बा दल सरकार के नाटक ‘बाकी इतिहास’ का कथासार इस तरह है कि एक व्यक्ति ने आत्महत्या की है। उसी मोहल्ले के एक घर में पति उपन्यासकार है और पत्नी पत्रकार है। दोनों पड़ोसी की आत्महत्या के कारण पर अपने-अपने विचार रखते हैं। उपन्यासकार का विचार है कि आत्महत्या करने वाले को चौदह वर्षीय कन्या से प्यार हो गया। यह विचार ‘लोलिता’ नामक रचना से प्रेरित है। ज्ञातव्य है कि अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘निशब्द’ में भी ऐसा ही प्रेम प्रसंग था। पत्रकार, पत्नी इस आत्महत्या को घरेलू कलह का परिणाम मानती है। नाटक के तीसरे अंक में आत्महत्या करने वाला व्यक्ति मंच पर प्रगट होता है। उसका स्पष्टीकरण गरुदत्त की ‘प्यासा’ में साहिर लुधियानवी के गीत की तरह है- ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…’। खोखली व्यवस्था द्वारा शासित जीवन जीने का अर्थ ही नहीं रह गया है। भौतिक सुविधाएं प्राप्त होने पर भी आध्यात्मिक शांति कहां मिल पाती है। हम कल्पना करें कि ‘बाकी इतिहास’ की तरह ही सुशांत सिंह राजपूत मंच पर प्रकट होकर अपनी आत्महत्या के कारण बता कर प्रकरण समाप्त करें। इस प्रकरण के कारण देश की टूटी, लंगड़ी अर्थव्यवस्था पर कोई चर्चा ही नहीं हो पा रही है। देश की जीडीपी शून्य से नीचे फिसल गई है। कोरोना महामारी के पहले भी जीडीपी मात्र 4थी और उस समय नन्हें बांग्लादेश की जीडीपी 8थी। इस समय हम आर्थिक विकास के मामले में संभवत: पाकिस्तान की तरह हो गए हैं। पाकिस्तान निर्माण के दो दशक बाद वहां साइकिल निर्माण उद्योग प्रारंभ हो पाया था।
उस साइकिल का टायर पंक्चर हो गया। दिल्ली के एक मयखाने में शराब बेचने की समय सीमा व्यवस्था द्वारा तय की गई थी कि रात 11 बजे मयखाना बंद करना होगा। एक अमीरजादे ने बार गर्ल जेसिका लाल से कोल्ड ड्रिंक मांगा। जेसिका ने नियम के अनुसार ड्रिंक देने से इनकार कर दिया, तो उस युवा अमीरजादे ने जेसिका को गोली मार दी। उसका ख्याल था कि शहर के नामी अमीर घराने का होने के कारण उसे हत्या करने का अधिकार है। सारे सरकारी विभाग उस अमीरजादे को बचाने में जुट गए। उसे बचा लिया गया। इस पर बनी फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में रानी मुखर्जी अभिनीत पत्रकार पूरे प्रसंग की जांच करती है। न्याय के लिए जन आंदोलन छिड़ जाता है। यह फिल्म भ्रष्ट व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। इसी तरह निर्भया प्रकरण में भी जन आंदोलन हुआ और कानून में परिवर्तन किया गया। विचारणीय यह है कि देश की टूटी हुई अर्थव्यवस्था जैसे महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा नहीं हो रही है और एक अभिनेता की आत्महत्या पर हंगामा खड़ा हो रहा है। एक सनकी सितारा मुंबई में व्यवस्था पर टीका करती है और केंद्र सरकार उसे वाय ग्रेड सुरक्षा प्रदान करती है। वह उस शहर का अपमान करती है, जिसने उसे इतना धन दिया कि अपने गृह नगर में उसने हवेली बना ली। वह व्यवस्था के पक्ष में है, इसलिए उसे सबका अपमान करने का अधिकार प्राप्त है। कोरोना फैलने से लोग महानगरों से अपने गांवों की ओर लोग जाने लगे। इस विस्थापन में अवाम ने अनगिनत कष्ट झेले परंतु उनके दर्द से व्यवस्था की आंखे नम नहीं हुईं।
फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ एक सामाजिक दस्तावेज की तरह महत्वपूर्ण फिल्म है। इसी तरह आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘स्वदेश’ का नायक भारतीय मूल का अमेरिका में बसा व्यक्ति अपनी मां से मिलने गांव आता है। उस गांव में बिजली नहीं है। नायक ग्रामीणों के सहयोग से बिजली उत्पादन में सफल होता है। गांव लौटे लोगों को वहां कुछ करना चाहिए। मुंबई के फुटपाथ पर जीवन गुज़ारने से बेहतर है अपने ग्राम का विकास करें। गांधी जी भी यही चाहते थे। ग्राम से ही विकास प्रारंभ करना चाहिए। गांव विकास के लिए भेजा गया धन भ्रष्टाचार की गोद में जा बैठा। एक कलाकार की आत्महत्या के बाद उसके करोड़ों किसने खा लिए इस पर चर्चा हो रही है। हम कहां चले थे और कहां पहुंच गए हैं। देखो उस तरफ उजाला है, जिस तरफ रोशनी नहीं जाती अमेरिकन फिल्म ‘ द टॉवरिंग इन्फर्नों’ से प्रेरित बलदेव राज चोपड़ा ने ‘द बर्निंग ट्रेन’ नामक हादसा रचा। जंगल में लगी आग बुझाने की घटना से प्रेरित फिल्म भी बन चुकी है। यह कहावत भी प्रचलित है कि खबर जंगल में लगी आग की तरह तेजी से फैल जाती है। बाढ़ से अधिक भयावह है आग लगना। ज्ञातव्य है कि आरके स्टूडियो आग में भस्म हुआ था। कहते हैं कि किसी सीरियल की शूटिंग के बाद एक अनबुझे दीए से आग लगी थी। इत्तेफ़ाक यह है कि राज कपूर की पहली फिल्म ‘आग’ में भी थिएटर में आग का दृश्य था। बाद में लगभग 3 एकड़ में बने स्टूडियो की जमीन बेच दी गई है। सुना है कि उस स्थान पर ऐसी इमारतें बन रही हैं, जिनमें अग्निरोधक विशेष यंत्र लगाए जा रहे हैं।
उस परिसर में राज कपूर व नरगिस की आत्माएं भ्रमण करने आ सकती हैं। इस स्टूडियो में पहली बार शूटिंग फिल्म ‘आवारा’ के स्वप्न दृश्य से हुई थी। लगभग 10 मिनट लंबे गीत में नर्क के सैट पर आग से घिरा नायक आर्तनाद करता है ‘मुझको नहीं चाहिए आग, मुझे चाहिए बहार, मुझको चाहिए प्यार’। मुंबई के तारदेव में बनी फेमस लैबोरेटरी में आग लगने के कई कारण कई फिल्मों के प्रिंट जल गए थे। इसी घटना के बाद कुछ फिल्मकारों ने एक निगेटिव को लंदन स्थित टेनिकल लैब में सुरक्षित रखा। राज कपूर की ‘संगम’ व ‘जोकर’ के प्रिंट भी इसी लैब में रखे गए हैं। कालांतर में यह लैब चीन ने खरीद ली। अत संभव हो कि ये प्रिंट चीन में हों। चीन द्वारा ‘आवारा’ के रीमेक का प्रस्ताव ऋ षिकपूर ने अस्वीकार कर दिया था। याकूब नामक स्टार ने मेहबूब खान की ‘औरत’ में बिरजू की भूमिका की थी। याकूब के छोटे भाई अलाउद्दीन खान, राज कपूर की फिल्मों के साउंड रिकॉर्डिस्ट रहे। उन्होंने अन्य निर्माताओं के प्रस्ताव अस्वीकार किए। उन्हें आर.के स्टूडियो से मासिक वेतन मिलता था। कुछ समय बाद संजय खान ने ‘टीपू सुल्तान’ के ध्वनि मुद्रण का प्रस्ताव अलाउद्दीन को दिया। प्रस्ताव को अस्वीकृत किया गया। परंतु संजय प्रतिदिन उनके घर आने लगे तो अलाउद्दीन ने प्रस्ताव स्वीकार किया।
ज्ञातव्य है कि ‘टीपू सुल्तान’ के सैट पर आग लगी और अलाउद्दीन की मृत्यु हो गई। उन्होंने जीवन में पहली बार अन्य निर्माता के लिए काम किया था। आग इस मायने में धर्म निरपेक्ष मानी जा सकती है कि वह यह नहीं देखती कि किसका दाह संस्कार करना है और किसे सुपुर्दे खाक किया जाना है। ज्ञातव्य है कि महामारी कोरोना के कारण अधिक संख्या में मृत्यु होने पर भी सभी का अग्निदाह किया गया था। खाकसार की फिल्म ‘शायद’ में अस्पताल में जहरीली शराब से अनेक लोग मर जाते हैं। इंदौर में ही क्षिप्रा के तट पर कई चिताओं का दृश्य फिल्माया गया और दुष्यंत कुमार के लिखे गीत को उसके पाश्र्व संगीत में शामिल किया गया था। रचना इस तरह थी ‘देखो उस तरफ उजाला है, जिस तरफ रोशनी नहीं जाती। चिता की अग्नि रिश्तेदारों के जीवन में अंधकार लेकर आती है’। फिल्म ‘देवदास’ में भी पारो एक जलते हुए दीए को लेकर ही ससुराल पहुंचती है। वह दीए को बुझने नहीं देती। पाश्र्व में ‘ओ पिया कभी बुझने नहीं दूंगी प्यार का दीया’। कानूनन दहेज प्रतिबंधित है, परंतु यथेष्ट दहेज नहीं लाने से प्राय बहुएं जलाई जाती हैं। फिल्म ‘दहेज’ में पिता सारा सामान लेकर आते हैं। उनकी बेटी कहती है कि आप कफन लाना भूल गए। बार-बार अपने पिता को सताए जाने के कारण उसने जहर पी लिया था।
जयप्रकाश चौकसे
(लेखक फिल्म समीक्षक हैं ये उनके निजी विचार हैं)