अमेरिका में मोदी ने इतिहास रचा

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हाल ही में अमेरिका में जो कुछ हुआ, वह किसी चमत्कार से कम नहीं। यूं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने कार्यकाल में कई बार अमेरिका की राजकीय यात्रा कर चुके हैं, किंतु उनका वर्तमान दौरा भारत-अमेरिका संबंध में मील का पत्थर सिद्ध हुआ है। इस संदर्भ में तीन घटनाएं महत्वपूर्ण है।

पहला- ह्यूस्टन स्थित हाउडी मोदी कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सहित वहां के 22 सांसदों (पक्ष-विपक्ष) का मंच साझा करना। दूसरा- न्यूयॉर्क स्थित जलवायु परिवर्तन संबंधी संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी को सुनने के लिए ट्रंप का बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के वहां पहुंचना। और तीसरा- पाकिस्तान में मौजूद 30-40 हजार आतंकी और सीमापार से जारी जिहादी गतिविधियों पर पूछे गए एक प्रश्न पर ट्रंप का यह कहना- प्रधानमंत्री मोदी इससे निपटने में पूरी तरह सक्षम है। यह सभी घटनाएं साधारण नहीं है, अपितु कई मायनों में ऐतिहासिक और अमेरिका सहित शेष विश्व में भारत के बढ़ते कद और उसकी सशक्त छवि का जीवंत प्रमाण है।

मुझे स्मरण है कि वर्ष 2012-13 में औपचारिक घोषणा से पूर्व विभिन्न मीडिया संस्थाओं और समाचारपत्रों में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी का प्रधानमंत्री प्रत्याशी बनाने की चर्चा जोरों पर थी। अक्सर, संसद भवन के भीतर और बाहर बतौर राज्यसभा सांसद मेरा- कांग्रेस, वामपंथी सहित अन्य विरोधी दलों के नेताओं से स्वाभाविक संपर्क होता रहता था। तब उनमें से अधिकतर नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हुए दावा करते थे कि जिस व्यक्ति को अमेरिका वर्षों से वीजा तक जारी नहीं कर रहा है, उसे आप देश का नेतृत्व संभालने का अवसर देना चाहते है।

वास्तव में, मई 2014 से पहले देश में मोदी वीजा संबंधी मामला तत्कालीन संप्रग सरकार के उस षड़यंत्र के गर्भ से निकला था, जिसमें कांग्रेस नेतृत्व के निर्देश पर तथाकथित “हिंदू आतंकवाद” का हौव्वा खड़ा किया गया। इसी मिथक शब्दावली के माध्यम से इस राष्ट्र की कालजयी सनातन और बहुलतावादी परंपरा में विश्वास रखने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी सहित समान विचारधारा के अन्य संगठनों को न केवल देश में, अपितु शेष विश्व में कलंकित करने और इस्लामी आतंकवाद के खतरे से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए विकृत तानाबाना बुना गया। यह प्रपंच तथाकथित सेकुलरवाद के पुरोधाओं की रुग्ण सोच का परिणाम था। इसी में अमेरिकी वीजा घटनाक्रम को हवा देकर गुजरात के तत्कालीन और उस समय देश में सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को तथाकथित भगवा आतंकवाद के प्रतीक के रूप में स्थापित करने की पटकथा भी लिखी जा रही थी।

मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया अमेरिका दौरे को चमत्कार इसलिए कह रहा हूं कि जिस अमेरिकी प्रशासन ने 2014 से पहले संप्रग सरकार के प्रपंचों के आधार पर नरेंद्र मोदी को वीजा देने से इंकार किया था, वह आज पलक बिछाए उसी व्यक्ति का न केवल स्वागत कर रहा है, अपितु उनमें भावी भारत का राष्ट्रपिता भी देख रहा है। इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बढ़ती वैश्विक लोकप्रियता और उनके नेतृत्व में मिल रही कूटनीतिक सफलता से देश का वामपंथ प्रेरित वर्ग (कांग्रेस सहित) स्वाभाविक रूप से हतप्रभ है।

