा जा सकता है। अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के दिन ही आल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने असंतोष जताया था और संकेत किया था कि विचार-विमर्श के बाद पुनर्विचार के लिए सबसे बड़ी अदालत में याचिका डाली जाएगी। बाद में इस विवाद के अहम पक्षकार सुन्नी वक्फ बोर्ड और अयोध्या के स्थानीय पक्षकार इक बाल अंसारी ने पुनर्विचार याचिका के लिए ना कर दी। जमीयत में जरूर अरशद मदनी गुट दोबारा कोर्ट का रुख किया है। यह स्वाभाविक है किसी भी मसले पर अलहदा राय होती है, होनी भी चाहिए। लेकिन इस पूरी तैयारी को कोई और रंग दिए जाने से बचा जाना चाहिए। रविवार को एक बयान सामने आया, जिसमें आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना वली रहमानी ने कहा है देश के ज्यादातर मुसलमान पुनर्विचार याचिका दाखिल किये जाने के पक्ष में हैं।

अरशद मदनी की तर्ज पर रहमानी भी मानते हैं कि उनकी याचिका ठुकरा दी जाएगी। फिर भी दायर किया जाना जरूरी है। तो बार-बार इस तरह की पेशबंदी सामने आने से क्या मतलब निकाला जाए। आखिरकार इस तरह के बयानात से कौन सा संदेश समाज में जाएगा। जाहिर है, दशकों से विवाद का एक केन्द्र बना रहा अयोध्या विवाद अब जब इतिहास बना रहा है, तब उसे नए सिरे से जिलाने की कोशिश कतई नहीं होनी चाहिए। साम्प्रदायिकता की आग ने इस देश का बहुत नुकसान किया है। देश के दो बड़े सम्प्रदायों के दिलों में जब-तब किसी ना किसी रूप में गहरे घाव किए जाते रहे हैं। चंद लोगों को जरूर इससे मोटा लाभ होता रहा है लेकिन अब इस सदी में ऐसे किसी विवाद के लिए ना तो जगह होनी चाहिए और ना ही कोई औचित्य।

हालांकि दाएं-बाएं से हरचंद कोशिश भले हुई हो या अब भी हो रही हो। देश की जनता बुनियादी सवालों के जवाब की मुंतजिर है, ना कि धार्मिक लबादे में सियासी उम्मीदों की। यह सच है कि दुनिया के कई मुल्क इस बात से हैरत में हैं कि अयोध्या विवाद पर निर्णायक फैसला आने के बाद भारत में कहीं भी कोई अप्रिय घटना नहीं हुई। सबने बड़े धीरज से फैसले का स्वागत किया। शायद यह बदलाव कुछ लोगों के लिए दिक्कत का सबब बना रहा है। अब तो अकारण इस मसले को रेखांकित करने की नाकाम कोशिश हो रही है। यह तो सभी मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला अत्यंत संतुलित रहा है। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों की भावनाओं का ध्यान रखा गया है। जहां तक फैसले से संतुष्ट होने की बात है तो सभी को रास आये ऐसा नहीं होता, हो भी नहीं सकता। कोई भी फैसला सम्पूर्ण तो नहीं होता। इसीलिए पुनर्विचार याचिका और क्यूरेटिव याचिका दाखिल करने की संविधान में व्यवस्था है और यह सभी का हक है। लेकिन इसके इस्तेमाल को लेकर जो पृष्ठभूमि तैयार करने की कोशिश हो रही है, वो दुरुस्त नहीं है।

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