केंद्र सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान मनरेगा के लिए आवंटन बढ़ाया। लेकिन अधिकारियों का कहना है कि फंड अब खत्म होने के कगार पर है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि मौजूदा फंड से सितंबर तक की मांग को ही पूरा किया जा सकता है। यानी यह पर्याप्त नहीं है। जिन पांच राज्यों में मनरेगा में काम के लिए सबसे ज्यादा आवेदन आए, वहां के अधिकारियों का कहना है कि लगभग सभी लोगों को काम मुहैया कराया गया है। लेकिन सवाल है कि आगे क्या होगा। इस योजना को गांव में रहने वाले लोगों के लिए सतत रोजगार मुहैया कराने के इरादे से तैयार किया गया था। यह किसी ने नहीं सोचा था कि कोरोना जैसी महामारी में इतने सारे लोगों के लिए यह मरहम बनेगी। सामाजिक कार्यकर्ता की राय है कि मनरेगा ने महामारी के शुरुआती हफ्तों में बहुत अच्छा काम किया, लेकिन जब प्रवासी मजदूर अपने गांवों को लौटने लगे तो मनरेगा पर बोझ बढ़ गया।
भारत के दस करोड़ प्रवासी मजदूर लॉकडाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित लोगों में शामिल हैं। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक महीनों तक गांव में रहने के बाद लोगों का कहना है कि शहर से उनकी कंपनी या फिर फैक्टरी मालिकों ने उन्हें लेने के लिए बसें भेजी हैं। लेकिन बहुत से लोग अब भी अपने गांव में बेकार बैठे हैं। लॉकडाउन के कारण भारत की अर्थव्यवस्था सिकुड़ी है। आने वाले दिन और भी मुश्किल हो सकते हैं, क्योंकि भारत में कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओ और कई शोधकर्ताओं का दावा है कि सरकारी आंकड़े पूरा सच बयान नहीं करते हैं। पीपुल्स एक्शन ऑफ एंप्लॉयमेंट गारंटी नाम की संस्था ने हाल में कहा कि काम ना मिलने की खाई उससे कहीं बड़ी है जितना आंकड़ों में दिखाया जाता है। इसकी वजह यह है कि एक दिन काम मिलने को भी काम मुहैया कराए जाने के तौर पर दर्ज किया जाता है। राज्यों के अधिकारियों का कहना है कि रोजगार के लिए ऐसे काम तलाशे जा रहे हैं, जिनमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को लगाया जा सके। इनमें पेड़ लगाना, सड़कें बनाना और नहरों को साफ करना शामिल है। लेकिन यह भी एक सच है कि प्रवासी मजदूरों में ज्यादातर दक्ष कारीगर हैं जो हर दिन 500 रुपया कमा रहे थे। अब उन्हें 220 रुपए में काम करना पड़ रहा है। फिर भी ये एक मरहम है। ये जारी रहे, इसका इंतजाम सरकार को करना चाहिए।
वरना कौम की कौम को जान गंवानी पड़ेगी। गांवों में ही हालात खराब नहीं हैं बल्कि महानगरों में सामाजिक ताना-बाना तेजी से बिखर रहा है। वहां बरसों से साथ रहने वाले पड़ोसी को भी लोग नहीं पहचानते। इस वजह से मानसिक अवसाद या पारिवारिक समस्या होने की स्थिति में लोग किसी के पास समाधान या सहायता के लिए नहीं जा पाते। कुछ समय तक मन ही मन घुटने के बाद ऐसे ज्यादातर लोग संघर्ष से घबराकर मुक्ति के सहज तरीके के तौर पर आत्महत्या को चुन लेते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि आत्महत्या के मामलों के अध्ययन के बाद तमाम सरकारों और गैर-सामाजिक संगठनों को मिल कर एक ठोस पहल करनी होगी। सरकार को रोजगार पर ध्यान देना होगा योंकि अगर किसी व्यति के पास काम नहीं है तो उसे अपनी जिंदगी ही बेकार नजर आती है। इसी वजह से भी वो जान देने पर उतारू हो जाता है। मनरेगा जैसी योजनाएं हों या फिर सरकारी स्तर पर रोजगार के दूसरे साधन और मजबूत करने की जरूरत है। वो मजबूत होंगे तभी इंसान आत्महत्या की दिशा में नहीं जाएगा।