लंदन के ‘द गार्जियन’ और कोलकाता के ‘द टेलिग्राफ’ में इस्लामोफोबिया पर विचारणीय लेख-खबर पढ़ने को मिली। कोर सवाल है कि हम (गैर-मुसलमान) इस्लाम पर कैसे सोचें? पृथ्वी के छह अरब लोग उन पौने दो अरब लोगों पर कैसे सोचें जो इस्लाम धर्म के अनुयायी हैं? भारत के पैमाने में यह सवाल इस तरह होगा कि 125 करोड़ की आबादी में से 105 करोड़ लोग बीस करोड़ मुसलमानों के प्रति क्या नजरिया लिए हुए हों? जान लंे कि सवाल वैश्विक पैमाना लिए हुए है। 9/11 के बाद से दुनिया का सियासी पर्यावरण बिगड़ा है, दुनिया बिगड़ी है तो उसका जिम्मेवार नंबर एक मसला छह अरब लोग बनाम पौने दो अरब मुसलमान हंै? फिलहाल दुनिया में ट्रंप बनाम ईरान या भारत में सीएए, एनआरसी जैसे जितने जो भी बवाल हैं उनका कोर है कि इस्लाम को, मुसलमान को कैसे समझें?
सोचें, यह सवाल इस्लाम को ले कर ही क्यों है? कल ‘द गार्जियन’ में ब्रिटेन की नई बॉरिस जॉनसन सरकार में इस्लामोफोबिया पर विश्लेषण (Under Boris Johnson, Islamophobia will reach a sinister new level-Suhaiymah Manzoor-Khan) था तो कोलकाता के ‘द टेलिग्राफ’ में बिशप कॉलेज के प्रिंसिपल के इस भाषण की खबर थी कि इस्लामोफोबिया को मिटाने का अभियान चलना चाहिए (Call to battle Islamophobia-Sunil M. Caleb)। मतलब दुनिया के सर्वाधिक लिबरल, सेकुलर देश ब्रिटेन और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत दोनों में इस्लाम के फोबिया का रोना-धोना!
मोटा-मोटी बात है कि ब्रिटेन के गोरे, भारत के हिंदू या कि पृथ्वी के छह अरब लोग झूठ-मूठ इस्लाम धर्म और मुसलमानों के प्रति दिल-दिमाग में भय, चिंता, आशंका बना कर उनसे बैर बनाए हुए है! इसलिए भारत के एंग्लो इंडियन स्कूलों के प्रमुखों के सालाना अधिवेशन में क्रिश्चियन थियोलॉजी के प्रोफेसर सुनील एम कॉलेब का सुझाव है कि इस्लामोफोबिया से बच्चों को बचाने के लिए सभी धर्मों की मूल बातों की शिक्षा देनी चाहिए बनिस्पत इतिहास पाठ्यक्रम के। बच्चों को दया, समावेशी वैल्यूज में ढाला जाए ताकि वे कमजोर को और बहुसंख्यकों से अलग दिखने वालों के प्रति करूणा लिए हुए हों। आज न केवल हिंदू, बल्कि काफी ईसाई भी इस्लामोफोबिया से पीड़ित हैं और यह पश्चिम में बहुत व्यापक है। लोग क्योंकि अपनी भाषा, नस्ल और धर्म में सुकून पाते हैं इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय से दूर रहने की प्रवृत्ति लिए होते हैं। तभी मानव समाज में ‘हम’ और ‘वे’ की भावना बनती है।
अब इन बातों में नया कुछ नहीं हैं। इतिहास का तथ्य है कि 19वीं-20वीं सदी में समता, स्वतंत्रता और सर्व धर्म समभाव को मानव समाज के विकास की बेसिक जरूरत में अपनाया गया। इसके परिणाम में पश्चिमी समाज का सभ्यतागत वैभव बना। वैज्ञानिक सोच के आग्रह में फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन और भारत जैसे तमाम लोकतांत्रिक देशों में धर्म का भेद मिटा कर सेकुलर आइडिया में बच्चों को पढ़ाया गया तो इसी माफिक संविधान भी रचा गया। ऐसे ही सोवियत संघ से ले कर चीन आदि तमाम तानाशाह, साम्यवादी देशों में धर्म को अफीम मान उन्हें जड़ से खत्म करने का अभियान चला। मतलब पिछले तीन सौ सालों में लिबरल, सेकुलर और इंसान को समतामूलक बनाने की जितनी प्रयोगशालाएं, जितने प्रयोग हुए उन सबमें जोर रहा कि धर्म के आधार पर न राजनीति हो, न व्यवस्था हो और न भेदभाव बने। यह भी तथ्य है कि धर्म की आजादी को, सभी धर्मों को समान भाव आजादी देने, उनके सम्मान का ब्रिटेन व फ्रांस में जैसा आग्रह रहा वह मानव इतिहास की बिरली दास्तां है।
मगर आज स्थिति क्या है? ब्रिटेन में ही रहने वाले सुह्यामाह मंजूर खान ‘द गार्जियन’ में लिख रहे हैं कि ब्रिटेन में इस्लामोफोबिया ज्यादा सिनिस्टर लेवल प्राप्त कर रहा है!
