गांव की छांव ही असली दांव

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पिछले महीने की 23 तारीख को विश्व बैंक ने अपने इंडिया डिवेलपमेंट अपडेट में कहा है कि हाल के महीनों में भारत की ग्रामीण निर्धनता में वृद्धि हुई है। पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण निर्धनता कम हुई थी पर अनेक परिवार गरीबी की रेखा के बहुत नजदीक थे। इस अपडेट के मुताबिक कोविड-19 के दौर में ऐसे अनेक परिवारों के गरीबी के रेखा के नीचे पहुंचने की संभावना बढ़ गई है। वैसे भी भारतीय गांवों के स्वरूप में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिल रहे हैं। इस बदलाव के अनुकूल नीतियां बनाना आवश्यक है, तभी गांवों की निर्धनता में टिकाऊ तौर पर कमी लाई जा सकेगी और ग्रामीण क्षेत्र में स्थायी समृद्धि आ सकेगी। 2001 और 2011 की जनगणनाओं के बीच गुजरे एक दशक में भारत में किसानों की संख्या लगभग 86 लाख कम दर्ज की गई थी। 2011 के आंकड़ों के अनुसार देश में 26 करोड़ 30 लाख व्यति खेती-किसानी से जुड़े थे। इनमें से 11.9 करोड़ किसान थे जबकि 14.4 करोड़ खेत-मजदूर थे। यहां से पीछे जाकर 2001 की जनगणना के आंकड़ों को देखें तो उस समय खेती-किसानी से जुड़े व्यतियों की संख्या 23.4 करोड़ थी, जिसमें किसानों की संख्या 12.8 करोड़ और कृषि मजदूरों की संख्या 10.7 करोड़ थी। साफ है कि यदि किसानों और खेत-मजदूरों को मिलाकर देखा जाए तो 2001-2011 के दशक में 2.8 करोड़ की वृद्धि हुई है, पर यदि केवल किसानों को देखा जाए तो 86 लाख की कमी हुई है।

व्यवहार में ऐसे परिवारों की स्थिति तेजी से बढ़ रही है जिनके पास बहुत थोड़ी सी जमीन वाली किसानी जरूर है पर साथ में इन परिवारों के सदस्य खेतों में मजदूरी और प्रवासी मजदूरी भी करते हैं, तभी परिवार का गुजारा होता है। आजकल तो लॉकडाउन के कारण काम-धंधे से हाथ धो चुके शहरी मजदूरों की बड़ी संख्या भी गांव आकर बैठ गई है जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर असाधारण दबाव आ गया है। हालांकि दूसरा सच यह भी है कि लॉकडाउन के ही कारण जहां सारे सेटर जबर्दस्त गिरावट दिखा रहे हैं वहीं कृषि क्षेत्र में ग्रोथ दर्ज की गई है। ऐसे में यह जरूरी है कि आत्मनिर्भरता का सिद्धांत गांव और पंचायत स्तर पर भी कार्यान्वित हो। कृषि तकनीक बहुत सस्ती होनी चाहिए। जो गांव के अपने निशुल्क उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन हैं, उनका बेहतर से बेहतर उपयोग वैज्ञानिक उपायों के जरिये करना चाहिए। इस तरह बहुत कम खर्च पर अच्छी उत्पादकता प्राप्त की जा सकती है। यह राह अपनाने से किसान को कर्ज और ब्याज से बहुत राहत मिलेगी। भूमिहीनों को कुछ भूमि उपलब्ध करवाने के प्रयास होने चाहिए। आवास की भूमि सबको मिले और इसके साथ किचन गार्डन का स्थान रहे जिसमें कम से कम साग-सब्जी का उत्पादन हो सके। जहां संभव है, वहां भूमि-सुधार कार्यक्रम के अंतर्गत कुछ कृषि भूमि भी भूमिहीनों को मिलनी चाहिए।

जो भूमि कृषि योग्य नहीं है, उसे स्थानीय वृक्ष पनपाने के लिए भूमिहीन परिवारों को दिया जा सकता है और इसे हरा-भरा करने के लिए उन्हें मजदूरी भी दी जा सकती है। फिर वृक्ष बड़े होने पर इनकी लघु वन-उपज से वे आजीविका प्राप्त कर सकेंगे। मनरेगा जैसे अच्छे सरकारी कार्यक्रमों को और आगे बढ़ाना चाहिए पर साथ में उसमें भ्रष्टाचार दूर करना जरूरी है। जो आंकड़े सरकारी रेकॉर्ड के आधार पर उपलब्ध हैं, उनकी तुलना में वास्तविक लाभ जरूरतमंदों तक कम पहुंच रहा है। अनेक स्थानों पर भ्रष्टाचार और लापरवाही असहनीय हद तक उपस्थित है। इससे निजात पाने के लिए गांवों को अधिक लोकतांत्रिक बनाना, जो शिकायत वहां से प्राप्त हो उस पर तुरंत उचित कार्रवाई करना, असरदार सामाजिक अंकेक्षण स्थापित करना और पारदर्शी व्यवस्था बनाना जरूरी है। कृषि व ग्रामीण विकास पर्यावरण रक्षा, जल-संरक्षण और हरियाली बनाए रखने के उद्देश्यों के अनुरूप होना चाहिए ताकि टिकाऊ लाभ मिले। स्थानीय दस्तकारियों और खाद्य प्रसंस्करण कार्यों को प्रोत्साहित करना चाहिए। गांव के रोजगारों में सूचना तकनीक और प्रदूषण रहित छोटे उद्योगों के माध्यम से विविधता आनी चाहिए। स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में रोजगार बढ़ाने की जरूरत वैसे भी है। कृषि व ग्रामीण विकास को अधिक संसाधन मिलने चाहिए।

गांवों को व्यापक एकता स्थापित कर ग्रामीण विकास के अनेक साझे कार्य सबके सहयोग से आगे बढ़ाने चाहिए। छूआछूत पूरी तरह समाप्त होनी चाहिए। जहां भी गांवों को धर्म और जाति के आधार पर बांटा जाता है वहां गांव की कठिनाइयां बढ़ जाती हैं। अत: गांव की भलाई के लिए एकता को मजबूत करना और इस एकता का उपयोग सबकी भलाई और विकास के लिए करना सबका उद्देश्य होना चाहिए। गांवों में सभी तरह के नशे को दूर करने के कार्यक्रम समग्रता से होने चाहिए। नशा-विरोधी समिति हर गांव में होनी चाहिए। इसमें प्रमुख स्थान और नेतृत्व महिलाओं का होना चाहिए। महिलाओं और लड़कियों को सुरक्षा के साथ ही समानता का माहौल भी मिलना चाहिए। घरेलू हिंसा और यौन हिंसा की संभावना को समाप्त करने के लिए महिला-मंडल का गठन होना चाहिए।

महिला स्वयं सहायता समूहों का गठन कर महिलाओं की आर्थिक स्थिति मजबूत करनी चाहिए। पंचायती राज को मजबूत करना चाहिए पर साथ में इसे गुटबाजी और एक-दो व्यक्तियों के हाथ में अधिक शति केंद्रित हो जाने की प्रवृत्ति से बचाना चाहिए। विकेंद्रीकरण और ग्रामीण लोकतंत्र सही अर्थों में प्रतिष्ठित होने चाहिए। गांवों में सरकारी स्तर की स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारना बहुत जरूरी है। किसी भी गंभीर बीमारी या दुर्घटना के कारण गरीबी और कर्ज में धंसने की मजबूरी बढ़ती रही है। मैटरनिटी और एंबुलेंस सुविधाओं में सुधार से भी गांववासियों को बहुत राहत मिलेगी। स्कूली शिक्षा में भी सरकारी स्तर पर सुधार बहुत जरूरी है। सरकारी स्कूलों में सुधार नहीं हुआ तो शहरी पैटर्न पर दूर-दूर के गांवों में प्राइवेट स्कूलों की फीस और बाकी खर्चों का बोझ निर्धन गांववासियों के लिए बड़ी कठिनाई बनता रहेगा। यदि इन सभी स्तरों पर एक समग्र दृष्टिकोण से कार्य हो तो महज पांच वर्ष में ही गांवों की निर्धनता में आश्चर्यजनक कमी लाई जा सकती है।

भारत डोगरा
(लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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