तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके मुलायम सिंह यादव अगर चाहते तो एक बार और सीएम बन सकते थे, लेकिन 2012 में चौथी बार जब उनके मुख्यमंत्री बनने का मौका आया तो उन्होंने स्वयं के बजाए पुत्र अखिलेश यादव की सीएम पद पर ताजपोशी करा दी थी। मुलायम ने स्वास्थ्य कारणों से या फिर पुत्र मोह में यह फैसला लिया था, इसका कभी खुलासा नहीं हो पाया, लेकिन नेताजी का यह फैसला काफी लोगों को रास नहीं आया था, जिसमें समाजवादी पार्टी के कुछ नेताओं के अलावा उनके परिवार के सदस्य भी शामिल थे। मुलायम सिंह अपने आप को समाजवादी नेता और चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया का चेला बताते हैं। वैसे मुलायम के सियासी गुरुओं में लोहिया के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर, राज नारायण जैसे तमाम नाम शामिल थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि मुलायम कभी भी उक्त गुरुओं के बताए रास्ते पर चलते नहीं दिखाई दिए। मुलायम ने सियासत में संघर्ष तो खूब किया, लेकिन सत्ता की सीढिय़ां चढऩे के लिए उन्होंने सर्वसमाज की आवाज बनने के बजाए शॉर्टकट का रास्ता अपनाया।
इसके लिए मुलायम ने वोट बैंक की सियासत की। मुलायम की सारी सियासत मुसलमानों और पिछड़ों (पिछड़ों में खास करके यादव) पर केन्द्रित रही। मुलायम ने मुस्लिम वोट बैंक को अपने (समाजवादी पार्टी) साथ ऐसे जोड़कर रखा, जैसे फैविकोल का जोड़ हो। अयोध्या विवाद के दौरान मुलायम लगातार हिन्दुओं की भावनाओं की चिंता किए बगैर मुसलमानों के पक्ष की बात करते रहे। कारसेवकों पर गोलियां चलाने से भी उन्हें गुरेज नहीं हुआ। मुलायम की तुष्टिकरण की सियासत के एक नहीं दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं। पिछड़ी बिरादरी से सियासत की दुनिया में कदम रखने वाले मुलायम ने अपने ऊपर लगे पिछड़ी जाति के धब्बे को ऐसा धोया कि लोग पिछड़ी जाति का होने का दर्द भूलकर इसके सहारे नई ऊंचाइयां छूने लगे। बहरहाल, बात मुलायम से आगे बढ़कर अखिलेश की सियासत की कि जाए तो अखिलेश विकास और युवाओं के रोजगार की बात करते थे, जिस कम्प्यूटर का मुलायम विरोध किया करते थे, अखिलेश सरकार बनी तो उन्होंने मेधावी छात्रों को फ्री में कम्प्यूटर बांट कर छात्रों का उत्साहवर्धन किया।
अखिलेश ने जाति धर्म की सियासत से दूरी बनाकर रखी तो सपा के आजम खान, शिवपाल सिंह यादव जैसे नेता उनसे नाराज हो गए, लेकिन अखिलेश ने अपनी सियासी चाल नहीं बदली। अखिलेश को मुयमंत्री बने दो वर्ष भी नहीं हुए थे कि 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ गया। सपा पांच सीटों पर सिमट कर रह गई। इसके बाद समाजवादी पार्टी में ऐसा संग्राम छिड़ा कि बाप- चचा और बेटा आपस में ही उलझ पड़े। 2017 तो समाजवादी पार्टी के लिए उससे भी बुरा गुजरा, समाजवादी पार्टी के हाथ से सत्ता खिसक कर बीजेपी के हाथों में पहुंच गई। इस दौरान अखिलेश ने कई सियासी प्रयोग भी किए, लेकिन सब जगह उन्हें मुंह की खानी पड़ी। मुस्लिम वोटर भी तितर-बितर होने लगा था, कुछ बसपा में चले गए तो कुछ कांग्रेस में, परंतु हाल ही में हुए उप-चुनाव में समाजवादी पार्टी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
क्योंकि सभी 12 विधान सभा सीटों पर हुए उप-चुनाव में सपा का ने केवल वोट बैंक बढ़ा, बल्कि मुस्लिम वोटरों ने एक मुश्त सपा के पक्ष में वोटिंग की थीं। इसी के बाद अखिलेश यादव का मुस्लिम प्रेम गहराने लगा है। वह मुसलमानों के पक्ष में खड़ा होने का अब कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। चाहे आजम खान के समर्थन की बात हो या फिर एनआरसी अथवा नागरिकता संशोधन बिल, वह हमेशा मुसलमानों के साथ खड़े नजर आए। इसी क्रम में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ 19 दिसंबर को समाजवादी पार्टी प्रदर्शन करने जा रही है। समाजवादी पार्टी ने संशोधित नागरिकता कानून, किसानों की बदहाली सहित अन्य कई मुद्दों को लेकर 19 दिसंबर को प्रदेश के सभी मंडलायुक्त कार्यालयों पर धरना-प्रदर्शन का ऐलान किया है। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सभी जिला इकाइयों को भी इस धरना-प्रदर्शन में पूरी ताकत से जुटने का निर्देश दिया है।
अजय कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)