ऐसी एक-एक इंच जमीन की कीमत

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दिल्ली के चुनाव नतीजों के क्या मायने हैं? दिलचस्प है कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी तो इसे भारतीय जनता पार्टी की नफरत और हिंसा की राजनीति की पराजय बता रही हैं, लेकिन खुद विजयी आम आदमी पार्टी की पहली प्रतिक्रिया में इसे काम की राजनीति की जीत ठहराया गया है। शायद सार्वजनिक विचार-विमर्श के सिद्धांतों का पालन करते हुए आप उन शब्दों का उच्चारण ही नहीं कर रही, जो भाजपा की रोजाना की खुराक है। उसे मालूम है कि ऐसा करते ही भाजपा की ताकत में इजाफा ही होता है। इसके बावजूद यह तो कहना होगा कि यह जीत अभूतपूर्व है। यह हर तरह से दो गैर बराबर राजनीतिक दलों का युद्ध था। एक तरफ एक सर्वसाधन संपन्न राष्ट्रीय राजनीतिक दल, प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सारे केंद्रीय कैबिनेट मंत्री, कई मुख्यमंत्री और दो सौ से अधिक सांसद, अकूत धन और प्राय: मीडिया का खुला साथ, मानो यह चुनाव वही लड़ रहा हो। दूसरी ओर एक लगभग स्थानीय दल, सीमित संसाधन और मीडिया का शत्रुतापूर्ण रवैया! अगर इसे दीए और तूफान की लड़ाई थी तो मीडिया उस तूफान को टाइफून या सूनामी बना देने पर तुला था।

इसके बावजूद अगर आप ने 62 सीटें हासिल कर लीं तो कायदे से भाजपा के सारे बड़े नेताओं को अपने पदों से इस्तीफा दे देना चाहिए पर ऐसा नहीं होगा। भाजपा क्यों इसे भी हार नहीं मानेगी? उसने जिन मर्यादाओं को कुचलते हुए चुनाव लड़ा, वह सिर्फ आप के खिलाफ नहीं था, वह सार्वजनिक और संसदीय राजनीति का व्यवहार बदल देने की एक और कोशिश थी। गाली गलौज, धमकी, भाषा के निकृष्टतम रूप का ढिठाई से इस्तेमाल और इस सबका चुनाव आयोग और मीडिया के द्वारा सह लिया जाना, यह कोई मामूली बात न थी। यह एक तरह से भाजपा की जीत ही है। क्या यह चुनाव परिणाम भाजपा की राजनीति का अस्वीकार है? भाजपा ने इस चुनाव को दिल्ली और शाहीन बाग के बीच जंग में बदल दिया था। जनता ने इसे माना नहीं। जनता में क्या हर धर्म और समुदाय के लोग शामिल हैं? क्या माना जाए कि इन चुनाव नतीजों से शाहीन बाग को बल मिलेगा? कम से कम जीत के बाद अरविंद केजरीवाल के भाषण से ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता। वैसे भी उन्होंने सप्रयास खुद को शाहीन बाग से दूर किया था जिसे उनके राजनीतिक चातुर्य और परिपक्वता का प्रमाण माना गया।

शर्जील इमाम की गिरफ्तारी की उनकी मांग भी इसी रणनीति का हिस्सा थी। किसी भी तरह आप को मुसलमान हमदर्द दल के रूप में बदनाम नहीं किया जा सका। आप ने कोई सबूत नहीं छोड़ा। इसके बावजूद मुसलमानों ने उसी को चुना। यह भारतीय राजनीति की विडंबना ही है। आप की जीत में भाजपा के समर्थकों की भूमिका भी थी। उनकी जो केंद्र में भाजपा को ही रखना चाहेंगे। सड़क, बिजली, पानी, स्कूल ठीक करने के लिए एक चुस्त सेवक और राष्ट्रीय भावनाओं की रक्षा के लिए भाजपा। यह कार्य क्या श्रम विभाजन आप के लिए फिलहाल बुरा नहीं। आप ने खुद को एक विचारधारा निरपेक्ष, काम से काम रखने वाले व्यवहारवादी दल के रूप में पेश किया। एक गरीब आदमी जिस स्कूल में बच्चे को भेजे वह भी चमकता हुआ हो, उसे पानी, बिजली सस्ती मिले, यह भी आज गनीमत है। यह दूसरी राज्य सरकारों के लिए भी सबक है। लेकिन, अभी तक तो आप ने यही दिखाया है कि वह इसके बाद कोई वैचारिक जोखिम उठाने के मूड में नहीं।

आश्चर्य नहीं कि इस पस्त हालत में भी भाजपा ने कांग्रेस को ही अपना मुख्य वैचारिक शत्रु मानकर उस पर हमला करने का कोई मौका छोड़ा नहीं है। यह चुनाव इसीलिए भाजपा के लिए मुसलमान के खिलाफ नफरत पर टिकी राष्ट्रवादी राजनीति के प्रचार एक और मौका था। इसमें भाजपा सिर्फ दिल्ली की जनता को नहीं, बिहार, बंगाल और शेष भारत की जनता को भी संबोधित कर रही थी। वह अपनी राजनीतिक परियोजना के प्रति अपनी गंभीरता का उदाहरण दे रही थी। जैसे वह दिग्विजय के लिए निकल पड़ी है इसलिए कोई युद्ध छोटा या बड़ा नहीं है। यह बात इस चुनाव के पहले सबको पता थी कि इस बार आप ही जीतेगी, लेकिन भाजपा ने अपना जोर कम नहीं किया।

कांग्रेस ने यह मौका गंवा दिया। उसे भी पता था कि वह दौड़ में नहीं है। तो उसे निस्संकोच अपना वैचारिक अभियान चलाना चाहिए था, लेकिन वह पीछे हट गई। उसने भाजपा के भारत के विचार का मुकाबला नहीं किया। उसकी इस उदासीनता से जनता में उसकी विश्वसनीयता कम होती है और उसकी गंभीरता को लेकर भी संदेह पैदा होता है। फिर भी भाजपा की निर्णायक पराजय से दिल्ली में सभ्य आचरण के लिए कुछ जमीन निकली है। यह भी कम सांत्वना नहीं है। अभी सभ्यता और शालीनता के लिए, जो धर्मनिरपेक्ष राजनीति का दूसरा नाम है, एक-एक इंच जमीन की भी कीमत है। इस चुनाव ने यह राहत दी है। इससे आगे क्या काम लिया जाता है, यह देखना है।

प्रो.अपूर्वानंद
(लेखक दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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