‘टुकड़े-टुकड़े’ में जल्दबाजी क्यों?

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समझ नहीं आता कि पांच साल का जब दो टूक जनादेश है तब भी पहले दिन से हिंदू बनाम मुसलमान के टुकड़े-टुकड़े वाली बातें हैं! पाकिस्तान, मुसलमान का खौफ दिखा कर हिंदुओं के वोटों का ब्रह्मास्त्र मिल गया है तो समझदारी का तकाजा यही है कि चुनाव से छह महीने पहले उसका उपयोग हो, चुनाव जीतें और फिर ठसके से सत्ता भोगने की सियासी चतुराई से काम हो। लेकिन इरादा स्थायी अखाड़ा सजाने का लग रहा है। लोकसभा में सांसदों ने शपथ ली तब भी जय श्रीराम और अल्लाह हू अकबर के संसद में नारे लगे। राष्ट्रपति के अभिभाषण में तीन तलाक और हलाला प्राथमिकता में थे तो तुंरत बिल भी पेश हुआ। अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के भाषणों के बीच एक मंत्री के मुंह से सदन ने सवाल सुना कि वंदे मातरम जो नहीं बोलेंगे क्या वे भारत में रहने के हकदार हैं? तो सत्तापक्ष के भाजपा सांसदों ने टेबल थपथपाते हुए हुंकारे से कहा ‘नहीं, कतई नहीं।”

भाषण ओड़िशा से पहली बार चुन कर आए और राज्य मंत्री बने प्रताप चंद्र षाड़ंगी का था। उन्होंने भाषण में यह भी कहा कि देश टुकड़े-टुकड़े गैंग को कतई स्वीकार नहीं करेगा। पूरा देश प्रधानमंत्री के साथ है और जो लोग अफजल गुरू के पक्षधर हैं उन्हें देश में रहने का हक नहीं है।

ध्यान रहे इससे पहले शपथ ग्रहण के वक्त के जयश्री राम बनाम अल्लाह-हू-अकबर के हल्ले के बीच समाजवादी पार्टी के मुस्लिम सांसद सफीकुर रहमान बर्क ने कहा था कि वे वंदे मातरम नहीं बोल सकते हैं क्योंकि इसकी इस्लाम में अनुमति नहीं है। इस्लाम के खिलाफ है।

यह मुस्लिम सांसदों-विधायकों-नेताओं का पुराना तर्क है। पर उस बात पर नई 17वीं लोकसभा के पहले सत्र के शुरुआती दिनों में ही ‘वंदे मातरम नहीं बोला’ तो देश में रहने का हक नहीं का नैरेटिव क्या संकेत करता है? फिर नारेबाजी, तीन तलाक पर बहस सहित संसदीय तेवर के साथ झारखंड में मॉब लिंचिंग की घटना या जय श्रीराम पर पश्चिम बंगाल में सियासी टकराव की जैसी जो बातें हो रही हैं उस सबका मतलब क्या निकलता है? या तो सोच है कि हिंदुओं से दो टूक जनादेश है तो अब बिना देरी के, चुस्ती से, फुर्ती से तय करा देना है कि देश में रहना है तो देश के कायदे में मतलब वंदे मातरम, जय श्रीराम बोल कर जीना होगा।

क्या नरेंद्र मोदी-अमित शाह, उनकी सरकार, भाजपा और संघ परिवार सचमुच अब यह संकल्प लिए हुए हो गए हैं कि मुस्लिम सांसदों से वंदे मातरम् बुलवाना है? यदि ऐसा है तो रोडमैप क्या है? ऐसा न बोलने वालों की सांसदी-विधायकी खत्म होने का क्या नियम बनने वाला है? ‘जय हिंद’ की जगह क्या जय श्रीराम या भारत माता की जय का उद्घोष ही आगे का कायदा है?

सो, आज भारत का नया कोर प्रश्न है कि हिंदू बनाम इस्लाम की इतिहास ग्रंथि क्या आज निर्णायक फैसले में फुर्ती के मुकाम पर है? हां, संसद में सत्ता पक्ष के वाक्यों का भारी अर्थ होता है। यदि मंत्री पूछे कि वंदे मातरम् नहीं बोलने वाले विधर्मी भारत भूमि में क्या रह सकते हैं और सत्तापक्ष के सांसद कहें कि नहीं रह सकते तो फिर बात आई-गई वाली हल्की नहीं मानी जाएगी। सरकार को फैसला लेना होगा। मुस्लिम सांसद, विधायक, समुदाय भी सोचेगा और तब बात किधर बढ़ेगी? कथित ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का मकसद सधेगा या भारत राष्ट्र-राज्य का?

इसलिए बिना सलाह मांगे अपनी विनम्र सलाह है कि हिंदुओं ने प्रताप चंद्र षाड़ंगी को, मोदी-शाह को जिताया है तो वे पहली प्राथमिकता दुनिया को यह बतलाने की बनाएं कि हिंदुओं को राज करना आता है। वे आर्थिकी को बचा सकते हैं? हिंदू राष्ट्र भी बनाना हो तो बना लें लेकिन धमकाने, उकसाने, झूठी लड़ाई बनवाने, मार-पीट कर जय श्रीराम या वंदे मातरम के हल्ले से न राम मिलेंगे और न माया।

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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