अफसरों को अब समझने लगे मोदी!

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बारह अक्टूबर को ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ प्रोग्राम की प्रगति की समीक्षा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आला अफसरों को आईना दिखाया। अफसर मतलब आईएएस जमात। मोदी ने चेताते हुए कहा कि ‘आपने मेरे पांच साल बरबाद किए हंै, मैं आपको अगले पांच साल बरबाद नहीं करने दूंगा।’ यह बात मोदी सरकार के पहले कार्यकाल की दशा-दिशा का प्रमाण है तो नौकरशाही से नतीजों को लेकर प्रधानमंत्री के आंकलन, गुस्सा, हताशा का भी संकेत है। लेकिन बावजूद इसके उनकी रीति-नीति में ऐसी कोई एक भी बात है जिससे नौकरशाही सरपट दौड़ने के लिए प्रेरित हो? जिससे नौकरशाही ‘श्रेष्ठ भारत’ के संकल्प में, उसकी धुन में अपने को झौंकती दिखती हो!

इससे भी बड़ा अहम सवाल है कि मोदी अभी भी कैसे उस हाकिमशाही से उम्मीद कर रहे हंै जिससे पहले पांच साल बरबादी वाले हुए? वे अभी भी नहीं बूझ पाए कि ‘हुकूम’ या ‘यस सर’ करने वाले अफसरी भीड़ अंग्रेजों से संस्कारित वह हाकिमशाही है जिसकी बुनावट सिर्फ राज करना है। हुकूम के लिए हाकिमगिरी करना है। और राज, हुकूमगिरी बनाम उपलब्धि बनवाने, टारगेट पाने में वैसे ही फर्क होता है जैसे सरकार और कॉरपोरेट में होता है!

आजाद भारत के 72 वर्षों की हकीकत है कि लोकतंत्र और व्यवस्था की बुनावट में अपनी नौकरशाही हाकिम प्रवृति वाली है न कि सेवा वाली। अंग्रेजों के जिस संस्कार में, मतलब गुलाम लोगों पर राज करने की प्रवृतियों में अफसरी का जो ढर्रा था उसी की निरंतरता आजाद भारत की हकीकत है। सरकार और सरकारी नौकरी मतलब जनता को हांकने, जनता का माईबाप बन कर, हाकिम बन जनता पर राज करना है। अंग्रेज स्थाई राजा थे तो उनके कर्मचारी भी स्थाई। न अंग्रेज जवाबदेह थे और न उनके आईसीएस अफसर जवाबदेह थे। अंग्रेज- उनके अफसर अंग्रेजी में व्यवहार करते हुए भारत के गुलामों से दूरी बना कर, अपने सिविल लाइंस एरिया में अलग रहते थे। वे अपना दर्जा विशिष्ट, खास, एलिट बनाए रहते थे औरवही परंपरा आजादी बाद से भी है। फर्क इतना भर है कि राजनैतिक नेतृत्व का आना-जाना शुरू हुआ जबकि अफसरों की हाकिम जात ज्यादा स्थाई और विशेषाधिकार प्राप्त होती गई!

इसे और बारीकी से समझा जाए! नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने एक कश्मीर नीति सोची, बनाई। उस अनुसार संसद ने अनुच्छेद-370 का कानून बनाया। फिर मोदी-शाह आए तो उन्होंने कश्मीर नीति बनाई। उस अनुसार संसद ने नई व्यवस्था का कानून बनाया। यह सरकार का और विधायिका का रोल हुआ। तीसरा रोल सुप्रीम कोर्ट याकि अदालत का है जिसने नेहरू के वक्त भी और अब मोदी के वक्त भी विचारना है कि नया कानून सही है या नहीं और उसके विवादों में, झगड़ों में क्या फैसला है!

