सापं – छछूंदर जैसी टि्वटर की स्थिति

0
476

केंद्र सरकार और सूचना-सामग्री विस्तार करने वाली परदेसी कंपनियों के बीच तनातनी अब निर्णायक मोड़ पर है। इस चरण में भारतीय बुद्धिजीवी समाज का दखल अब जरूरी दिखाई देने लगा है। कंपनियों के साथ विवाद का सीधा सीधा समाधान अदालत के जरिए नहीं हो तो अच्छा। दोनों पक्षकारों को ही किसी व्यावहारिक निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए। केंद्र सरकार चाहे तो इस पचड़े से बाहर निकलने के लिए किसी तीसरे तटस्थ पक्ष को मध्यस्थ बना सकती है। इसका कारण यह है कि दूरगामी नजरिए से बीजेपी के लिए इसके सियासी परिणाम मुश्किल भरे हो सकते हैं।

ऊपर से देखा जाए तो इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय की ट्विटर को चेतावनी में कुछ अनुचित नहीं लगता। भारतीय क्षेत्र में सक्रिय सूचना विस्तार करने वाले किसी भी अवतार को भारत के नए आईटी नियमों का पालन करना चाहिए। इससे पहले ट्विटर को तीन महीने की मोहलत दी गई थी कि वह नए नियमों को लागू करे। इनमें एक नोडल संपर्क व्यक्ति की नियुक्ति करना भी शामिल है, जो उपभोक्ताओं की शिकायतों का निराकरण करने में सक्षम हो। यह मामला न्यायालय में लंबित है। मुकदमों के बोझ तले दबे न्यायालय से निर्णय आने में वक्त तो लगेगा ही। यकीनन केंद्र सरकार चाहती होगी कि फैसले से पहले ही मामले का पटाक्षेप हो जाए तो बेहतर।

दरअसल सरकार की शीघ्रता का एक कारण सियासी भी हो सकता है। इसका एक उदाहरण तो हाल ही में आया, जब भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्रा और बी एल संतोष ने ट्विटर पर दो दस्तावेज परोसे। इन पर कांग्रेस पार्टी ने एतराज किया। ट्विटर की अपनी अंदरूनी पड़ताल में पाया गया कि एक दस्तावेज में कांग्रेस के लेटरपैड के साथ छेड़छाड़ की गई है। तब उसने मैन्युपुलेटेड की मोहर लगा दी। तथ्यों की पड़ताल करने वाली प्रामाणिक संस्था ऑल्ट न्यूज ने भी अपनी जांच में इस इरादतन शरारत को सच पाया। जाहिर है कि बीजेपी को यह रास नहीं आना था। उसे कैसे मंजूर हो सकता था कि सारी दुनिया जाने कि उसके प्रवक्ता ने दस्तावेज में शरारत करके ट्विटर के मंच का दुरुपयोग किया है। बता दूं कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भले ही मैन्युपुलेटेड सामग्री प्रचलन में हो, भारतीय दंड संहिता में इसे फर्जीवाड़ा अथवा जालसाजी माना जा सकता है। इसकी वैधानिक व्याख्या का नतीजा गैर जमानती वारंट या गिरफ्तारी भी हो सकती है।

अब ट्विटर की स्थिति सांप-छछूंदर जैसी हो गई है। वह मैन्युपुलेटड टैग हटाती है तो इस अपराध की मुजरिम बनती है कि वह जानबूझकर नकली दस्तावेज के जरिए भारत के करोड़ों उपभोक्ताओं को वैचारिक ठगी का निशाना बना रही है। इसके अलावा संसार में फैले भारतीय मूल के करोड़ों लोग अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत ट्विटर के विरुद्ध वैधानिक कार्रवाई कर सकते हैं कि वह नकली दस्तावेज बिना मैन्युपुलेटेड का टैग लगाए दे रही है। लोग उस पर आंख मूंदकर भरोसा कर सकते हैं। दूसरी ओर ट्विटर यदि टैग नहीं हटाती तो भी भारत में फर्जी और भ्रामक प्रचार की मुजरिम बनती है। कांग्रेस पार्टी या कोई अन्य उसके विरुद्ध आपराधिक मामला दर्ज करा सकता है। इसके अलावा भारत सरकार का कोप भाजन भी उसे बनना पड़ेगा।

इस समूचे घटनाक्रम का राजनीतिक पहलू यह है कि आठ विधानसभाओं के चुनाव सर पर हैं। हमने देखा है कि चुनावों के दरम्यान सोशल-डिजिटल माध्यमों का भरपूर उपयोग-दुरुपयोग होता है। हाल ही के बंगाल विधानसभा चुनाव इसकी उम्दा बानगी हैं। इन मंचों से झूठी सूचनाएं भी फैलाई जाती हैं। राजनीतिक विरोधियों का चरित्र हनन किया जाता है। सभी दल इसमें शामिल होते हैं। अनुभव कहता है कि इसमें भारतीय जनता पार्टी बाजी मार ले जाती है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शिवसेना समेत अनेक दल इसमें पिछड़ जाते हैं। ऐसे में ट्विटर, वॉट्सऐप या अन्य डिजिटल अवतारों से यदि बीजेपी की जंग जारी रही तो आने वाले चुनाव उसके लिए नई मुसीबत खड़ी कर सकते हैं। निश्चित रूप से पार्टी यह जोखिम उठाना पसंद नहीं करेगी? अतीत में उसने कभी अपने जिस श्रेष्ठतम तीर का इस्तेमाल सियासी विरोधियों को निपटाने में किया था, वह अब उलट कर आ लगा है और उसके गले की हड्डी बन गया है। शायद इसीलिए आईटी के नए नियमों पर न तो संसद में बहस हुई और न कानूनी जामा पहनाया गया। नए नियमों के तहत भारत में एक संपर्क अधिकारी की नियुक्ति से सरकार की उस तक सीधी पहुंच हो जाएगी। वह उस अधिकारी को येन केन प्रकारेण प्रभावित भी कर सकेगी।

वैसे इक्कीसवीं सदी में आए दिन विकसित हो रहे नए नए डिजिटल मंचों का सौ फीसदी साक्षरता वाले पश्चिम और यूरोप के कई देश सार्थक, सकारात्मक और रचनात्मक उपयोग कर रहे हैं। भारत ही इतना बड़ा राष्ट्र है, जहां के राजनेता डिजिटल संप्रेषण और अभिव्यक्ति की पेशेवर संस्कृति नहीं सीख पाए हैं। वे सियासी विरोधियों को पटखनी देने के लिए किसी भी भाषा में ट्वीट कर सकते हैं। इन नए नए मंचों पर कम शब्दों पर अपने को व्यक्त करना होता है, जो भारतीय नेताओं को नहीं आता। ज्यादातर राजनेता पढ़ते लिखते नहीं हैं। वे भाषा के मामले में एक जंगलीपन या गंवारू अभिव्यक्ति करते हैं। आखिर दुनिया का विराट और प्राचीनतम लोकतंत्र इन असभ्यताओं को क्यों स्वीकार करे? अपने को एक भद्र और शालीन तरीके से अभिव्यक्त करने का ढंग इन राजनेताओं को कब आएगा?

राजेश बादल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here