यदि अमेरिका चार महीने पूर्ण या दो-तिहाई तालाबंद रहा, उसकी आर्थिकी पांच-छह महीने सिर्फ बीस-तीस फीसदी काम करती हुई रही तो भारत में वायरस से लड़ाई में कब तक सब कुछ ठप्प रहेगा? अपना जवाब है वैक्सीन के आने तक। तब तक सीन होगा कभी ताला खुला व कभी बंद। कभी देहात में ताला तो कभी शहरों में ताला तो कभी पूरे देश में ताला। मतलब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के लिए लॉकडाउन अब न उगलते बनेगा और न निगलते। नतीजतन देश व जनता सौ जूते भी खाएगी व सौ प्याज भी। मैं ईश्वर को नित दिन प्रार्थना करता हूं कि मैं बुरी तरह गलत, झूठा साबित होऊं। बावजूद इसके देवी सरस्वती का सत्य समझने का मुझे आशीर्वाद मिला लगता है सो, यह बताना धर्म है कि दिवाली के आते-आते भारत में प्याज भी खत्म हो जाना है और जूते भी फट जाने हैं!
उफ! एक स्तर पर सोचना ही नहीं चाहिए कि भारत का क्या होगा। जब तक अमेरिका, पश्चिमी सभ्यता हमें वैक्सीन बना कर न पहुंचा दे तब तक सबको घर के बाहर लिख कर बैठे रहना है – मौत इधर न आना। उस नाते दिवाली का ख्याल भी करना या 14 नवंबर तक सब ठीक हो जाएगा यह सोचना ही बेतुका है। या तो भगवानजी गर्मी के प्रलय से वायरस को मार भारत पर कृपा कर रहे हैं अन्यथा जुलाई-अगस्त और सर्दियों में (खास तौर पर प्रदूषण की वैश्विक राजधानी दिल्ली में, भारत के महानगरों में) कोविड-19 वायरस का तांडव तय है।
दरअसल दिमाग में यह तथ्य बैठा लेना चाहिए कि दुनिया के महाविकसित, अमीर देशों में दो महीने के भीतर दस लाख संक्रमित लोगों का आंकड़ा बनने वाला है। अमेरिका में 50-60-80 हजार लोग मरते लग रहे हैं। अमेरिकी विषेशज्ञ चेता रहे हैं कि रिसर्च अनुसार कोविड-19 की सर्दियों में दोबारा वेव आएगी। सो, जब अमीर देशों में संक्रमण-मौत की रियलिटी प्रमाणित हो गई है तो दुनिया की गरीब-अज्ञानी-बीमार-भूखी भीड़, झुग्गी-झोपड़ आबादी में कितने करोड़ संक्रमित होंगे? नोट रखें सर्वाधिक प्रभावित होने वाला इलाका अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश याकि दक्षिण एशिया क्षेत्र होगा। पूरा दक्षिण एशिया वैज्ञानिकता, मेडिकल समझ, टेस्ट, ट्रेसिंग, अस्पताल, वेंटिलेटर की कसौटी में काम नहीं करने वाला है। अफ्रीका के देशों को पश्चिमी देश, विश्व संस्थाएं, वैश्विक धर्मादा ट्रस्ट भरपूर मदद देंगे लेकिन भारत की तरफ कोई नहीं देखने वाला है। चीन जैसे सप्लायर देश भारत का उल्लू बनाएंगे। भारत सरकार की मशीनरी न सही सामान खरीद सकती है और न यूरोप-अमेरिका-आसियान-दक्षिण अफ्रीका जैसी चिकित्सा व्यवस्था बनवा सकती है।
मैं फरवरी में कोरोना वायरस में भारत की लापरवाही का रोना रो चुका हूं। फरवरी के बाद से भारत में लगातार जो हुआ है उसका लब्बोलुआब वह हर मूर्खता है, जिससे वायरस के लिए भारत खुली चरागाह बने। जैसे एयरपोर्ट पर जांच, स्क्रीनिंग का फर्जीपना हुआ वहीं लॉकडाउन के बाद टेस्ट, ट्रेस, रेपिड टेस्ट, एंटीबॉडी टेस्ट, अस्पतालों, क्वरैंटाइन सेंटर तैयार, चिकित्साकर्मियों को पीपीई, आईसीयू, वेटिंलेटर आदि मुहैया कराने में लगातार लापरवाही है। भारत में वायरस से लड़ते हुए चिकित्साकर्मी व अस्पताल कम दिख रहे हैं और पुलिसकर्मी संक्रमण रूकवाते अधिक दिख रहे हैं। यही एयरपोर्ट की स्क्रीनिंग के वक्त हुआ और वहीं अब हो रहा है। नगण्य टेस्ट तैयारी में ही गरीब जन भेड़-बकरी की तरह बाड़ों में तालाबंद हैं और वायरस मजे से महानगरों की झुग्गी-झोपड़ी में पक रहा है। वायरस टेस्ट के जरिए इंसानी हमलों की चिंता न करते हुए भारत में मजे से लोगों के मुंह-नाक में घुस रहा है। तभी भारत में वायरस संकट का शुरुआती चरण जून आते-आते उछलने की जमीन प्राप्त करेगा। अभी वह भारत सरकार के बाबुओं, लंगूरों, ज्ञानियों-विचारकों को फुदकने देते हुए गलतफहमी बनवा दे रहा है कि देखो हमने वायरस को हरा दिया! कर्व फ्लैट हो गया! बजाओ ताली, जलाओ दिए और न डरो वायरस से वह तो 130 करोड़ लोगों की छप्पन इंची छाती को देख भाग रहा है।
