कुछ समय से गेमस्टॉप की कहानी सुर्खियों में है। कुछ छोटे स्टॉक ट्रेडर्स ने रेडिट पर बड़े हेज फंड्स को सबक सिखाने का फैसला लिया। उन्होंने न सिर्फ गेमस्टॉप के शेयर्स पर एकाधिकार बनाकर लाखों कमाए बल्कि उन्होंने रेडिट के CEO स्टीव हफमैन की उस बात को भी सही साबित कर दिया, जिसे वे आम लोगों की असाधारण शक्ति कहते हैं, जब उन्हें ऐसा मकसद मिल जाता है, जिससे वे खुद को जोड़ सकें।
चूंकि यहां सभी न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज और गेमस्टॉप की कहानी के बारे में नहीं जानते हैं, इसलिए मैं जाना-पहचाना उदाहरण देता हूं। यह ‘बिग बुली’ की कहानी है। जब हमें लगा कि डोनाल्ड ट्रम्प का भयानक कार्यकाल कभी खत्म नहीं होगा, तभी वह खत्म हो गया। विश्व मंच पर अहंकारी, आत्ममुग्ध ट्रम्प को हंगामा करते, जलवायु परिवर्तन पर पैरिस समझौते, ईरान परमाणु समझौते और WHO को छोड़ते हुए और कई अन्य सहमतियों से मुकरते हुए देखने वाले लोगों ने उन्हें बाहर कर दिया।
श्वेत श्रेष्ठतावादियों के लिए ट्रम्प का समर्थन मुखर होता गया, वहीं ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन ने भी तेजी पकड़ी। इससे उदारवादी श्वेत परेशान हुए। वे अफ्रीकन-अमेरिकन जॉर्ज फ्लॉयड की श्वेत पुलिस अफसर डेरेक शॉविन द्वारा हत्या से भी नाराज थे। इससे लोग ट्रम्प को न सिर्फ गुंडा, बल्कि शर्मनाक मानने लगे। थॉट लीडर्स, मीडिया, सेलिब्रिटीज, हॉलीवुड एक्टर्स, स्टैंडअप कॉमेडियन उन पर सवाल उठाने लगे, जिससे मदद मिली।
धीरे-धीरे ट्रम्प की फैलाई सड़ांध कम होने लगी और उनके समर्थक भी। उनके पास सिर्फ श्वेत कचरा और कुछ लालची सहयोगी बचे। रिपब्लिकन पार्टी में उनके समर्थक भी पीछे हट गए, जब ट्रम्प ने चुनाव में धांधली का दावा किया और कैपिटल हिल दंगों के बाद बाइडेन के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया।
खुद को दुनिया का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति मानने वाले आदमी को आज पता चला है कि वह अकेला है। ट्रम्प के दक्षिणपंथी समर्थकों का ठिकाना बना ‘पार्लेर’ सोशल नेटवर्क अब गायब हो गया है। इसे ट्रम्प का खुद का फेसबुक माना जाता था। अब क्यूआनॉन नाम के अति-दक्षिणपंथी षड्यंत्र सिद्धांत को मानने वाले भी कम बचे हैं, जो मानता है कि ट्रम्प को शैतान को पूजने वाले, नरभक्षी, डेमोक्रेट्स नेताओं और बड़े अधिकारियों ने साजिश कर हटाया है।
सोशल मीडिया पर क्यूआनॉन के हास्यास्पद आरोपों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाले रूसी ट्रोल एकाउंट भी ठंडे पड़ गए हैं। महाभियोग झेल रहे हारे हुए राष्ट्रपति का कोई समर्थन नहीं करना चाहता। इसकी जगह अमेरिकी लोगों ने हिम्मत दिखाई और जो बाइडेन को वोट दिया। राजनीतिक रिटायरमेंट की दहलीज पर खड़े इस बुजुर्ग और कमजोर व्यक्ति को कोई गंभीर उम्मीदवार नहीं मान रहा था। लेकिन अमेरिकियों ने बदलाव को सर्वोपरि माना।
मैंने इसका जिक्र इसलिए किया क्योंकि भारत को पहला प्रधानमंत्री मिलने के बाद से ही एक सवाल हमेशा पूछा जाता रहा है। नेहरू के बाद कौन? यही सवाल उठा जब इंदिरा ने इमरजेंसी लगाई और लोग नाराज हुए। उनके समर्थकों ने कहा, लेकिन इंदिरा के बाद कौन? उन्होंने पाकिस्तान को हराया, बांग्लादेश बनाने में मदद की। उनकी जगह कौन ले सकता है? यह सवाल दुनियाभर में दोहराया जाता रहा है। टीटो के बाद कौन? एन्क्रूमाह के बाद कौन? नासेर के बाद कौन? माओ के बाद कौन?
भारत में यह बहस और बड़ी है। हम आज 138 करोड़ लोग हैं। हममें से कई विशिष्ट क्षेत्रों में विश्व नेता हैं। हमारे पास विज्ञान से लेकर तकनीक, प्रबंधन और कला तक, मानव उद्यम से जुड़े हर क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार, पुलित्जर प्राइज, बुकर प्राइज, ऑस्कर, फुकुओका प्राइज, मैग्सैसे अवॉर्ड, एबेल प्राइज के विजेता हैं। आज अमेरिका के शीर्ष कॉर्पोरेशन भारतीय चला रहे हैं। उनके सर्वश्रेष्ठ अस्पतालों में भारतीय डॉक्टर हैं। और हमें चिंता है कि भारत का नेतृत्व कौन करेगा? कोई भी कर सकता है। भारत एक क्रियाशील लोकतंत्र है, जहां अब भी हमारे संविधान के मूल्यों को बरकरार रखने वाले बेहतरीन संस्थान हैं।
खुशकिस्मती से हमें अब तक ट्रम्प जैसा कोई नहीं मिला, हालांकि इतिहासकार कह सकते हैं कि तुगलक इसके करीब था। उम्मीद है, ऐसा कोई होगा भी नहीं। लेकिन याद रखें कि लोकतंत्र में कोई डर नहीं होना चाहिए। किसी भी नेता को कभी भी नकारा जा सकता है, बिना यह चिंता किए कि भारत को कौन संभालेगा।
भारत शानदार हुनर, असाधारण बुद्धिमानों और सक्षम नेताओं का देश है। अगर हम वंशीय उत्तराधिकारी खोजना और बदलाव से डरना बंद कर दें, तो भारत भविष्य की राह हमेशा बना लेगा। कंपनी का सीईओ हो या मुख्यमंत्री, योग शिक्षक, राजनीतिक पार्टी का प्रमुख, बैंकर, राजदूत या परमाणु वैज्ञानिक हो, आप जिसे भी तलाशें, वह आपको हमेशा मिलेगा। यही लोकतंत्र का तरीका है। यहां सभी को सफलता का मौका मिलता है।
प्रीतीश नंदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता हैं ये उनके निजी विचार हैं)