यही जमात अक्सर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विदेश दौरे की प्रासंगिकता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता रहता है। क्या यह सत्य नहीं कि विश्व में देश की सशक्त छवि बनाने और पाकिस्तान की दुर्दशा के लिए वर्तमान भारतीय नेतृत्व की वृहद कूटनीति ने मुख्य भूमिका निभाई है? सच तो यह है कि 2014 से पहले अधिकांश भारतीय प्रधानमंत्री विदेशों से संबंध बनाने में अनेकों बार राष्ट्रहित से अधिक देश में विशेष वोटबैंक के कट्टरपंथी वर्ग को तुष्ट करने में व्यस्त रहते थे, जिसमें प्रत्येक मामले को वामपंथी चश्मे से देखा जाता था। सच तो यह है कि स्वतंत्र भारत में इसी आचरण ने आतंकवाद विरोधी अभियान को सदैव कमजोर बनाए रखा। किंतु विगत 65 माह में उपरोक्त नीति में आमूलचूल परिवर्तन आया है। वर्तमान भारतीय नेतृत्व विदेशों में केवल राष्ट्रहित (सुरक्षा सहित) और वसुधैव कुटुम्बकम् के सनातन चिंतन को ही प्राथमिकता दे रहा है, जिसका प्रतिपादन स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, गांधीजी, डॉ. हेडगेवार, गुरु गोलवलकर, सरदार पटेल और वीर सावरकर आदि भी अपने जीवनकाल में कर चुके थे।

किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि भारत कभी कश्मीर को अनुच्छेद 370 और धारा 35ए के नागपाश से मुक्त करा पाएगा। किंतु मोदी नेतृत्व ने इसे करके दिखा दिया। आज जम्म-कश्मीर के 1.25 करोड़ लोग शेष भारत के नागरिकों की भांति समान संवैधानिक अधिकारों का लाभ उठा रहे है। यह ठीक है कि सुरक्षात्मक दृष्टि से घाटी में कुछ प्रतिबंध अब भी जारी है। किंतु इस दौरान किसी भी इक्का-दुक्का विरोध-प्रदर्शन में सुरक्षाबलों द्वारा एक भी गोली चलने की एक खबर सामने नहीं आई है, जो चमत्कार ही है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि जब 8 जुलाई 2016 में आतंकी बुरहान वानी मुठभेड़ में मारा गया था, तब विरोध में तीन माह चले हिंसक प्रदर्शन में सुरक्षाबलों की कार्रवाई से 90 से अधिक आतंकियों के स्थानीय मददगारों (पत्थरबाज सहित) की मौत हो गई थी।

अमेरिका दौरे में व्यापारिक हित के साथ आतंकवाद सबसे बड़ा मुद्दा रहा। “हाउडी मोदी” कार्यक्रम में आतंकवाद और सीमा सुरक्षा पर बोलते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था, “हम लोगों को कट्टरपंथी इस्लामी आतंकवाद के खतरे से बचाने के गर्व से साथ खड़े हैं।” वही प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में कहा, “अमेरिका में 9/11 हो या मुंबई में 26/11 हो, उसके साजिशकर्ता कहां पाए जाते हैं- पूरी दुनिया उन्हें जानती है। समय आ गया है कि आतंकवाद और उसे बढ़ावा देने वालों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई हो, जिसमें राष्ट्रपति ट्रंप पूरी मजबूती के साथ आतंक के खिलाफ खड़े हैं।”

