पिछले दिनों देश के चारों टेलिफोन कंपनियां एयरटेल, वोडाफोन-आइडिया, रिलायंस जियो और सरकारी उपक्रम बीएसएनएल ने अपनी दरों में बढ़ोतरी करते हुए नए टैरिफ प्लान या तो जारी कर दिए हैं या जारी करने की प्रक्रिया में हैं। पिछले वर्ष 2018 में भी इन्होंने दरें बढ़ाई थीं। लेकिन इस बार अंदेशा है कि बढ़ोतरी ग्राहकों को चुभने वाली होगी। निजी कंपनियों ने इसके लिए खुद को हो रहे बेतहाशा नुकसान को जिम्मेदार ठहराया है। बताया जा रहा है कि वोडाफोन-आइडिया को 50,922 करोड़ रुपये और एयरटेल को 23,045 करोड़ रुपये का घाटा हो चुका है, जबकि रिलायंस जियो को 990 करोड़ का लाभ हुआ है। बीएसएनएल को छोडक़र बाकी सभी कंपनियों ने बाजार से अरबों रुपये का ऋण भी ले रखा है लिहाजा दरों में बढ़ोतरी को इन कंपनियों ने अपनी मजबूरी बताया है। सवाल है कि ऐसी परिस्थितियां पैदा कैसे हुईं, और आखिर क्यों? जगजाहिर है कि 130 करोड़ की आबादी वाले इस देश में, जहां लगभग 120 करोड़ मोबाइल फोन इस्तेमाल में हैं, टेलिकॉम ऑपरेटर मात्र 4 बचे हैं। 3 निजी और एक राज्याश्रित यानी बीएसएनएल। इनमें बीएसएनएल को बहुत व्यवस्थित ढंग से तबाह किया जा रहा है। टेलिकॉम रेगुलेटरी अथारिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) का कहना था कि कोई भी टेलिकॉम आपरेटर मुफ्त सेवाएं उपभोक्ताओं को अधिकतम तीन महीने की अवधि तक ही मुफ्त दे सकता है।
जियो ने अक्टूबर-दिसंबर 2016 की अवधि में अपनी सेवाएं मुफ्त दीं और एक बार फिर 2017 के शुरू में नववर्ष के उपलक्ष्य में उसने तीन माह तक और अपनी सेवाएं मुफ्त दीं। मुफ्त सेवाएं देने का मतलब है कि सरकार को उस अवधि में कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि हर टेलिकॉम ऑपरेटर को अपनी आय का कुछ प्रतिशत लाइसेंस फीस के रूप में सरकार को देना होता है। डिपार्टमेंट ऑफ टेलिकॉम के तत्कालीन ज्वाइंट सेक्रेटरी दीपक मिश्रा ने ट्राई के चेयरमैन को लिखा कि जियो का 3 महीने के लिए दोबारा मुफ्त सेवाएं देने का प्लान गैरकानूनी है, सरकार को इससे नुकसान हो रहा है। पर उनकी अनसुनी की गई और दीपक मिश्रा का ट्रांसफर कर दिया गया। नए सचिव ने जियो को दूसरी बार 3 माह के लिए मुफ्त सेवाएं देने से नहीं रोका। उपभोक्ताओं को जब कोई चीज मुफ्त में मिल रही हो तो वे स्वाभाविक रूप से उसकी ओर जाएंगे। नतीजा यह रहा कि वे जियो की तरफ खिंचे चले गए और लागत केअनुसार सेवाएं दे रहे प्रतिद्वंद्वियों को नुकसान हुआ। हालांकि कम्पिटीशन ऐक्ट 2002 में लिखा है कि कोई भी कंपनी बाजार में अपनी प्रभुत्वशाली स्थिति का लाभ उठाकर प्रतिद्विद्वियों को बाजार से बाहर करने के उद्देश्य से ‘लागत से कम पर वस्तु’ नहीं बेच सकती और इसे कोर्ट में चैलेंज किया जा सकता है। इसे प्रिडेटरी प्राइसिंग या अंडर कटिंग कहते हैं, जिसका एक मात्र उद्देश्य बाजार में अपना एकाधिकार स्थापित करना होता है।