इसलिए भारत की कोविड-19 की कथा पश्चिमी देशों के वैक्सीन निर्माण तक सौ जूते, सौ प्याज खाने की प्रक्रिया में अनुभव की बननी है। वैश्विक घटनाक्रम में मौजूदा ट्रेंड व कोविड-19 की प्रकृति पर वैश्विक वैज्ञानिकों के नित नए आ रहे खुलासे से भारत की लड़ाई बहुत लंबी बनेगी। तीन दिन पहले डबलुएचओ के प्रमुख डॉ. टेड्रोस की यह चेतावनी दिमाग भन्ना देने वाली है कि नए डाटा के विश्लेषण के मुताबिक दुनिया में तीन-चार फीसदी आबादी ही इस वायरस के खिलाफ इम्यूनिटी लिए हुए लगती है। दूसरा हैरान करने वाला संकेत सिंगापुर से खाड़ी देशों, अमेरिका, ब्रिटेन सभी तरफ वायरस का अफ्रीकी लोगों के बाद एशियाई मूल के लोगों का ज्यादा शिकार बनाने का है। उस नाते रैपिड टेस्ट, एंटी बॉडीज टेस्ट के शार्ट कट तरीकों, नीम हकीमी सोच में भारत ने यदि आरटी-पीसीआर टेस्ट में लापरवाही बरती, प्रति माह पचास लाख टेस्ट का बंदोबस्त मतलब 130 करोड आबादी के अनुपात में टेस्ट, ट्रेसिंग, इलाज की युद्ध स्तरीय लड़ाई वाली समझ नहीं दिखाई तो दिवाली या नवंबर तो छोड़िए भारत तब तक वायरस में जकड़ा रहना है जब तक वैक्सीन बन कर करोड़ों की तादाद में भारत को सप्लाई नहीं हो जाती। और यह काम सवा-डेढ़ साल ले सकता है। भले ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में वैक्सीन का आदमियों पर परीक्षण शुरू हो गया हो।
अमेरिकी मॉडल अपनाए भारत: कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले में भारत की तुलना किस देश के साथ की जा सकती है? क्या चीन के साथ इसकी तुलना हो सकती है या दक्षिण एशिया के किसी देश के साथ या जापान, दक्षिण कोरिया के साथ हो सकती है? ऐसा लग रहा है कि इनमें से किसी के साथ भारत की तुलना नहीं हो सकती है। न वायरस का संक्रमण फैलने के तरीके और स्पीड के मामले में और न उससे लडऩे के संभावित मॉडल के मामले में। भारत चीन की तरह कंपलीट लॉकडाउन नहीं कर सकता है। क्या पाकिस्तान, अफगानिस्तान की तरह लोगों को मरने के लिए भी नहीं छोड़ सकता है। जापान, दक्षिण कोरिया की आबादी कम है और संसाधन बहुत हैं इसलिए उनका मॉडल भी भारत के लिए मुश्किल है। सो, भारत को हर हाल में अमेरिकी मॉडल को फॉलो करना होगा। भारत में मामले भी उसी अंदाज में बढ़ रहे हैं, जैसे अमेरिका में बढ़े, भारत में भी उसी तरह शुरुआत में लापरवाही हुई, जैसे डोनाल्ड ट्रंप ने की थी और भारत में भी आबादी बहुत बड़ी है। अच्छी बात यह है कि भारत के सामने अमेरिका का मॉडल है और उसे लागू करने के लिए अभी समय भी है। चीन में कोविड-19 की महामारी से लडऩे में अहम भूमिका निभाने वाले डॉक्टर झांग वेन हांग का अनुमान है कि भारत में कोरोना संक्रमितों की संया वैसे ही बढ़ रही है, जैसे अमेरिका में बढ़ी है। यह एकदम से पीक पर पहुंचने वाली नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे बढ़ती रहेगी।