कौन दोषी? क्या बॉरिस जॉनसन और उनकी कंजरवेटिव पार्टी? माना नरेंद्र मोदी, अमित शाह, भाजपा-संघ और हिंदू अतिविवादियों का बौद्धिक विन्यास ‘जयश्री राम’ और ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ जैसी जुमलेबाजी में सिमटा हुआ है मगर ब्रिटेन में तो लेबर पार्टी के टोनी ब्लेयर से कंजरवेटिव पार्टी के बॉरिस जॉनसन या अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी के बिल क्लिंटन से लेकर रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप या चेचेन्या वाले पुतिन से लेकर चीन में शिंजियांग प्रांत में उइगर मुसलमानों को डिटेंशन कैंपों में डाले रखने वाले राष्ट्रपति शी जिनफिंग या म्यांमार के रोहिंग्याओं को भगाने वाले उन बौद्ध भिक्षुओं-राष्ट्रपतियों पर क्या कहेंगे, जिनका इस्लामोफोबिया अमित शाह से कई गुना अधिक साक्ष्य लिए हुए है!
ऐसा क्यों? कौन जिम्मेवार? क्या इस पृथ्वी के वे पौने दो अरब इस्लामधर्मी नहीं, जिन्होंने अन्य धर्मों के आस्तिक या नास्तिक, सेकुलर या धर्मवादी छह अरब लोगों को अपने इतिहास से, अपने वर्तमान से, अपने चेहरों से अनुभव कराया है, यह चिंता बनवाई है कि उन्हें दारूल इस्लाम बनाना है! सबको उन्हें जीतना है! सबको अपने जैसा बनाना है! सबसे जीवन जीने की अपनी पद्धति में “ला इलाहा इल्लल्लाह” का उद्घोष कराना है!
हां, मौजूदा 21वीं सदी के बीस वर्षों में इस्लामोफोबिया दुनिया में भयावह गति से बढ़ा है तो वजह दुष्प्रचार नहीं है, बल्कि इस्लाम और इस्लाम के बंदों का व्यवहार, इतिहास, आचरण और जीवन पद्धति है। पश्चिमी याकि ईसाई सभ्यता ने, इसके सिरमौर अमेरिका ने इस्लाम के लिए, इस्लामी जीवन पद्धति को स्वीकारते हुए जिस अंदाज में सऊदी अरब के वहाबीपने से लेकर खाड़ी के देशों, तुर्की, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि के लिए जो किया वैसा इतिहास में कभी नहीं हुआ लेकिन बदले में अमेरिका को क्यों मिला? बिन लादेन का हमला! निश्चित ही हर बात के दो पहलू होते हैं। अमेरिका के अपने स्वार्थ, उसकी अपनी गलतियां हैं लेकिन बावजूद इसके 20वीं सदी में ईसाई और इस्लाम के भाईचारे में जो याराना हुआ वैसा तो इतिहास में कभी नहीं हुआ। बावजूद इसके पश्चिमी ईसाई सभ्यता का इस्लाम से अनुभव क्या है?
सो, इस्लामोफोबिया इस्लाम से है। भला क्यों भारत में रहते हुए ‘वंदे मातरम’ बोलने से मुसलमान अपना धर्मभ्रष्ट हुआ मानें? क्यों वह आंदोलन-धरना करते हुए “ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मद रसूल अल्लाह” के नारे लगाए? यदि धर्म, धार्मिक नारों के संबल से ही लोकतंत्र की राजनीतिक लड़ाई लड़नी है तो उससे इस्लामोफोबिया क्यों नहीं बढ़े? कई मुस्लिम विचारक और ज्ञानी तर्क दे रहे हैं कि हमारे अस्तित्व का सवाल है, अस्तित्व की लड़ाई है तो हम हिज्ब पहनेंगे, आधुनिकता छोड़ेंगे, गर्व से कहो हम मुसलमान हैं याकि “ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मद रसूल अल्लाह” के ही आह्वान से अब लड़ाई है। ऐसा सोचना और इस अंदाज में राजनीति करना क्या फिर सभ्यताओं के संघर्ष की और ले जाने की निर्णायक लड़ाई का आह्वान और दूसरे मतावंलबियों में इस्लामोफोबिया की सुनामी बनवाना नहीं होगा?
तो बाकी धर्मावलंबी क्या करें? प्रेम का पाठ पढ़ें? स्कूलों में इतिहास पढ़ाना बंद करें? मोहम्मद साहब की जीवनी, क़ुरान पढ़ना और मस्जिदों में जा कर भाईचारा बनाना शुरू करें। प्रदर्शन-धरने में “ला इलाहा इल्लल्लाह” के नारे लगाएं? बॉरिस जॉनसन को हरा कर गोरे ब्रितानी सादिक अली को अपना प्रधानमंत्री बनाएं? हिंदू मोदी-शाह को हटा कर ओवेसी को जिताएं?
हकीकत में आधुनिक वक्त में इस्लाम ने ही दूसरे धर्मों को मजहबी व सांप्रदायिक बनाया है। टोनी ब्लेयर जैसा उदारवादी लेबर नेता तक जब इस्लामोफोबिया पाल बैठा तो बाकी ईसाई नेताओं, हिंदू नेताओं पर विचारना ही क्या! जो है वह इस्लाम की बदौलत है। 20वीं सदी ने और अब 21वीं सदी लगातार बता रही है कि बाकी धर्म के लोग मजहब से ऊपर उठ सेकुलर, नास्तिक बन धर्म युद्ध की बातों से मुक्त हो कर गैर-मदरसाई पठन-पाठन से आधुनिक जीवन पद्धति में ढल सकते हैं। वे इंकलाब जिंदाबाद से क्रांति ला सकते हैं मगर इस्लाम के बंदों की बंदिश ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ में जा सिमटती है। तब बाकी लोग, हिंदू, ईसाई, यहूदी, सिख, बौद्ध आदि भय, चिंता, आंशका याकि फोबिया में न रहे तो क्या करें!
शंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं