आ पमें से कितने लोग अस्पताल से गुजरते हुए बच्चों को बताते हैं, ‘ये वही अस्पताल है, जहां मैं 15 साल पहले भर्ती हुआ था।’ और फिर उन्हें वार्ड के बिस्तर या नर्स दिखाने ले जाते हैं? हम ऐसा नहीं करते। ठीक इसी तरह हम कोर्ट या पुलिस स्टेशन दिखाने नहीं ले जाते, भले ही जिंदगी में किसी कारणवश हमारा इससे पाला पड़ा हो।
पर कल्पना करें कि आप अच्छे रखरखाव से दूर अपने सरकारी स्कूल के सामने से गुजर रहे हों और तो क्या तुरंत अपने बच्चे से गर्व से नहीं कहते- ‘इसी स्कूल में मैंने 10 साल पढ़ाई की।’ और बच्चा फौरन कहता, ‘दिखाओ, आप कहां बैठते थे, आपके शिक्षक कौन थे?’ और आप भी बच्चे की मांग फौरन पूरी करने लगते, इसके लिए भले ही आपको लंच या पीरियड में ब्रेक के लिए 30 मिनट रुकना पड़े। इस रवैये के पीछे कई चीजें हैं।
आप गौरवान्वित हैं क्योंकि आपने इसी स्कूल में पढ़ाई की और आज जिंदगी में सफल भी हैं। शिक्षक को अपना मिनिएचर (अपना बच्चा) दिखाना चाहते हैं, उन्हें कहना चाहते हैं कि जो सीख शिक्षकों ने दी, उन्हीं ने आपको जिम्मेदार अभिभावक बनाया। बच्चा अपने आधुनिक स्कूल की सीट से आपकी 15-20 साल पुरानी बैंच की तुलना करता है। वह आपके शिक्षक को गौर से सुनता है क्योंकि उसे पता है कि यह वही हैं, जिन्होंने उसके माता/पिता को वह बनाया, जो वह आज हैं। और जब शिक्षक बच्चे को बताते हैं, ‘आपके माता/पिता कक्षा में बहुत सजग और मेरे सबसे अच्छे छात्रों में एक थे।’ तो आप गर्व से शिक्षक को नहीं देखते, बल्कि बच्चे की प्रतिक्रिया का इंतजार करते हैं और जब वह झट से मुड़कर गर्व से आपसे लिपटने की कोशिश करता है, तो उन आंसुओं को छुपाना मुश्किल हो जाता है। और जब आप शिक्षक के पैर छूते हैं, तो बच्चा बिना बोले खुद ही उनके पैर छूता है क्योंकि यह उसके किसी भी विषय के पाठ में शामिल नहीं था, पर उसके लिए आप अपने आप में एक पाठ बन गए थे।
लिहाज़ा, मेरे लिए स्कूल महज एक इमारत नहीं, जहां टाइमटेबल के हिसाब से सिर्फ पाठ पढ़ाए जाते हैं। उन दिनों हर पाठ अलग तरीके से पढ़ाया जाता था। मेरे विज्ञान के शिक्षक प्रयोगशाला में प्रयोग करते हुए अधिक समय बिताने में यकीन रखते थे, इतिहास के शिक्षक ढेर सारे प्रमाण में यकीन रखते थे, गणित के शिक्षक को हमेशा आधा डिब्बा चॉक की जरूरत होती थी क्योंकि वे ब्लैकबोर्ड पर गणनाएं लिखकर दिखाने में विश्वास रखते थे, वहीं अंग्रेजी के शिक्षक बात करने में यकीन रखते थे क्योंकि वे चाहते थे कि हमारे कानों में यह बार-बार सुनाई दे।
और उन सबने अपने-अपने संबंधित विषय बच्चों के बीच भेदभाव किए बिना बच्चों के अलग-अलग आईक्यू के हिसाब से विविध तरीके से पढ़ाए। मेरे लिए मेरी स्कूल की इमारत वह जगह थी जहां सारे शिक्षकों ने हर बच्चे का चरित्र, भविष्य, व्यवहार, सपने, उम्मीद और इससे भी ज्यादा कई चीज़ों का कदम दर कदम निर्माण किया।
आज की ई-कक्षाओं की उस प्रक्रिया से कोई तुलना नहीं है। आज बच्चे कैमरा व्यवस्थित करने-माइक म्यूट करने में शिक्षकों की तकनीकी मदद करते हैं और आखिरकार कहते हैं ‘अब कक्षा शुरू कर सकते हैं!’ सिर्फ इतना ही नहीं, वे खराब कनेक्टिविटी को दोष देते हुए अपने कैमरे को खुद ही बंद करके शिक्षकों की आंखों से ओझल हो जाते हैं। ऐसे में शिक्षकों को कोई अंदाजा नहीं होता कि ये कोमल शाखाएं किस ओर बढ़ रही हैं सीधी या टेढ़ी-मेढ़ी। (अच्छा या बुरा व्यवहार पढ़ें) फंडा यह है कि यह अच्छे शिक्षकों/अभिभावकों के लिए समय है कि वे सिर्फ पाठ ना पढ़ाएं बल्कि बच्चों के लिए अपनी ज़िंदगी को ही एक सीख के तौर पर आगे ले जाएं।
एन. रघुरामन
(लेखक मैनेजमेंट गुरु हैं ये उनके निजी विचार हैं)