बच्चों के झगड़े में नहीं पड़ते समझदार बुजुर्ग

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देखे जी, जेए्नयू के छात्रों को तो पुलिस भी कुटती है और वकील भी। जैसे किसान खेत में भी लुटता है और मंडी में भी। जैसे मजदूर बाजार में भी लुटता है और फैक्टरी में भी। जैसे मध्यवर्ग का आदमी स्कूल-कॉलेज में भी लुटता है और अस्पताल में भी। जैसे औरत घर में भी अपमानित होती है और बाहर भी। जेएनयू के स्टूडेंट्स को इधर पुलिस ने कूटा। पहले वकीलों ने कूटा था। इस लिहाज से दोनों भाई-भाई बनने के पूरी तरह काबिल हैं। वैसे तो कभी हिंदी-चीनी भी भाई-भाई होते थे। फिर उनमें युद्ध हो गया था। भाइयों में युद्ध होना कोई बड़ी बात नहीं। कौरवों और पांडवों में भी हो गया था। भाइयों में युद्ध होना कोई बड़ी बात नहीं। हिंदी-चीन भाई-भाई में भी हुआ है और अलग चूल्हा धर बैठे भाई के साथ भी हुआ है। इधर वकीलों और पुलिस के बीच भी बड़ा भयंकर सा युद्ध चला, जो कि भाई-भाई ही हैं- हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आपस में हैं भाई- भाई की तरह। वैसे जब सिख विरोधी दंगा होता है तो हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई हो जाते हैं और जब हिन्दू-मुस्मिल दंगा होता है तो हिन्दू-सिख भाई-भाई हो जाते हैं।

खैर वकील और पुलिस दोनों भाइयों के बीच यह युद्ध दिल्ली में लड़ा गया। शुक्र है, यह लड़ाई पानीपत की चौथी लड़ाई नहीं हुई। लोग अक्सर ही पानीपत की चौथी लड़ाई और तीसरे विश्व युद्ध का इंतजार करते रहते हैं। फिर उनके बीच कुरुक्षेत्र भी नहीं मचा, जो अब तक भाइयों की लड़ाई का सबसे उपयुक्त मंच या मैदान साबित हुआ है। पर जैसे दिल्ली सात बार बसी और सात बार उजड़ी और इस प्रक्रिया में उसकी राजधानी कभी महरौली, तो कभी सिरी, तो कभी शाहजहांनाबाद रही, वैसे ही दिल्ली में पुलिस और वकीलों के युद्ध के मैदान भी बदलते रहे। कभी युद्ध का मैदान तीस हजारी कोर्ट बना तो कभी साकेत कोर्ट, कभी दिल्ली पुलिस का मुख्यालय युद्ध का मैदान बना तो कभी इंडिया गेट। अच्छी बात यह रही कि न तो कोई बड़ा वकील इस युद्ध के मसले पर बोला और न ही देश के गृह मंत्री ने कुछ कहा। जो समझदार बुजुर्ग होते हैं, वे बच्चों के झगड़े में नहीं पड़ते। वे समझदारी दिखाते हैं। अच्छी बात यह है कि वकीलों और पुलिस का झगड़ा खानदानी दुश्मनी में नहीं बदला।

कम से कम ऐसा विश्वास तो अवश्य ही कर लेना चाहिए। वरना पुलिसवालों ने तो किरण बेदी जी को याद कर लिया था जैसे खानदानी दुश्मनियों में ऐसे वीर बुजुर्गों को अक्सर याद कर ही लिया जाता है जिनकी बहादुरी के किस्से पीढिय़ों तक चलते हैं। पर वकीलों के साथ युद्ध में जो पुलिसवाले एक दम निरीह बने हुए थे और पीडि़त नजर आ रहे थे, उन्होंने जेएनयू के छात्रों को कूटकर वह सारी कसर पूरी कर ली, जो वे तब नहीं कर पाए थे। कुछ लोग इसे भड़ास कह सकते हैं, पर यह भड़ास नहीं क्षतिपूर्ति थी। तो जेएनयू वालों को तो दोनों ही क टते हैं। आप चाहें तो जेएनयू वालों को इस लिहाज से गरीब की जोरू भी कह सकते हैं, जो सबकी भाभी बनने को मजबूर होती है। जैसे गौरक्षकों की भीड़ गाय-भैंस ले जा रहे किसी गरीब किसान को कूटती है, जैसे उन्मादी भीड़ किसी को बच्चा चोर करार देकर पीट–पीटकर उसकी हत्या करती है, वैसे ही पुलिस और वकील दोनों जेएनयू वालों को कूटते हैं।

पर इसे भीड़ की हिंसा नहीं कहा जाता। पुलिस जब उन्हें कूटती है तो कानून और व्यवस्था के नाम पर कूटती है और वकील जब उन्हें कूटते हैं तो देशद्रोही करार देकर। अगर जेएनयू का छात्र दिख जाए तो पुलिस और वकील जैसे दोनों खानदानी दुश्मन भी एक दम गलबहियां सी करने लगते हैं, बगलगीर से हो जाते हैं। उनके दिल से दिल मिल जाते हैं। सारे मतभेद दूर हो जाते हैं। सारी शिकायतें दूर हो जाती हैं। अगर आगे कभी वकीलों और पुलिस में झगड़ा हो जाए, मारपीट हो जाए, दोनों पक्ष एक दूसरे के खिलाफ अड़ जाएं, हड़ताल की नौबत आ जाए, सुलह की कोई सूरत न रह जाए तो सरकार को चाहिए कि उनके बीच जेएनयू के छात्रों को खड़ा कर दे। उन्हें कूटने के लिए दोनों फौरन एक हो जाएंगे। उनके शिकवे-शिकायत एक दम दूर हो जाएंगे।

सहीराम
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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