चाहे सारी मीडिया गुणगान में लगी रहे, चाहे भाजपा या नरेन्द्र मोदी की लहर लहराती और बलखाती अंधभक्तों को जनर आती रहे, चाहे दिल्ली का ताज फिर बेहद पास नजर आ रहा हो, लेकिन इस बात से ना तो कट्टर भाजपा समर्थक और ना ही भाजपा के नेता इंकार कर सकते कि ये सब हासिल करने के चक्कर में पार्टी अपनी थीम से इस वक्त बेहद दूर है।
चाहे सारे सर्वे बढ़त भी दिखाते रहें, चाहे सारी मीडिया गुणगान में लगी रहे, चाहे भाजपा या नरेन्द्र मोदी की लहर लहराती और बलखाती अंधभक्तों को जनर आती रहे, चाहे ज्योतिषी भी फिर दिल्ली फतह के दावे कहते रहें, चाहे दिल्ली का ताज फिर बेहद पास नजर आ रहा हो लेकिन इस बात से ना तो कट्ट भाजपा समर्थक और ना ही भाजपा के नेता इंकार कर सकते कि ये सब हासिल करने के चक्कर में पार्टी अपनी थीम से इस वक्त बेहद दूर है।।
चाल, चरित्र और चेहरे की बात करने वाली भाजपा अब पार्टी विद नो डिफरेंस नजर आने लगी है। सत्ता की दौड़ में मची होड़ के बीच पार्टी ने भी नैतिकता और सिद्धांतों के सारे अपने ही बनाए नियमों को खुंटी पर टांग दिया है। भाजपा इस वक्त कांग्रेस के वो सारे अवगुण अपना चुकी है जिसकी वजह से कांग्रेस की खाट खड़ी हुई थी। तकरीबन पांच साल के शासन में मोदी को वो सुनहरा मौका मिला था जिसके आधार पर वो लंबे अरसे तक राजपाट करते रहते। चारों तरफ भाजपा ही भाजपा होती लेकिन हर कीमत पर भाजपा पाने की बेताबी के चक्कर में बड़े बोल ने विपक्ष को जिंदा कर दिया और भाजपा के मौजूदा दौर के इस जोड़े को परीक्षा की उस कसौटी पर ला खड़ा किया जहां दावे के साथ वो भी नहीं कह सकते कि क्या होगा?
अमित शाह व मोदी के फैसलों की घुटन अपनों को भी है और समर्थकों को भी। ये बात दीगर है कि सामने नजर आ रही नकली बहार के कारण सब चुप हैं। हां अंदर ही अंदर दर्द भी है, गुस्सा भी और खीज भी। लाख टके का सवाल यही है कि ये नकली लहर अचानक मुहाने पर जाकर ठहर गई तो? जनमत फेवर में नहीं रहा तो? दिल्ली का ताज मिनी दिल्ली की तरह फिर किसी दूसरे के सिर पर नजर आया तो? खैर ये अगर-मगर हो सकती है लेकिन अनिश्चितताओं से भरी राजनीति में दावा पूरा ही होगा इसकी कोई गारंटी नहीं। ऐसे में चुनाव बाद भाजपा कैसी होगी?
सत्ता की इस रेस में भाजपा का राजनीतिक फेस कहीं ना कहीं खो गया है। सत्ता पाने के लिए नीतियों का संहार-अरबों का धुंवाधार लगातार प्रचार-नमो आसमान में और पार्टी किसी अंधेरी सुरंग में कही पीछे। मसला व्यक्ति केन्द्रित व अधिनायवादी राजनीति पार्टी के लिए शुभ लक्षण है? अगर किसी दूसरी पार्टी की इस मामले में कमीज दागदार है तो क्या इस तर्क के सहारे या गद्दी की चाह के नाम पर भाजपा जैसा दल भी अपनी कमीज के दाग को बढ़ाता जाएगा? हो सकता है कि भाजपाई इस तर्क से सहमत ना हो लेकिन 2009 के चुनाव तक देख लीजिए कितने वक्ताओं की चुनाव के रैलियां हुआ करती थी? तब शाहनवाज हुसैन सरीखे नेता तक हैलीकॉप्टर पर लदे नजर आते थे। लेकिन 2014 में सारे दफ्तरों या अपने-अपने क्षेत्रों की धूल फांक रहे थे। सारे महत्वहीन। जैसे नेता ही ना हों। हेलीकॉप्टर पर अगल कोई सवार थे तो केवल नरेन्द्र भाई मोदी। कश्मीर से कन्याकुमारी तक केवल मोदी और बस मोदी। कभी-कभार चिन्मयानंद जैसों का गुबार निकलता है पर नतीजे फेवर में इस बार आए तो सबकी बोलती बंद रहेगी। अगर खिलाफ गए तो ये भी तय है कि पार्टी का ये चेहरा शायद ही फिर देखने को मिले।।