देश की संसद और सांसद कहां हैं ?

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भारत में एक संसद है, जिसे लोकतंत्र का प्रतीक माना जाता है, जिसके दो सदन और 786 सांसद हैं। इस संसद के इतिहास की सबसे बड़ी विपदा देश में आई हुई है पर न संसद का पता है और न माननीय सांसदों का। कहीं यह सुनने या देखने को नहीं मिला कि देश के सांसद कोरोना वायरस के संकट से निपटने के लिए कुछ उपाय कर रहे हैं। सांसदों को अपने चुनाव क्षेत्र में खर्च करने के लिए पांच करोड़ रुपए की सालाना निधि मिलती है, जिसे कोरोना का संकट शुरू होते ही सरकार ने जब्त कर लिया। इसके बाद सांसदों ने भी समझ लिया कि अब उनकी कोई भूमिका नहीं बची। आखिर वे सांसद निधि खर्च करने के लिए ही तो सांसद बने हैं! क्या सांसदों को इस बात का पता नहीं है कि वे विधायिका के सदस्य हैं? वे विधि निर्माता हैं? क्या वे नहीं जानते कि वे उस संसद के सदस्य हैं, जिसकी मंजूरी के बगैर सरकार न तो कोई नीति बना सकती है और न एक पैसा खर्च कर सकती है?

फिर क्यों नहीं वे अपनी यह भूमिका निभाने के लिए आगे आ रहे? क्यों नहीं सरकार को बाध्य कर रहे कि वह संसद की बैठक बुलाए, संसदीय समितियों की बैठक कराए और जो नीतिगत फैसले किए जा रहे हैं उन पर संसद की मुहर लगवाए? इस बात का दबाव क्यों नहीं बनाया जा रहा है कि संकट की इस घड़ी में संसद को ऐतिहासिक भूमिका निभानी चाहिए? केंद्र सरकार ने संसद से बाहर कार्यकारी फैसले से देश की पूरी आर्थिक नीति बदल दी। इसके लिए कैबिनेट की हर बैठक में अध्यादेश की मंजूरी हो रही है। सोचें, जिस दिन देश में पहला लॉकडाउन लागू हुआ उससे एक दिन पहले तक संसद चल रही थी और बजट पास कराया गया। लेकिन कोरोना वायरस की आपदा के प्रबंधन को लेकर उस सत्र में कोई चर्चा नहीं हुई, जबकि उस समय तक कोरोना का संकट आ चुका था। आखिर चार मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया था कि वे कोरोना संक्रमण की वजह से होली के समारोहों से दूर रहेंगे।

उनके उस ऐलान के बाद 20 दिन संसद चली लेकिन कोरोना वायरस का मुद्दा चर्चा में नहीं आया। उसी समय इस संकट के हर पहलू पर चर्चा होनी चाहिए थी और बजट में संशोधन के जरिए इससे निपटने के जरूरी प्रावधान किए जाने चाहिए थे। लेकिन न तो सरकार की ओर से ऐसी कोई पहल हुई और न विपक्षी पार्टियों ने इसकी पहल जरूरी समझी। दूसरी ओर दुनिया के दूसरे सभ्य देशों में कोरोना वायरस के संक्रमण से जूझने में संसद और वहां से सांसद आगे बढ़ कर भूमिका निभा रहे हैं। अमेरिका में, कनाडा में और जिस ब्रिटेन के वेस्टमिनिस्टर मॉडल को हमने अपनाया है वहां भी संसद की बैठक हुई और नीतिगत फैसले किए गए। अमेरिका में लंबी बहस के बाद राहत पैकेज को मंजूरी दी गई। जहां सांसद शारीरिक रूप से सदन में नहीं मौजूद हो सके वहां वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए चर्चा में शामिल हुए। लोकतंत्र में यहीं एक तरीका है, जिसके जरिए समूचे देश को विश्वास में लिया जा सकता है।

नीतिगत मसलों पर और खर्च के मामले में पारदर्शिता बरतते हुए देश को बताना और उसे भरोसा में लेना किसी भी राष्ट्रीय आपदा से निपटने का सबसे बेहतर रास्ता है, जिसे दुनिया के देशों ने अपनाया पर भारत में इसकी जरूरत नहीं समझी गई। भारत में सारे फैसले सरकार कर रही है और अध्यादेश के जरिए उसे लागू किया जा रहा है। सरकार संसद को फॉर गारंटेड ले रही है। उसको पता है कि संसद की मंजूरी मिलने में कोई दिक्कत नहीं है, जो फैसला कर दिया, सो कर दिया। भारत में कोरोना वायरस का संकट दूसरे देशों के मुकाबले बहुत अलग है। दूसरे किसी देश में कोरोना वायरस का संक्रमण सांप्रदायिक नहीं हुआ था और न किसी दूसरे देश में संक्रमण की वजह से मजदूरों के पलायन की एक दूसरी आपदा खड़ी हुई थी। संसद को रियल टाइम में मजदूरों के संकट पर चर्चा करनी चाहिए थी और संक्रमण के मामले को सांप्रदायिक रूप देने के प्रयासों पर भी विचार करना चाहिए था।

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। जब से कोरोना का संकट शुरू हुआ है तब से भारत सरकार पांच हजार अलग अलग किस्म के दिशा-निर्देश जारी कर चुकी है क्या इनकी समीक्षा जरूरी नहीं है? पर वह समीक्षा कौन करेगा? कोरोना संकट के ऐन बीच में चीन के साथ सीमा विवाद चल रहा है, खबर है कि चीन के सैनिक भारत की सीमा में घुस कर बैठे हैं क्या संसद के जरिए देश को इसके बारे में नहीं बताया जाना चाहिए था? कहा जा सकता है कि साल के इन महीनों में हमेशा संसद अवकाश में रहती है और जुलाई में मॉनसून सत्र होता है। पर यह ध्यान रखें साल के अभी गुजर रहे महीने बाकी बरसों की तरह नहीं हैं। यह अभूतपूर्व संकट का दौर है, जिसमें संसद को महती और विशेष भूमिका निभानी चाहिए थी। संसद के दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को इसकी पहल करनी चाहिए थी। पर अफसोस की बात है कि दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों ने संसदीय समितियों तक की बैठक रूकवाई हुई है।

गोपनीयता के नाम पर संसदीय समितियों की बैठकें स्थगित हैं। सोचें, देश का प्रधानमंत्री दूसरे देश के प्रधानमंत्री के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए दोपक्षीय वार्ता कर सकता है पर संसदीय समितियों की वार्ता नहीं हो सकती है! हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग पर शिखर वार्ता की। इसमें दोपक्षीय मसलों के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और सामरिक मसलों पर भी चर्चा हुई। तभी क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि देश की संसद को जान बूझकर मौन किया जा रहा है, उसकी भूमिका घटाई जा रही है, नीति निर्माण से लेकर उस पर अमल का सारा काम कार्यपालिका के ऊपर छोड़ा जा रहा है? यह कार्यपालिका को सर्वशक्तिमान बनाने की संभावना को जन्म देने वाली बात है और यह देश की मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। अफसोस की बात है कि देश का विपक्ष भी इसके लिए बराबर जिम्मेदार है।

अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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