यक्ष प्रश्न है कि क्या अमेरिका का ट्रंप प्रशासन वाकई आतंकवाद के खिलाफ मजबूती से खड़ा है? विगत 900 वर्षों से भारत जिस इस्लामी आतंकवाद के दर्शन से त्रस्त रहा है, उसी विषाक्त चिंतन की कोख से पाकिस्तान भी 1947 में जन्मा है। स्थिति आज यह हो गई है कि जिहाद का “वायरस” विश्व के विभिन्न क्षेत्रों को भी अपनी चपेट में ले चुका है। इस मानसिकता के मुख्य शिकार गैर-इस्लामी तो है ही, मुस्लिम समाज भी इससे अछूते नहीं रहते। वर्ष 2018 में पाकिस्तान 584 इस्लामी आतंकवाद/हिंसक घटनाओं का साक्षी बना, जिसमें 500 से अधिक लोग मारे गए। वही अफगानिस्तान में अकेले वर्ष 2017 में 1400 से अधिक आतंकी हमले हुए, जिसमें 6,000 लोग मारे गए। अर्थात्- इन दोनों इस्लामी देशों में अधिकांश मरने वाले और उन्हे मौत के घाट उतारने वाले एक ही मजहब थे और यह सभी निर्मम हत्याएं केवल इस्लाम के नाम पर हुई।

इस पृष्ठभूमि में अमेरिका सहित शक्तिशाली पश्चिमी देशों का दृष्टिकोण क्या है? एक तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का सार्वजनिक रूप से इस्लामी आतंकवाद पर मुखर होना और उन्हीं के नेतृत्व मं् जिहादी तालिबानियों से वार्ता का प्रयास आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई को कमजोर बना रहा है। बीते 5 सितंबर को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में तालिबान द्वारा किए एक हमले में 12 लोग मारे गए, जिसमें एक अमेरिकी सैनिक भी शामिल था। अब ट्रंप प्रशासन ने इस प्रस्तावित वार्ता को केवल इसलिए स्थगित कर दिया, क्योंकि तालिबानी हमले में उनका एक सैनिक शहीद हो गया था। क्या कश्मीर में सैंकड़ों भारतीय जवान पाकिस्तान समर्थित जिहादियों के आतंक का शिकार नहीं हुए है? इस पृष्ठभूमि में अमेरिका सहित पश्चिमी देशों का दोगला-व्यवहार, जिसमें ‘अच्छे आतंकी, बुरे आतंकी’ की परिकल्पना हो- क्या विश्व शांति के लिए खतरा नहीं है?

स्वाभाविक है कि तेजी से बदलते वैश्विक घटनाक्रमों को भारत और अमेरिका अपने-अपने दीर्घकालिक हितों के चश्मे से देखेंगे। इसलिए मतभिन्नता होना स्वाभाविक है। परंतु कुछ जीवनमूल्य ऐसे है, जो भारत-अमेरिका को बांधे रखते है। अमेरिका विश्व का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र है, जिसमें दुनियाभर से आकर बसे प्रवासियों ने पिछले 300 वर्षों में अमेरिका को विकसित, संपन्न और उन्नतशील देश के रूप में स्थापित कर दिया है। वहां सभी को अपनी पहचान अक्षुण्ण रखने और प्रगति करने की स्वतंत्रता प्राप्त है।

वहीं भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जहां लगभग 1800 वर्ष पहले अपने उद्गम स्थानों पर रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा प्रताड़ना के बाद ईरानी और सीरियाई ईसाइयों ने भारत में शरण ली। इसके अतिरिक्त, वर्ष 629 में केरल के तत्कालीन हिंदू सम्राट चेरामन पेरुमल ने अरब व्यापारियों के सहयोग से कोडुंगल्लूर के मेथला गांव में चेरामन जुमा मस्जिद का निर्माण करवाया। यह मस्जिद अब भी मौजूद है, जहां स्थानीय मुस्लिम इबादत करने आते है। इस सुखद पृष्ठभूमि में भारत और अमेरिका आतंकवाद के निर्णयाक उन्मूलन हेतु क्या कार्ययोजना बनाते है- वह आने वाला समय ही बताएगा।

बलबीर पुंज
लेखक भाजपा से जुड़े है, ये उनके निजी विचार हैं

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