वैसे भी भारत की जितनी बड़ी आबादी है अगर संक्रमितों की संया धीरे धीरे भी बढ़ती रही तो वह संख्या बहुत बड़ी हो जाएगी। बहरहाल, वेन हांग संक्रामक रोगों के मामले में चीन के बड़े विशेषज्ञ हैं और शंघाई के हुशान हॉस्पिटल के डायरेक्टर हैं। उन्होंने भारत के चीनी दूतावास में चीनी लोगों के साथ वीडियो कांफ्रेंस के जरिए संवाद किया है। उन्होंने कहा है कि भारत में कुछ मामलों से ऐसा लग रहा है कि सामुदायिक संक्रमण शुरू हो गया है और यहां संख्या सीमित रहने की बजाय अमेरिका व यूरोप के मॉडल पर आगे बढ़ेगी। यह भारत के लिए चिंता की बात होनी चाहिए और तभी जरूरी है कि भारत अमेरिका के मॉडल को अपनाए। अमेरिका के मॉडल की खास बात यह है कि वह संघीय शासन प्रणाली की संवैधानिक व्यवस्था वाला देश है, जहां राज्यों के गवर्नर अपने हिसाब से फैसला करने को स्वतंत्र हैं। सो, सबसे पहले भारत में भी केंद्र सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि कोराना वायरस का मामला स्वास्थ्य से जुड़ा है और इसमें राज्यों को पूरी स्वतंत्रता दी जानी चाहिए और जहां जरूरत है वहां उनके लिए संसाधनों का इंतजाम करना चाहिए। जिस तरह तमाम राजनीतिक विरोध के बावजूद राष्ट्रपति ट्रंप ने न्यूयॉर्क के विरोधी पार्टी के गवर्नर के साथ सहयोग किया वैसे ही भारत सरकार को भी राजनीतिक विरोध छोड़ कर हर राज्य के मुख्यमंत्री को अपने राज्य की जरूरत और हालात के हिसाब से फैसला करने देना चाहिए।
इसके बाद केंद्र की जिम्मेदारी है कि वह दुनिया भर के देशों से, जहां से भी हो टेस्टिंग किट मंगवाए, पीपीई मंगवाए, वैसीन पर चल रहे शोध में शामिल हो और दवाओं पर हो रहे शोध का हिस्सा बने। सरकार को चाहिए कि जितना ज्यादा से ज्यादा हो सके टेस्टिंग किट, पीपीई, वेंटिलेटर, ऑसीजन और आईसीयू बेड्स की व्यवस्था करनी चाहिए। यह जरूरत इसलिए है क्योंकि अमेरिका ने संक्रमितों की संया दबाने, छिपाने या कम बताने की बजाय ज्यादा से ज्यादा जांच करके सारे संक्रमितों को सामने लाने का मॉडल चुना। उसने हर नागरिक की जांच का बंदोबस्त किया ताकि किसी कोने में एक भी मरीज छिपा न रह सके। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि यह वायरस एक आदमी से ही फिर फैल सकता है। वैसे भी अमेरिका संक्रमण की दूसरी लहर आने की आशंका लिए हुए है। इसलिए भारत को भी इसी मॉडल पर ज्यादा से ज्यादा टेस्ट करने चाहिए। टेस्ट के जरिए संक्रमितों और उनके संपर्क में आए लोगों की पहचान करके आगे उनकी टेस्टिंग करनी चाहिए। जितने ज्यादा टेस्ट होंगे उतने ज्यादा संक्रमितों का पता चलेगा और उनका इलाज करके बाकी नागरिकों को सुरक्षित रखने की संभावना उतनी ज्यादा बढ़ेगी। अमेरिका की तरह ही भारत में अनेक राज्यों में संक्रमण मामूली है केरल जैसे राज्य में जहां पहले से संभालने का काम चालू हो गया था वहां इसकी पहली लहर खत्म होने वाली है।
इसलिए जहां केरल दूसरी लहर को संभालने की तैयारी करे वहीं केरल, गोवा या पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए लॉकडाउन की अलग रणनीति बने। जैसे कि केरल के मुख्यमंत्री ने कहा था- वन साइज फिट फॉर ऑल, की रणनीति भारत में नहीं चल सकती है। सो, राज्यवार और हो सके तो जिलावार रणनीति अलग अलग बननी चाहिए।अमेरिकी मॉडल की एक और सबसे अहम बात, जिसे भारत को अपनाना चाहिए वह यह है कि सरकार खजाना खोले। इस समय वित्तीय व राजकोषीय घाटे की चिंता में न पड़े या अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की चिंता न करे। विकास दर जीरो के नीचे जानी है यह तय है। उसकी चिंता करने की बजाय सरकार को अपने हर खाते से पैसा निकाल कर कोरोना से लड़ाई में झोंकना चाहिए। राज्यों को मेडिकल सुविधाएं देनी चाहिए, लोगों को जरूरत की चीजों की कमी न पड़े, इसका बंदोबस्त करना चाहिए और लोगों तक पैसे पहुंचाने चाहिए। जैसे अमेरिका ने पहले ही राहत पैकेज में अपनी जीडीपी का दस फीसदी हिस्सा झोंक दिया, उसी तरह भारत को भी करना चाहिए। भारत की जीडीपी का दस फीसदी15 से 17 लाख करोड़ रुपया बनता है इतना तो तत्काल झोंकना चाहिए। इससे आर्थिकी भी बचेगी, लोगों की जान भी बचेगी और कोरोना से लड़ाई भी आसान होगी।
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)