इन तीनों के अलावा, भारत राष्ट्र-राज्य में चौथा वर्ग वह नौकरशाही है, वे अफसर हंै जिन्होंने नेहरू के वक्त में भी कश्मीर नीति पर ‘यस सर’ कहा और मोदी-शाह के समय में भी ‘यस सर’ कर रहे हंै! मतलब गंगा गए तो गंगादास और जमुना गए तो जमुनादास! नेहरू और मोदी-शाह ने अपनी सोच, वक्त और जनादेश अनुसार नीति बनाई, नया कानून बनाया लेकिन अफसर उस अनुसार क्रियान्वयन नहीं करेंगे। कश्मीर घाटी में हाकिम यूटी का हो या प्रदेश का सभी जानते हैं, इस मनोवृति में काम करते है कि नीतिया बनती रहती है, उन्हंे बनाने वाले आते-जाते रहेंगे जबकि उन्हें बदस्तूर हाकिम राज करते रहना है। नई नीति की भावना, संवेदना, उद्देश्य में स्थाई हाकिम कतई मोल्ड या बदलता नहीं है। वह तो सिर्फ और सिर्फ ‘यस सर’ लिए हुए हाकिम के सांचे में ढला होता है।

मतलब अमेरिका की तरह भारत में व्यवस्था नहीं है कि राष्ट्रपति बदलेगा तो वाशिंगटन में, संघीय सरकार के मंत्रालय-विभागों के प्रमुख भी राष्ट्रपति के चुने विशेषज्ञ व जानकार बनेंगे। और वे हाकिमगिरी नहीं बल्कि राष्ट्रपति के एजेंडे में रिजल्ट, परिणाम की धुन लिए होंगे न कि फाइल बनाने, प्रोसेस व ढर्रे में काम करने वाले होंगे।

सो भारत में समस्या नौकरशाही के हाकिमशाही होने से है। इस हाकिमशाही के आगे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री याकि राजनैतिक लीडरशीप का मतलब कागजी है। बहुत त्रासद है कि भारत के किसी भी प्रधानमंत्री ने, किसी भी सरकार ने हाकिमशाही को खत्म करने के हथौड़े नहीं चलाए। हिसाब से प्रधानमंत्री मोदी को मई 2014 और मई 2019 में जो रिकार्ड जनादेश मिला है तो वह हाकिमशाही, उसके ढर्रे पर हथौड़ा चलाने का मौका था और है। लेकिन पहले कार्यकाल में उन्होंने उलटे जनता पर हथौड़े चलाए। पूरा कार्यकाल जनता को चोर साबित करने, उल्लू बनाने में जाया किया। याद करें कि मोदी-शाह-भाजपा ने2014 से पहले कैसे जनता मंे हल्ला बनाया था कि भ्रष्टाचार, लूट, निकम्मापन कांग्रेस की देन है। काले धन की काली आर्थिकी कांग्रेसी राज की बदौलत है। लेकिन जीत के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने किसको टारगेट बनाया? जनता को, व्यापारियों को टैक्स चोर, काला कारोबारी करार दे कर दस तरह से प्रताड़ित किया। जबकि मोदी-शाह और पूरा देश जानता है कि देश में 72 सालों में भ्रष्टाचार बढ़ा है तो पीछे फाईलों, नियम-कायदे और दफ्तरों की संख्या है और उस सबके पीछे हाकिमशाही में अफसरो-बाबुओं का व्यवहार व विस्तार है।

पता नहीं क्यों भारत में यह हकीकत नहीं पैठती कि नेता, मंत्रियों, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों को हटाने का जनता के पास लगातार अधिकार है लेकिन उस हाकिम के आगे वह लाचार, गुलाम हंै जो बतौर अफसर स्थाई नौकरी पाए होता है। भारत के सिस्टम में, सवा सौ करोड़ लोगों के भाग्य में लोकतंत्र के बावजूद यह श्राप स्थाई है कि कोतवाल, पटवारी, लाईसेंस प्रदाता अफसर, बाबू का नागरिक की किस्मत पर कुंडली मार कर बैठे रहना स्थाई है। इनसे जनता न जवाब मांग सकती है और न उन्हंे हटा सकती है। नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी, मोदी, शाह आते-जाते रहेंगे, इन नेताओं से जनता जवाब लेती रही है, उन्हंे हटाती रही है लेकिन वह कोतवाल, पटवारी, लाईसेंस प्रदाताअफसर, बाबू का कुछ नहीं कर सकती। जबकि रोजर्मरा के जीवन में व्यवहार, नेतृत्व और जनता के बीच का इंटरफेस ये ही है। दुनिया में नौकरशाही टारगेट, लक्ष्य प्राप्ति का घोड़ा होती है लेकिन भारत में वह खच्चर इसलिए है क्योंकि उन्हंे दौड़ना नहीं राज करना है, हाकिमगिरी करनी है। नेहरू अपनी रीति-नीति में नौकरशाही से कश्मीरियों का दिल नहीं जीत सके थे तो मोदी-शाह भी नौकरशाही से कश्मीरियों का दिल नहीं जीत सकते। (यों कश्मीर का उदाहरण और भी कई पहलू लिए हुए है)। दोनों के राज में हाकिमों से बेसिक शासन की अच्छाइयां भी स्थापित नहीं हो सकती।

