म्यांमार में रुके हिंसा

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म्यांमार की सेना मंदिर में लाशों का ढेर लगाकर अपनी ही जनता के प्रति निर्दयता का परिचय दे रही है। इस साल एक फरवरी को सेना ने ततापलट कर आंग सान सू की की सरकार को बेदखल कर दिया था। यांमार के इतिहास में यह पहली सैन्य ततापलट थी, जिसमें कोई खून-खराबा नहीं हुआ था। यूं तो 1948 में ब्रिटिश शासन से आजादी के बाद से यह तीसरी बार है जब सेना ने सत्ता कब्जाई है। यांमार में वर्ष 1962 से 2001 तक सबसे लंबा सैन्य शासन रहा है। 2011 में ही यहां पांच दशकों से चले आ रहे दमनकारी सैन्य शासन का अंत हुआ था और सेना ने सत्ता का हस्तांतरण जनता की चुनी हुई सरकार को किया था। वर्ष 2015 के चुनावों में भी निर्वाचित सरकार की नेता आंगसान-सू की और उनकी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने एकतरफा भारी जीत हासिल की थी। लेकिन सेना को यह जीत अधिक दिनों तक नहीं सुहाई। इस बार जिस शांतिपूर्ण तरीके से सू की को पदच्युत कर सेना ने सत्ता अपने हाथ में ले ली, म्यांमार में वह शांति कायम नहीं रख सकी।

आरंभ से ही लोकतंत्र समर्थकों ने इस ततापलट की खिलाफत शुरू कर दी। इसे कुचलने के लिए सैन्य सरकार ने अपने ही नागरिकों का हिंसक दमन करना शुरू कर दिया। सेना खूंखार होती गई है और कत्लेआम पर उतर आई है। सैनिक निहत्थे लोकतंत्र प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाने में भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। मारे गए प्रदर्शनकारियों की संख्या पर नजर रखने वाले असिस्टेंस असोसिएशन फॉर पॉलिटिकल प्रिजनर्स संगठन के मुताबिक सेना ने गत शुक्रवार को बोगा में 82 लोकतंत्र समर्थकों को मार दिया और फिर इनकी लाशों से बौद्ध मंदिर के एक मैदान में एक ऊंचा ढेर लगा दिया। यह जनता में खौफ पैदा करने के लिए किया गया है। इससे पहले भी 14 मार्च को राजधानी नाय पी ताव से मात्र 100 किलोमीटर दूर यांगून शहर में सुरक्षाबलों ने 100 से ज्यादा लोगों मार गिराया था। इससे पूर्व भी एक फरवरी के तुरंत बाद ततापलट का विरोध कर रहे सात लोग मारे गए थे। सैन्य दमन में छिटफुट हिंसा हो ही रही है। क्या म्यांमार के सैन्य जनरल अपने ही नागरिकों की हिंसा के लिए सत्ता हथियाई है। यदि कोई शासक अपनी जनता की रक्षा नहीं कर सकता तो उसे सत्ता में आने या बने रहने का कोई हक नहीं है। भारत का यांमार से हमेशा मैत्रीपूर्ण संबंध रहा है। भारत ने वहां के सैन्य शासकों के साथ भी तारतय बिठाकर दोनों देशों के रिश्तों को सामान्य रखा है।

भारत कभी भी दूसरे देश के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देता। लेकिन म्यांमार में नित बढ़ रही नागरिक हिंसा को रोकना आवश्यक है। अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय जगत के नेताओं ने म्यांमार में सैन्य ततापलट की तीखी आलोचना की। चीन भी इस ततापलट से खुश नहीं है। आसियान के सदस्य देश भी एक साथ इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोले हैं। संयुक्त राष्ट्र ने म्यांमार के ताजा हालात पर अभी तक केवल एक बैठक की है। एक्शन कुछ भी नहीं है। इतिहास देखें तो म्यामांर में संयुक्त राष्ट्र खास सफल नहीं रहा है। इसलिए इस बार यूएन को म्यांमार संकट के हल को मौके के रूप में लेना चाहिए। म्यांमार में हो रही हिंसा को रोका जाना जरूरी है। लोकतांत्रिक सरकार को सत्ता से बेदखल करने के ट्रेंड को हतोत्साहित करने की जरूरत है। सेना देश की रक्षा के लिए होती है, शासन के लिए नहीं। देश का शासन जनता ही अपनी चुनी सरकार से चलाए तो यही कल्याणकारी है। तख्तापलट के नेता जनरल मिन-ओन्ग-लैंग की सरकार को म्यांमार में तत्काल हिंसा रोकनी चाहिए और शांति स्थापना की दिशा में तेजी से काम करना चाहिए।

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