एक देश, एक बाजार से क्या फायदा ?

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जिस दिन से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कोरोना वायरस के संकट को अवसर बनाने के नाम पर घोषित प्रोत्साहन पैकेज का ऐलान किया उसी दिन से इस बात का ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि भारत सरकार किसानों का भला कर रही है। वैसे तो सरकार किसानों का भला पिछले पांच साल से कर रही है और उसके दावे के हिसाब से किसानों की आमदनी डेढ़ साल के बाद दोगुनी हो जाएगी पर हकीकत इससे कोसों दूर है और इसलिए अब आमदनी दोगुनी करने और फसल की लागत का दोगुना मूल्य देने जैसे बड़ी घोषणाओं की बजाय नए सुधारों की घोषणा कर दी गई है। इसमें सबसे बड़ा सुधार यह है कि एक देश, एक बाजार बनाया जा रहा है, जिससे किसानों को अपना सामान कहीं भी ले जाकर बेचने की छूट मिलेगी। केंद्रीय कैबिनेट ने इसके लिए अध्यादेश मंजूर कर लिया है। एक सुधार फसल की निजी खरीद का है, जिसके मुताबिक किसान और खरीददार के बीच पहले ही सौदा हो जाएगा। इसे सुधार कहा जा रहा है और प्रचारित किया जा रहा है कि इससे किसानों का सदियों से चला आ रहा शोषण और उनका संकट दोनों खत्म हो जाएंगे।

पर असल में इन सुधारों का हस्र भी वैसा ही होगा जैसा पहले के मास्टरस्ट्रोक सुधारों का हुआ है। एक देश, एक कर के नाम पर जीएसटी लाने से जैसे कारोबारियों की कमर टूटी है वैसे ही एक देश, एक बाजार से किसानों की भी कमर टूट सकती है। देश के बहुत थोड़े से किसानों को छोड़ दें तो किसानों की सचाई यह है कि ज्यादातर छोटे और सीमांत किसान हैं, इनमें से ज्यादातर बहुत पढ़े-लिखे नहीं हैं, ज्यादातर गांवों में हैं, जहां आसपास बाजार की कमी है और ज्यादातर के पास इतना साधन भी नहीं है कि वे कहीं दूर-दराज के बाजार में ले जाकर अपना सामान बेचें। सरकार ने राज्यों की सीमा से बाहर जाकर यानी दूसरे राज्य में जाकर फसल बेचने की मंजूरी दे दी है। इसे ही एक देश, एक बाजार कहा जा रह है। सोचें, एक गांव का किसान जब नजदीकी कस्बे में या शहर में जाकर अपनी फसल नहीं बेच सकता है वह दूसरे राज्य में जाकर कैसे अपनी फसल बेचेगा? उसे न तो इसकी समझ है और न उसके पास साधन हैं। अगर सहकारी व्यवस्था मजबूत हो तो कई किसान आपस में मिल कर अपनी फसल ज्यादा से ज्यादा पास के शहर में जा सकते हैं।

दूसरे, यह भी सवाल है कि इस बात की गारंटी कौन करेगा कि अगर एक राज्य में कम कीमत मिल रही है तो दूसरे राज्य में ज्यादा कीमत मिलेगी? ध्यान रहे भारत के दो राज्यों- बिहार और केरल में एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी यानी एपीएमसी नहीं हैं। इन दो राज्यों में किसानों को इन कमेटियों की बजाय खुद से अपनी फसल बेचने का अधिकार पहले से प्राप्त है। पर इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि फसलों की बिक्री और कीमत के मामले में इन राज्यों के किसानों की स्थिति उन राज्यों से बेहतर है, जहां एपीएमसी काम करती है। उलटे बिहार के किसानों को फसल बेचने की आजादी के बावजूद उनकी हालत बाकी राज्यों के किसानों से बदतर ही है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि अगर सारे देश के किसानों को यह अधिकार मिल जाए तो उनकी स्थिति सुधार जाएगी। इसी तरह इस सुधार का कोई भी सिर पैर समझ में नहीं आता है कि बिचौलियों को हटा दिया जाएगा और किसान सीधे खरीददार को माल बेचेंगे। इस बात की गारंटी कौन करेगा कि जो खरीददार आ रहा है वह कौन है? क्या वह बिचौलिया नहीं हो सकता है?

इस सचाई को समझने की जरूरत है अब भी गांवों में किसान की खड़ी फसल का सौदा हो जाता है। आगे भी वैसा ही होगा। यह सौदा बिचौलिया ही कराता है और किसान मजबूरी में करता है। क्योंकि ज्यादातर किसानों के पास खेती करने के लिए जरूरी साधन और पैसे उपलब्ध नहीं हैं। उन्हें खेती करने के पैसे सूदखोर महाजनों से मिलते हैं या बिचौलिए देते हैं, जिसके बदले में वे पहले ही फसल का सौदा कर लेते हैं। जब तक सरकार किसानों को खेती करने के लिए नकद पैसे नहीं देगी, तब तक बिचौलिए और सूदखोर लोग उनका शोषण करते रहेंगे। इस बात को समझ कर ही तेलंगाना में राज्य सरकार ने हर फसल से पहले किसानों को प्रति एकड़ पांच हजार रुपए देने शुरू किए। इससे वे अपने पैसे से खेती कर पाएंगे और फसल तैयार होने के बाद उसे बाजार की कीमत पर बेच पाएंगे। उन्हें बिचौलिए या सूदखोर महाजन को औने-पौने दाम पर सामान देने की मजबूरी नहीं रहेगी। उलटे इन सुधारों को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। पहला सवाल तो यह है कि सरकारी खरीद का क्या होगा?

क्या इसके बाद भी सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य, एमएसपी पर पहले की तरह खरीद करती रहेगी? किसानों को खुले बाजार में अनाज बेचने की मंजूरी तो दे दी गई है पर यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि बाजार में उनकी फसल की कीमत किस दर पर होगी? एमएसपी वहां लागू होगा या नहीं? सरकार ने सिर्फ यह है कि फसल तैयार होने से पहले किसान और खरीददार मिल कर दाम तय करेंगे और अगर फसल तैयार करने के बाद बाजार भाव ज्यादा रहा तो किसान को भी उसमें से हिस्सा मिलेगा। यह नियम बहुत अस्पष्ट है क्योंकि किसान और खरीददार के बीच एमएसपी से कम दाम पर भी समझौता हो सकता है और बाजार का भाव एमएसपी से कम भी रह सकता है। सो, सरकार को यह स्पष्ट करना होगा कि किसी भी हाल में अनाज एमएसपी से कम दाम पर नहीं बिकेगा। दूसरा सवाल यह है कि अगर सरकार अनाज की खरीद नहीं करती है तो अनाज के मामले में आत्मनिर्भरता का क्या होगा? आज सरकार के गोदाम अनाज से भरे हैं और इसलिए कोरोना वायरस के संकट के समय में भी वह मुफ्त में राशन बांटने की स्थिति में है।

सुशांत कुमार
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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