तभी भारत में हाकिमशाही वह बेताल है जिससे बार-बार लगातार ढाक के तीन पांत।

प्रधानमंत्री मोदी के अफसरों को हड़काने की जानकारी देने वाली हिंदुस्तान टाइम्स की खबर में बताया गया कि अब सरकार अफसरों को प्रोसेस की बजाय परिणाम केंद्रीत बनाने की कोशिश में है। 2020-2021 से ग्रुप ए की सभी सेवाओं के चुने अफसरों को पहले एक फाउंडेशन कोर्स में साथ पढाया जाएगा। मतलब आईएफएस-आईएएस-आईआरएस आदि सब साथ रहते हुए एक सा कोर्स करेंगे। इससे अलग-अलग खांचों में, नौकरशाही में एलिट वर्ग बनना रूकेगा। सब साझा मकसद में आगे काम करने की प्रवृति लिए हुए होंगे। आईएएस और ग्रुप ए सेवाओं के चुने गए 744 उम्मीदवारोंका 94वें फाउंडेशन कोर्स के दौरान सरदार पटेल के स्मारक स्थल पर सप्ताह भर साथ रहना भी इस दिशा में पहल थी। भावी अफसरों को आगे की तकनीक का बोध कराते हुए, उन्हंे सोचने-विचारने के लिए प्रेरित करते हुए भविष्य की चुनौतियों से तैयार रहने के भाषण सुनने को मिलेगे तो उस सबसे उनका कायाकल्प होगा! आगे वक्त जाया और बरबादी नहीं होगी! मतलब भारत की स्टील फ्रेम से नतीजे आने लगेंगे! यह सब खामोख्याली है क्योंकि चाल,चेहरा, चरित्र सब हुकूम और हाकिमशाही का है, राज करने का है, ठसके से स्थाई नौकरी का है तो नतीजे कैसे संभव है?

भारत के 72 साल के नैरेटिव में यह वाक्य सनातनी है कि अपनी नौकरशाही स्टील फ्रेम है जिससे देश बचा हुआ और चल रहा है। महा फालतू बात है यह! कोई माने या न मानें भारत राष्ट्र-राज्य की स्टील फ्रेम इस देश के लोगों की संस्कृति है जिसने सीमाविहिन रहते हुए भी सहस्त्राब्दियों से हम हिंदुओं को बचाया हुआ, एक फ्रेम में बांधे हुआ है। हकीकत में अंग्रेजों से संस्कारित नौकरशाही उर्फ हाकिमशाही आजाद भारत की खच्चर प्रगति का वह फ्रेमवर्क है जिसके कुल परिणाम की बानगियों में दिल्ली की दमघोटू हवा है, लोगों की उर्जा, उद्यमशीलता का लूटा जाना है, ओलंपिक में फिसड्डी होना है और नरेंद्र मोदी व अमित शाह का फेल होना भी है! एक लेवल पर अपना मानना है कि मोदी की नोटबंदी को पलीता बैंक कर्मचारियों, अफसरों ने लगाया तो जीएसटी का बरबादी वाला मॉडल, आर्थिकी की उर्जा सोखने का काम कथित स्टील फ्रेम वाली नौकरशाही के चलते ही था फिर भले नरेंद्र मोदी के चहेते अफसरों आदिया या नृपेंद्र मिश्रा का योगदान क्यों न हो! तभी यह तर्क भी बनता है कि बरबादी के पांच वर्ष क्या मोदी की अफसरों पर निर्भरता के चलते हुए नहीं हुए?

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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