यदि हम जीवन में पूर्ण रूप से सुरक्षित तरीके के साथ आगे बढऩा चाहते हैं, तो जिधर दम उधर हम के ध्येय वाय को आत्मसात कर लेना चाहिए। इधर-उधर मत देखो, राजनीति को ही देखो तो इसमें ऐसा ही तो होता है। जब दम के साथ हम होंगे, तब किसी भी परिस्थिति में बेदम नहीं हो सकेंगे। आज के इस घोर प्रतिस्पर्धात्मक युग में अपना विकेट बचाते हुए चैकों-छकों की बरसात करने का वही एक माध्यम है। कहने को तो देश की राजनीति में आयाराम गयाराम की परंपरा को काफी हद तक कानूनी रूप से नियंत्रण में कर लिया गया है, लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि एक कानून बनता है तो दस गलियां बचाव की निकाल ली जाती हैं।
ऐसा ही हुआ भी, चाहे थोड़ा फेरबदल करके हुआ हो, लेकिन हुआ जरूर है। वैसे भी क्षणभंगुर मानव जीवन में एक सांस खींची है तो उसे छोड़ पासो वा नहीं। एक सांस छोड़ी है तो वापस खींच पाएंगे क्या नहीं? यह सब विधि के विधान के अधीन है। ऐसे में सक्रिय राजनीति करते हुए एक ही खूटे से बंधे रहकर कब तक अपनी बारी का इंतजार किया जाए, इसलिए समझवरी इसी में है कि समय रहते समझवरी से काम लिया जाए। ममता जी को ही देखो, ऐन वत पर उनके लोग किनारा कर गए। जब ये साा में आई तो सुबह के भूले शाम को घर आने की तैयारी में मशगूल हो गए। दरअसल बंगाल ही नहीं हर एक सूबे में लगभग यही हाल हैं। बीते दौर में तो एक राज्य सरकार रातो-रात इस दल की सरकार से उस दल की सरकार हो गई थी। वह दौर राजनीति में आयाराम-गयाराम का स्वर्णिम युग था।
हालांकि कालांतर में इस पर रोक जरूर लगी, लेकिन बिना रोक-टोक पिछले दरवाजे से आयाराम गयाराम का सिलसिला विस्तार पाता गया। ऐसा नहीं है कि इधर से उधर या उधर से इधर होना, अपनी निष्ठा को बदलने का सूचक होता है। कारण सष्ट है कि जब व्यापक जनहित के प्रति समर्पित भूमिका के निर्वहन करने का संकल्प धार लिया जाता है, तो इस संकल्प को पूरा करने हेतु दल की प्राथमिकता अपने स्वयं के विवेक पर निर्भर होती है। जाहिर है कि हमारा विवेक अपने अच्छे-बुरे का खयाल रखते हुए ही काम किया करता है। इस दृष्टि से इधर से उधर या उधर से इधर होना हमारा मूलभूत अधिकार होता है।