यक्ष प्रश्न है कि भारत सरकार ने कोरोना वायरस से राहत के लिए जो दो आर्थिक पैकेज घोषित किए उसका लाभ किसको मिला है? खबर है कि सरकार तीसरे राहत पैकेज की तैयारी कर रही है और पिछले दिनों इस सिलसिले में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात हुई है। इस पैकेज को लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं है पर कहा जा रहा है कि इस बार सरकार डिमांड बढ़ाने वाले कुछ कदम उठा सकती है। अगर ऐसा होता है तो अच्छा होगा क्योंकि इससे पहले के पैकेज सप्लाई साइड को मजबूत करने वाले थे। लोगों के लिए कर्ज का प्रावधान किया गया था और मांग बढ़ाने वाला कोई काम नहीं हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि तमाम भारी-भरकम पैकेज के बावजूद आर्थिकी के हालात बिगड़ते गए।
वित्त मंत्री सीतारमण ने माना है कि चालू वित्त वर्ष में विकास दर निगेटिव या जीरो रहेगी। हालांकि यह उनकी सदिच्छा है क्योंकि दुनिया की तमाम रेटिंग एजेंसियों ने और यहां तक कि भारतीय रिजर्व बैंक ने भी पूरे वित्त वर्ष की जीडीपी की दर निगेटिव रहने का अनुमान जाहिर कर दिया है और इस अनुमान के मुताबिक माइनस दस फीसदी तक जीडीपी रह सकती है। पहली तिमाही में ही माइनस 24 फीसदी जीडीपी रही थी। दूसरी तिमाही में भी मामूली सुधार होने के संकेत हैं। सोचें, पहली तिमाही के दूसरे महीने में ही सरकार ने 21 लाख करोड़ रुपए के राहत पैकेज की घोषणा की थी।
वित्त मंत्री मई के अंत में 21 लाख करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज की घोषणा की थी। इसके लिए ढेर सारे सुधार किए गए थे। जून के महीने में ही अध्यादेश जारी करके सारे सुधारों को लागू र दिया गया था। इसके बावजूद विकास दर पर इसका असर नहीं दिख रहा है। यह सही है कि अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्षण दिख रहे हैं। अप्रैल से जून की तिमाही में जो स्थिति थी, जुलाई-सितंबर में उससे बेहतर स्थिति दिखी है। लेकिन क्या यह सरकार के राहत पैकेज की वजह से है? ऐसा नहीं कहा जा सकता है। सरकार ने लॉकडाउन में जून से बड़ी ढील देनी शुरू की और अगस्त आते-आते लगभग सब कुछ चालू हो गया। स्वाभाविक है, जब लॉकडाउन खत्म होगा और दुकाने खुलेंगी, सेवाएं चालू होंगी तो अर्थव्यवस्था का चक्का धीरे धीरे ही सही चलना शुरू हो जाएगा। इसमें राहत पैकेज की कोई भूमिका नहीं है।
अगर राहत पैकेज कारगर हुआ होता तो विकास दर के वी शेप में बढ़ने की जो बात कही जा रही थी वैसा हो जाता। लेकिन दूसरी तिमाही में ऐसा नहीं हुआ है और तीसरी तिमाही में भी ऐसा होने के आसार नहीं दिख रहे हैं। उलटे आम लोगों के सामने संकट गहरा रहा है। उनके लिए जीवन चलाना मुश्किल हो रहा है। यह हैरान करने वाली बात है कि केंद्र सरकार ने अपने राहत पैकेज में कर्ज देने पर ही फोकस किया फिर भी लोगों को कर्ज नहीं मिल रहा है। सरकार ने लघु व मझोले उद्योग यानी एमएसएमई सेक्टर के लिए तीन लाख करोड़ रुपए के क्रेडिट की घोषणा की थी और यह भी कहा गया था कि इसकी गारंटी सरकार देगी। इसके बावजूद एमएसएमई सेक्टर को कर्ज लेने में बड़ी मुश्किल आ रही है। बैंकों और गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं ने कर्ज लेने की औपचारिकताएं बढ़ा दी हैं। यानी बिना कोई कानूनी बदलाव किए या सख्ती की बात कहे बना, छोटे उद्यम वाले लोगों को कर्ज नहीं देने के उपाय कर दिए गए हैं। आखिर बैंकों के सामने अपने बढ़ते एनपीए की ज्यादा बड़ी चिंता है। वे सरकार की बातों में आकर खुले हाथ से कर्ज नहीं बांट सकते हैं।
इतना ही नहीं मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के लोगों के लिए निजी लोन लेना भी मुश्किल हो गया है। बैंक और गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं ने मुट्ठी बांध ली है। उनकी पहली चिंता अपना एनपीए काबू में रखने की है। उनको पता है कि बाजार में मांग नहीं है और रोजगार के हालात जल्दी नहीं सुधरने वाले हैं। इसलिए इस समय कर्ज देना बेहद जोखिम का काम है। यहीं कारण है कि सोना गिरवी रख कर कर्ज देने वाली कंपनियों का कारोबार बढ़ रहा है। मई-जून में इस सेक्टर में जहां दो फीसदी तक की बढ़ोतरी थी वहीं सितंबर में सोना गिरवी रख कर कर्ज लेने वालों की संख्या दोगुनी से ज्यादा बढ़ गई है।
इस सेक्टर पर नजर रखने वालों का कहना है कि चालू वित्त वर्ष में सोना गिरवी रख कर कर्ज लेने की मात्रा में 15 से 18 फीसदी तक बढ़ोतरी हो सकती है। मुथुट गोल्ड फाइनेंस या मन्नापुरम फाइनेंस के जरिए सोना गिरवी रख कर कर्ज लेने वालों की संख्या में बड़ा इजाफा हुआ है। माना जा रहा है कि कर्ज लेने के लिए जरूरी कागजात की कमी और बैंकों व एनबीएफसी की सख्ती की वजह से छोटे उद्यम व आम लोगों को पर्सनल लोन लेने में दिक्कत आ रही।
मुंबई की एक रिपोर्ट के मुताबिक आम लोग या तो सोना गिरवी रख कर लोन ले रहे हैं या ऊंची ब्याज दर पर सूदखोर महाजनों से पैसे उठा रहे हैं। रोजमर्रा की जरूरतों के लिए लोगों के पैसे कम हो गए हैं। बैंकों की किस्तें टूट रही हैं और स्कूलों की फीस जमा करना लोगों के लिए मुश्किल हो रहा है। स्वरोजगार करने वालों के लिए सबसे ज्यादा मुश्किल है तो उनके कारोबार पर निर्भर दूसरे लोगों की मुश्किलें भी बड़ी हैं। तभी सवाल है कि सरकार ने इतने पैकेज घोषित किए, उसका लाभ किसको मिल रहा है? सरकार की ओर से दिए गए पैसे कहीं न कहीं तो जा रहे हैं? सरकार को इससे सबक लेना चाहिए और आम लोगों के हाथ में पैसे पहुंचाना चाहिए ताकि उनके जीवन की मुश्किलें कम हों, बाजार में मांग बढ़े और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटे।
सुशांत कुमार
(लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)