तालिबान को लेकर अब तक भारत सोया हुआ क्यों है?

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अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी के बारे में समझौता लगभग संपन्न हो गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रतिनिधि जलमई खलीलजाद के बीच जिन शर्तों पर समझौता हुआ है, उन्हें अभी पूरी तरह उजागर नहीं किया गया है लेकिन भरोसेमंद स्त्रोतों से जो सूचनाएं मिली हैं, उनके आधार पर माना जा रहा है कि अगले डेढ़ साल में पश्चिमी राष्ट्रों के सैनिक पूरी तरह से अफगानिस्तान को खाली कर देंगे। बदले में तालिबान ने आश्वासन दिया है कि वे आतंकवादियों पर पक्की रोक लगा देंगे और वे एसआईएस और अल-कायदा जैसे संगठनों से कोई संबंध नहीं रखेंगे।

लेकिन अभी तक यह पता नहीं चला है कि समझौते में वर्तमान अफगान सरकार की भूमिका क्या है ? अफगान राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से तालिबान कोई बात करेंगे या नहीं ? कतर में हफ्ते भर तालिबान से बात करने के बाद अब खलीलजाद दुबारा काबुल गए हैं लेकिन राष्ट्रपति अशरफ गनी ने राष्ट्र के नाम दिए अपने संदेश में एक बड़ा सवाल उठा दिया है। उन्होंने अमेरिका के शांति-प्रयासों की सराहना की है लेकिन मांग की है कि वे सोच-समझकर किए जाने चाहिए।

गनी की बात ठीक है। जब अफगानिस्तान से रुसी फौजों की वापसी हुई थी तो क्या हुआ था ? प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव के आग्रह पर अपने मित्र डॉ. नजीबुल्लाह को लेने मैं हवाई अड्डे पहुंचा लेकिन वहीं मुझे बताया गया कि राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की हत्या करके तालिबान ने उन्हें काबुल के चौराहे पर लटका दिया है। क्या वही दृश्य अब दुबारा दोहराया जाएगा? अमेरिकी फौजों की वापसी होते ही अफगान सरकार और फौज के पांव उखड़ जाएंगे। देश में अराजकता का माहौल खड़ा हो जाएगा। उस समय पाकिस्तान की भूमिका क्या होगी, अभी कुछ पता नहीं। जुलाई में आयोजित राष्ट्रपति के चुनाव का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।

कुल मिलाकर इस समझौते का अर्थ यह है कि अमेरिका किसी भी कीमत पर अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाना चाहता है। इस सारे परिदृश्य में भारत कहीं नहीं दिखाई पड़ रहा। भारत ने लगभग 20 हजार करोड़ रु. और दर्जनों लोगों की बलि चढ़ाई है, अफगानिस्तान की सहायता के लिए लेकिन हमारी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई है।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ट चिंतक हैं)

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