वायरस+मानवीय संकट= मौत का कुंआ

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1-भारतीय रेलवे, रेलवे बोर्ड जब किराया लेकर लोगों को दो वक्त खाने के पैकेट नहीं बांट सका तो गांव-गांव गरीब के घर में खाने के पैकेट, राशन बांटना क्या सरकारों के बूते में है?

2- खाना बांटने-भूख मिटाने का धर्मादा मोदी सरकार ने इस हवा को बनाते हुए खत्म किया है कि अब सब कुछ ‘नॉर्मल’ है। सो, स्वंयसेवी संस्थाएं, लोग या तो थक गए हैं, धर्मादा का पैसा खत्म है या संकट गुजर गया मान रहे हैं। गांव, कस्बों, छोटे शहरों, महानगरों में करोड़ों लोगों की आवाजाही में भी जब अब सुध लेने वाले नहीं है कि बिना पैसे, काम-धंधे के इन लोगों का आगे क्या सहारा होगा?

3- जनधन खाते या राशन वितरण की तमाम बातें खोखली हैं क्योंकि घर लौटते लाखों-करोड़ों लोगों में कहीं यह सुनने को नहीं मिला कि सरकार के पैसे पहुंचाने, राशन बांटने से उन्हें राहत मिली, उनका भरोसा बना। करोड़ों लोगों के मूवमेंट का कोर बिंदु, जहां भय है तो वहीं लॉकडाउन के साठ दिनों में पैसे, काम खत्म होने और खाने के लाले पड़ने का है।

4- सरकार हल्ला बना रही है कि कोरोना वायरस पर लोग सर्दी-जुकाम की तरह सोचें और जिंदगी को नॉर्मल अंदाज में वापिस जीयें। लेकिन लोगों में उलटा मैसेज बना। तभी घर लौटते तमाम चेहरों से सुनने को मिला कि भूख से मरें या बीमारी से अपने घर जा कर मरेंगे। कैसे यह सोच बनी? वजह मोदी सरकार का व्यवहार है। पहले सरकार ने डराया, वायरस की चिंता घर-घर पहुंचवाई लेकिन मेडिकल लड़ाई में झूठ बोला। वायरस को खत्म होता बताना शुरू किया। टेस्टिंग, ट्रेसिंग, रिस्पोंस, इलाज की बजाय जोर जबरदस्ती लोगों को झुग्गी-झोपड़ी-घर-बस्ती में बंद करके, वायरस के भारत में फेल होने की जैसी सरकार ने टीवी चैनलों पर झूठी हवाबाजी की, बीमारी को, उसके आंकड़ों को जैसे छुपाया उसने घर-घर चर्चा बनवा दी है कि वायरस रहेगा और सरकार के बस में बचा सकना नहीं है। इसलिए घर जा कर, घर में ही जीना सुरक्षित है।

5-तभी लॉकडाउन 1.0 और लॉकडाउन 2.0 के बीच में पैदल जाते चेहरों में मजदूर, गरीब, जहां बहुसंख्या में थे वहां अब उनके अलावा निम्न मध्य, मध्य वर्ग के परिवार, पढ़े-लिखे नौकरीपेशा और वे तमाम लड़के-लड़कियां, परिवार भी लाइनों में खड़े हैं, जो पहले शहर में रहने की सोच में थे, जिन्हें नौकरी बचने का भरोसा था, जिनकी कुछ बचत थी। अब मुंबई, दिल्ली, बेंगलूरू में रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट की लाइनों में वे चेहरे, वे परिवार दिख रहे हैं, जिनमें नॉर्मल स्थिति लौटने की धारणा बननी थी लेकिन ये उलटे अपने-अपने घरों की और भागे जा रहे हैं और यह रेला पूरे मॉनसून बना रह सकता है।

6-138 करोड़ की आबादी में से पांच करोड़ या पंद्रह करोड़ या तीस करोड़ (विदेश से लिवा लाए जा रहे लोगों से लेकर पैदल लोगों के रेले में परिवार के सदस्यों के साथ हिसाब लगाएं तो) लोगों का महामारी प्लस मानवीय संकट का दौर, जितना लंबा चलेगा उतना ही बड़ी आबादी का आंकड़ा बनेगा। वैक्सीन आने तक, बहुसंख्यकों को टीका लगने तक की अवधि में संकट में फंसे लोगों के लिए ब्लॉक स्तर तक का बंदोबस्त मुश्किल होगा।

8- कल्पना करें बिहार-यूपी में पांच हजार की आबादी वाले कस्बे या उससे छोटे गांव की, वहां प्रवासी मजदूरों के लौटने से कैसा माहौल बन रहा है या बनेगा? क्वरैंटाइन की अराजकता, संक्रमण का डर और राशन की दुकान पर दबाव से ले कर खाने-पीने-पैसे की किल्लत में लोग दिसंबर तक जीवन कैसे जीएंगे? बिना टेस्ट के (टेस्ट की व्यवस्था जब महानगरों में सुलभ नहीं है तो गांव-कस्बे में?) न संक्रमित व्यक्ति का पता पड़ेगा और न उससे फैले संक्रमण की खोज होगी। ऊपर से खाने-पीने-इलाज सभी के लिए पैसे की किल्लत!

9-मेडिकल-मानवीय संकट का सर्वाधिक गंभीर नया पहलू इलाज के नाम पर लूटपाट-लापरवाही है। इंडियन एक्सप्रेस ने दिल्ली, मुंबई, कोलकत्ता के प्राइवेट अस्पतालों में वायरस के छह मरीजों के बिल देख कर यह खबर दी है कि इन अस्पतालों ने वायरस के छह दिन के इलाज का बिल 2.6 लाख रुपए और महीने भर इलाज का 16.14 लाख रुपए का बिल थमाया। जिस बीमारी का इलाज नहीं है, कोई दवा नहीं है उसके लिए लाखों रुपए का बिल बनाना कोविड-19 से मेडिकल लड़ाई का क्या उद्देश्य निकलता है? क्या यह नहीं कि वायरस मौका है सो, लोगों को लूटो। सरकार पीपीई, वेंटिलेटर आदि की खरीद के टेंडरों, क्वरैंटाइन के खर्च, रेल भाड़े के किराये आदि से लूट रही है तो सरकारी अस्पताल बेहाल है वहीं प्राइवेट अस्पताल पहले तो वायरस के मरीज को लेंगे नहीं और लेंगे तो लाखों रुपए का बिल थमा देंगे।

ऐसा दूसरे किसी देश (सभ्य) में होने की खबर नहीं है। भारत में कोरोना का टेस्ट कराना महंगा, मुश्किल, दुष्कर है तो टेस्ट का रिजल्ट भी जल्दी नहीं मिलेगा। मुंबई, दिल्ली आदि में अब इलाज के लिए बिस्तर की वेटिंग होने लगी है। प्राइवेट अस्पताल में लाखों (सोचे 16 लाख रुपए का आकंड़ा) रुपए की बिलिंग। इसलिए कोरोना वायरस भारत में महामारी, मेडिकल आपदा से अधिक भयावह मानवीय संकट की त्रासदी लिए हुए हो गया है। मैं मार्च से वायरस के खतरे और उसके असली संकट जून से होने की थीसिस लिए हुए था लेकिन यह मेरी कल्पना में भी नहीं था कि इसके साथ ऐसा भयावह मानवीय संकट भी बनेगा, जिसमें करोड़ों लोग सिसकेंगे, अधमरे होंगे और पता नहीं कितने मरें!

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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