अमेरिका व ईरान की खुन्नस पुरानी

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अमेरिका और ईरान के बीच शुरू हुए टकराव की कहानी बहुत पुरानी है। पुराने टकराव के कारण ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उन्हें यह चेतावनी दी हैं कि अगर उसने अमेरिकी सेना व संपत्ति पर हमला किया तो उनका देश ईरान के 52 सामानों को अपने हमले का निशाना बनाएगा। यह 52 संख्या 1979 में दोनों देशों के बीच हुए टकराव के बाद ईरान द्वारा अपने देश में स्थित अमेरिकी दूतावास के 52 कर्मचारियों को बंधक बनाए जाने की घटना से ली गई थी।

एक समय था जब अमेरिका व ब्रिटेन ने वहां के अंतिम शासक शाह रजा पहलवी को सत्ता में बैठाने में बहुत अहम भूमिका अदा की थी। शाह रजा पहलवी विदेशी संस्कृति से बहुत प्रभावित थे व उनकी शिक्षा-दीक्षा यूरोप में हुई थी। पहलवी हिटलर व जर्मनी से बहुत प्रभावित थे व अक्सर कहा करते थे कि अगर मैं शाह (शहंशाह) न होता तो मैं हिटलर की तरह सरकार चलाना पसंद करता।

अमेरिका व ब्रिटेन की तेल कंपनियों ने ईरान की तेल कंपनियों के साथ गठबंधन कर काफी पैसा कमाया। बाद में शाह मनमानी करने लगे। उन्होंने बड़ी तादाद में अपने विरोधियों को जेल में डाला। वे कट्टरपंथियों को सख्त नापसंद किया करते थे। उन्होंने खुद को 26 अक्तूबर 1967 को शहंशाह घोषित कर दिया। वे कहते थे कि गरीब देश का राजा होने का कोई फायदा नहीं है।

हालांकि 1970 कें दशक में ईरान में जबदस्त आर्थिक प्रगति की। अर्थशास्त्री उस देश के सबसे अमीर देश बनने की बात करने लगे। वहां के युवा जो बाहर उच्च शिक्षा लेने जाते थे, अपने स्वदेश लौटकर सरकार और व्यापार की प्रगति में जुट गए। वहां बड़ी तादाद में कारों का उत्पादन होने लगा। वहां यहूदी लोगों का काफी सम्मान किया जाता था मगर इस सबसे मुस्लिम कट्टरपंथी उनके खिलाफ होने लगे।

शुरू में ईरान में अमेरिकी संस्कृति बहुत हावी थी। वहां की महिलाएं बुरका नहीं पहनती थी व अपने बाल कटा कर समाज में घूमती-फिरती थी। वहां के कट्टरपंथियों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। 1978 में ईरान के शाह मोहम्मद रजा पहलवी के खिलाफ क्रांति की शुरुआत हो गई व 16 जनवरी 1979 को शाह ईरान छोड़कर मिस्र भाग गए। उनकी जगह 15 दिन बाद 1 फरवरी 1979 को अयातुल्ला खोमैनी ईरान लौट आए। खुमैनी को 14 साल पहले देश से निर्वासित कर दिया गया था।

निर्वासन के दौरान शाह को गले का कैंसर हो गया और वह उसके ईलाज के लिए अमेरिका पहुंच गए। ईरान में अमेरिका का विरोध बढ़ने लगा। 4 नवंबर 1979 को तेहरान स्थित अमेरिका दूतावास के बाहर प्रदर्शन कर रहे आंदोलनकारी छात्रों ने दूतावास के अमेरिकी नागरिकों को बंधक बना लिया। इनमें 66 लोग अमेरिकी थे। प्रदर्शनकारी अमेरिका द्वारा शाह को वापस ईरान भेजे जाने की मांग कर रहे थे। अमेरिका ने इसके जवाब में 5 नवंबर 1979 को ईरान के साथ अपना सैन्य समझौता रद्द कर दिया। अगले दिन अयातुल्ला खोमैनी ने अपनी ईरान रिवोल्यूशनी काउंसिल की सरकार बना डाली।

फिर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने अटार्नी जनरल रामसे क्लार्क व सीनेट इंटेलिजेंस कमेटी के डायरेक्टर विलियम मिलर को बंधकों को छुड़वाने के लिए तेहरान भेजा। मगर अयातुल्ला खोमैनी ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया व इससे नाराज होकर अमेरिका ने 14 नवंबर 1979 को अपने देश के बैंको में जमा ईरान की संपत्ति जब्त कर ली। हालांकि 17 नवंबर को खुमैनी ने महिलाओं व अमेरिकी-अफ्रीकी महिला बंधकों को रिहा करने देने के आदेश दिए व 19 नवंबर को उन्हें मुक्त कर दिया गया।

अमेरिका के कहने पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने 4 दिसंबर को सभी बंधको को मुक्त करवाने का प्रस्ताव पारित किया व हालात बिगड़ते देख कर शाह 15 दिसंबर को अमेरिका से पनामा चले गए। अगले साल कनाडा की मदद से अमेरिकी दूतावास में काम करने वाले छह कर्मचारी सीआईए व कनाडा की मदद से तैयार कनाडा के पासपोर्टो के आधार पर वहां से निकलने में कामयाब हुए व अपने देश पहुंच गए।

मार्च 1980 में शाह पहले ईरान आए व कुछ दिन बाद मिस्र चले गए। ईरान से नाराज जिमी कार्टर ने उसके साथ सभी समझौते रद्द करके उस पर प्रतिबंध लगाते हुए ईरानी अधिकारियों को अमेरिका छोड़ने के आदेश दिए। अमेरिका ने अपने बंधकों को छुड़ाने की नाकाम कोशिश की व 25 अप्रैल 1980 को उन्हें छुड़ाने के लिए गया एक हैलीकाप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया व आठ अफसर मारे गए।

जब अमेरिका ने एबटाबाद में बिन लादेन को हैलीकाप्टर की मदद से मारा था तब भी राष्ट्रपति बराक ओबामा सरीखे तमाम आला अफसरो को आशंका थी कि कहीं इस हमले का हश्र भी ईरान जैसा न हो। ईरान ने 11 जुलाई 1980 को एक और बीमार अमेरिकी बंधक को रिहा कर दिया व उसके पास कुल 52 बंधक बचे। कुछ दिनो बाद 27 जुलाई 1980 को कैंसर की वजह से शाह पहलवी की मिस्र में मौत हो गई।

उसके बाद 19 जनवरी 1981 को अयातुल्ला खोमैनी ने बंधकों को मुक्त करने की एवज में अमेरिका से ईरान की संपत्ति को मुक्त करने को कहा व दोनों के बीच 19 जनवरी 1981 को समझौता हो गया व 20 जनवरी को उसने सभी 52 बंधकों को मुक्त कर दिया और वे लोग विमान द्वारा जर्मनी पहुंचे व वहां से अमेरिका चले गए।

आज फिर दोनों देशों के संबंध बहुत खराब है व ईरान तो उत्तरी कोरिया की तरह अमेरिका को नष्ट करने की मानों कसम खा चुका है। शाह को सत्ता में लाने में अमेरिका की बहुत अहम भूमिका थी व उसके जाने के बाद अमेरिका व ईरान के संबंध बहुत खराब हो गए। इधर हाल में अमेरिका के दबाव में भारत ने भी ईरान से तेल लेना तक बंद कर दिया है।

विवेक सक्सेना
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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