अमेरिका में कुछेक नई खोजों को अपवाद छोडक़र वस्तुओं की कीमत इस तरह तय करना, जो लागत से कम हो, गैरकानूनी है। भारत में इसे निषिद्ध तो घोषित किया गया है, पर गैरकानूनी करार नहीं दिया गया है। रिलायंस जियो ने जब अपनी सेवाएं मुफ्त घोषित कीं तो वोडाफोन, एयरटेल वगैरह कम्पिटीशन कमिशन ऑफ इंडिया को शिकायत कर सकते थे। पर रिलायंस की भारी- भरकम हैसियत को देखते हुए शायद उन्होंने चुप रहना ठीक समझा। इतना ही नहीं, सरकार ने रिलायंस जियो को एक तोहफा और दिया। जब कोई उपभोक्ता अपना वर्तमान टेलिकॉम ऑपरेटर बदलकर कोई अन्य ऑपरेटर चुनता था तो सरकार को 14 पैसे प्रति मिनट का भुगतान देना पड़ता था। उदाहरण के लिए अगर आप वोडाफोन को छोडक़र जियो को चुनते हैं तो जियो को 14 पैसे/मिनट की दर से सरकार को भुगतान क ना पड़ता था। जियो ने सरकार से अपील की कि इस 14 पैसे/मिनट को घटा कर 6 पैसे/मिनट कर दिया जाए। इससे पहले एयरटेल और वोडाफोन-आइडिया ने इस ‘इंटर-यूसेज चार्ज’ को घटाने का निवेदन किया था मगर सरकार नहीं मानी। लेकिन जियो के कहने पर उसने यह चार्ज 6 पैसे/मिनट कर दिया, जिससे एक ही झटके में सरकारी खजाने को 5000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।
मार्च 2019 में एक माह में ही रिलायंस जियो ने एक करोड़ उपभोक्ताओं को अन्य टेलिकॉम ऑपरेटरों से अपनी ओर खींच लिया। जियो का कुल निवेश 1,50,000 करोड़ रुपये है जिसमें से 1,25,000 करोड़ रुपये उसने सरकारी बैंकों से ऋण ले रखा है। सरकारी बैंकों का अनुभव यह बताता है कि उनका ऋण वापस नहीं आ पाता जिससे उनके एनपीए में बढ़ोतरी होती जाती है और तंग आकर प्राय: वे सरकारी आदेश मिलने पर ऋण माफ कर देते हैं। इस तरह पब्लिक का पैसा बड़ी बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों की जेब में चला जाता है। जाहिर है, निजी टेलिकॉम कंपनियां, जिन्हें पैदा हुए ज्यादा वक्त भी नहीं हुआ, सरकार के लचीले रुख के कारण तरक्की करती जाती हैं जबकि खुद सरकार की अपनी कंपनियों बीएसएनएल और एमटीएनएल को निवेश के लिए वह मदद नहीं दी जाती, जिसकी उन्हें सगत जरूरत है। कमजोर पड़ती सेवाएं: निजी टेलिकॉम ऑपरेटरों ने दलील दी है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण उन्हें 92,000 करोड़ रुपये लाइसेंस फीस देनी है। इसके अलावा 41,000 करोड़ रुपये स्पैक्ट्रम के यूसेज चार्ज के भी बकाया हैं। सुप्रीम कोर्ट का हुक्म जायज है। हर टेलिकॉम ऑपरेटर को अपनी कमाई का निश्चित हिस्सा लाइसेंस फीस के तौर पर सरकार को देना होता है। इन कंपनियों ने वह नहीं दिया। शुरू में यह धनराशि महज 23,000 करोड़ थी, लेकिन कई वर्षों तक जमा न करने के कारण इस पर ब्याज और जुर्माना चढ़ता चला गया।
अजय कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं )