भारत सरकार नेशनल बैंक फॉर फायनेंसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर एंड डेवलपमेंट (NABFID) के नाम से एक विकास वित्तपोषण संस्थान यानी डेवलपमेंट फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन (DFI) बनाने जा रही है। सरकार का 20 हजार करोड़ रुपए से शुरू करके इसे तीन सालों में कम से कम पांच लाख करोड़ रुपए ऋण देने का लक्ष्य है। हालांकि देश में इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए पूर्व में भी आईएलएंडएफएस, आईडीएफसी और आईआईएफसीएल जैसे वित्तीय संस्थानों का गठन किया गया था। आज दुनियाभर में डीएफआई की खास भूमिका है। हमारे मौजूदा संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करते हैं।
पहली, डीएफआई का इस्तेमाल खासतौर पर कम कीमत के लंबी अवधि वाली पूंजी स्रोत के रूप में होता है। उदाहरण के लिए ब्राजील की बीडीएनईएस अनिवार्य रूप से पेंशन बचत के 4 से 6 फीसदी में सह-भागीदार है। भारत की बचत दर जीडीपी के 30 फीसदी से अधिक है, जो अन्य देशों की तुलना कहीं बेहतर है। दूसरी, डीएफआई की भूमिका पूंजी का प्रवाह लक्षित सेक्टरों, परियोजनाओं और कार्यक्रमों की ओर करना है।
उदाहरण के लिए कनाडियन इंफ्रास्ट्रक्चर बैंक खास ढांचागत कार्यक्रमों के लिए सरकारी वित्तीय मदद उपलब्ध कराता है। लेकिन भारत ने बचत का प्रवाह लक्षित सेक्टरों में करने के लिए प्राथमिकता वाले सेक्टरों में अनिवार्य रूप से ऋण देने की नीति बनाकर बैंकों को औजार के रूप में इस्तेमाल किया। शुरू में यह कृषि क्षेत्र के लिए था, बाद में इसका दायरा लघु उद्योग व अन्य क्षेत्रों में भी बढ़ा दिया गया।
भारत सहित दुनिया भर में अनिवार्य लक्ष्यों के साथ अकुशलता के उदाहरण हैं और इसीलिए यह पहल अधिकांश वहीं तक सीमित रही, जहां सब्सिडी आवश्यक थी। ढांचागत परियोजनाओं को ऋण देने के प्रति बैंकों की अनिच्छा की बड़ी वजह प्रोजेक्ट की अपर्याप्त तैयारी (जैसे- भूमि अधिग्रहण, परमिट व स्वीकृति) अथवा जोखिम की अपर्याप्त जानकारी होता है। इसी वजह से लंबी अवधि के निवेशक अधिकांश निर्माण में लगने वाले समय के खतरे से कतराते हैं।
एनएबीएफआईडी की तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण भूमिका एक बाजार मध्यस्थ की है। इस भूमिका में उसका फोकस मध्यस्थता के रास्ते में आने वाली बाधाओं और कमियों को दूर करने पर होना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए एक्ट में एनएबीएफआईडी की कई भूमिकाओं की परिकल्पना की गई है। जिसके तहत वह विवादों के निपटारे में भी मदद कर सकता है। अगर इससे एनएबीएफआईडी रियायती समझौतों में समय पर कदम उठाने में सक्षम होता है तो इससे परियोजनाओं की निवेशक क्षमता को बढ़ाने में मदद मिलेगी।
यह भी सोचा गया है कि एनएबीएफआईडी बॉन्ड बाजार में भी मार्केट मेकर के रूप में काम कर सकता है और इससे पर्याप्त तरलता उपलब्ध कराते हुए अधिक निवेशकों को आकर्षित कर सकता है। हालांकि, सरकारी एजेंसियों को सलाह देने की अपनी भूमिका के साथ अगर एनएबीएफआईडी परियोजनाओं में अधिक संतुलित जोखिम साझीदारी ला सके तो तब इंफ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड में कैशफ्लो की अनिश्चितता कम होगी और जाखिम घटेगा। एनएबीएफआईडी द्वारा पूर्व स्वीकृत परियोजनाओं की स्टेपल्ड फायनेंसिंग अधिक फायनेंसरों को आकर्षित कर सकती है।
कुल मिलाकर पूर्व की डीएफआई की तुलना में एनएबीएफआईडी की भूमिका संभवत: बहुत ही अलग होगी और यह भारत में वित्तीय बाजारों के विकसित चरणों के अनुरूप होगी। उम्मीद है कि यह बैंकों द्वारा छोड़े अंतर को भर देगा। एनएबीएफआईडी की सफलता उसकी जोखिमों को पचाने में सक्षम निवेशकों को तलाशने की क्षमता पर निर्भर करगी। प्रोजेक्टों की बेहतर तैयारी, संतुलित जोखिम साझीदारी और विवादों का तेजी से निस्तारण ढांचागत क्षेत्र में पूंजी को आकर्षित करने की पूर्व शर्त बनी रहेगी। इस क्षेत्र में निजी पूंजी के प्रवाह में सफल होने के लिए एनएबीएफआईडी की इन्हें प्रभावित करने की क्षमता अहम होगी।
मनीष अग्रवाल
(लेखक पार्टनर, प्राइस वाटर हाउस कूपर्स हैं ये उनके निजी विचार हैं)