बागियों के वोट से झारखंड का फैसला

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तू है हरजाई तो अपना भी यहीं तौर सही, तू नहीं और सही और नहीं और सही! हां, ऐसा ही है झारखंड में पार्टियों और नेताओं का आचर! जो कल कांग्रेस में था, आज भाजपा, जेएमएम या आजसू की टिकट से लड़ रहा है, जो जेएमएम में था वह भाजपा या आजसू की टिकट से लड़ रहा है। जो आजसू में था वह भाजपा या जेएमएम की टिकट से लड़ रहा है। जो भाजपा में था वह निर्दलीय या किसी और पार्टी की टिकट से लड़ रहा है।

यहीं झारखंड के चुनाव की असली कहानी है। जो कल यहां था और आज वहां है, उसे मिलने वाले वोट से इस बार जीत हार तय होनी है।

झारखंड से ठीक पहले महाराष्ट्र में मतदाताओं ने दलबदलुओं को अच्छा सबक सिखायाथा। कांग्रेस और एनसीपी छोड़ कर अपनी जीत पक्की करने की उम्मीद में जो नेता भाजपा और शिव सेना में गए थे, उनमें से ज्यादातर हार गए। इसकी सबसे अच्छी मिसाल सतारा लोकसभा सीट की है। वहां से आम चुनाव में जीते उदयन राजे भोसले ने चार महीने बाद ही एनसीपी छोड़ दी और भाजपा में चले गए। उनके इस्तीफे से इस सीट पर लोकसभा चुनाव हुआ और मतदाताओं ने उदयन राजे भोसले को हरा दिया। सोचें, वे छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज हैं। उनकी 13वीं पीढ़ी के हैं। पर लोगों ने उन्हें शरद पवार और अपनी पार्टी एनसीपी से धोखे के लिए सबक सिखाया।

ऐसा लग रहा है कि झारखंड में नेताओं ने महाराष्ट्र की ऐसी घटनाओं से सबक नहीं लिया। हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि नेता बेचारा चुनाव नहीं लड़ेगा तो क्या करेगा। वह पांच साल चुनाव का इंतजार करता है और पार्टी उसको टिकट देने की बजाय उसकी सीट सहयोगी पार्टी को दे दे या दूसरी पार्टी से नेता लाकर टिकट दे तो वह क्या करेगा! इसी तर्क से भाजपा, कांग्रेस, जेएमएम, आजसू आदि के बागी नेता पार्टी बदल कर लड़ रहे हैं। इसकी वजह से वोटों का पूरा पारंपरिक हिसाब बिगड़ा हुआ है। अनेक सीटों पर इसकी वजह से समीकरण समझ में नहीं आ रहा है।

भाजपा के पुराने नेता सरयू राय को उनकी पारंपरिक पश्चिमी जमशेदपुर सीट से टिकट नहीं मिली तो वे पूर्वी जमशेदपुर की सीट पर जाकर मुख्यमंत्री के खिलाफ लड़ गए। जहां मुख्यमंत्री के लिए एकतरफा लड़ाई होनी थी, वहां उन्होंने टक्कर बना दी। कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ रही जेएमएम ने वहां सरयू राय का समर्थन कर दिया। बिहार में भाजपा के सहयोगी नीतीश कुमार का सहयोग भी सरयू राय को है और कहा जा रहा है कि प्रशांत किशोर की आई पैक टीम के 50 से ज्यादा सदस्य वहां उनके लिए काम कर रहे हैं। संभव है कि मुख्यमंत्री इस सीट से जीत जाएं पर इस एक सीट के चुनाव की वजह से पूरे प्रदेश में माहौल बदला है। पार्टी के पुराने नेता और विधायक रहे फूलचंद मंडल सिंदरी सीट पर जेएमएम की टिकट से चुनाव लड़ रहे हैं। राधाकृष्ण किशोर भाजपा छोड़ कर आजसू में चले गए तो पार्टी के सबसे पुराने नेताओं में से एक कड़िया मुंडा के बेटे अमरनाथ मुंडा ने जेएमएम का दामन थाम लिया।

सबसे ज्यादा दुर्दशा कांग्रेस की है, जिसके तीन पूर्व प्रदेश अध्यक्ष तीन दूसरी पार्टियों से चुनाव लड़ रहे हैं। साझा बिहार में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे सरफराज अहमद इस बार जेएमएम की टिकट से मैदान में हैं तो सुखदेव भगत भाजपा की टिकट से लड़ रहे हैं। एक और प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप बालमुचू आजसू की टिकट से मैदान में हैं। कांग्रेस विधायक दल के नेता रहे मनोज यादव भी भाजपा की टिकट से चुनाव लड़ रहे हैं। राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी जेएमएम के भी कई नेताओं ने ऐन चुनाव से पहले पाला बदला है। पार्टी के विधायक जेपी पटेल, शशिभूषण समद, पौलुस सुरीन आदि भाजपा से लड़ रहे हैं। आजसू विधायक विकास मुंडा जेएमएम की टिकट से लड़ रहे हैं। यह सूची काफी लंबी है और सबके नाम लिखने की जरूरत नहीं है।

हकीकत है कि बागियों ने सभी पार्टियों के नेताओं की नींद उड़ाई है। अपवादों को छोड़ दें तो आमतौर पर पार्टियों के पुराने और समर्पित नेता दलबदल नही करते हैं। पर इस बार हर पार्टी के पुराने और समर्पित रहे नेताओं ने दलबदल की है। छोटे राज्यों में और खासतौर से झारखंड जैसे आदिवासी और पिछड़े राज्य में मतदाताओं की निष्ठा पार्टियों से ज्यादा नेता में रहती है। तभी ऐसे राज्यों में राष्ट्रीय पार्टियों के मुकाबले छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों की पूछ रहती है। क्षेत्रीय पार्टियां आसानी से सफल हो जाती हैं। जैसे झारखंड में जेएमएम, जेवीएम, आजसू और एक हद तक झारखंड पार्टी भी सफल रही है।

इसी वजह से बाबूलाल मरांडी ने तमाम प्रलोभन के बावजूद अपनी पार्टी का विलय न तो कांग्रेस में किया और न भाजपा में। तभी यह माना जा रहा है कि पुराने, मजबूत और जमीनी नेताओं के दलबदल करने का बड़ा असर होगा। हर नेता के पास अपने बंधुआ मतदाता हैं और ज्यादातर नेताओं के पास संसाधन भी हैं। इसलिए बागी नेता नतीजों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करेंगे। उनके लड़ने से चुनाव नतीजे तो प्रभावित हो ही रहे हैं, चुनाव बाद की राजनीति भी उनसे बहुत प्रभावित होगी।

अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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