इंसान को खंगाल दे रहा है वर्ष 2020-21 !

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मानव इतिहास में सन् 2020-21 भुलाए नहीं भूलेगा। मानव सभ्यता के सफर में, इतिहास का यों अभी विकास शिखर है। बावजूद इसके वर्ष 2020 के लम्हों की भावनाओं, संकटों, अनुभवों और देव-असुर प्रकृति के चेहरों के समुद्र मंथन में इंसान भयावह खदबदाया हुआ है। चौतरफा लावा है, चिंता है और बहस है। विकास का शिखर है फिर भी बेबसी है, लाचारी है और समझ नहीं आ रहा है कि जीयें तो कैसे जीयें? मौत भी इंसान जैसी नहीं! सवाल ही सवाल। पृथ्वी का सवाल है तो इंसान के जीवन जीने का मसला है। पृथ्वी को बचाना है या नहीं? यहीं नहीं इंसान की अलग-अलग नस्लों, कौम, रंग, सभ्यता-संस्कृति के भी सवाल है। हां, सन् 2020-21 में तय होगा कि इंसान अपनी चिंता कैसे करे? उसे मौत कैसी चाहिए? आगे उसे कैसे जीना है? वह चिड़ियाघर के जानवर की तरह रहेगा, कैमरों-एप और तंत्र की निगरानी में रहेगा या आजादी, निज स्वंतत्रता, सामाजिकता-पारिवारिकता, समानता व गरिमा में जीने की फितरत पाले रहेगा? बेध़डक-मस्तमौला रहेगा या चिड़ियाघर के पिंजरों में सुरक्षित रहना चाहेगा? इसके अलावा मानव जीवन के अलग-अलग रूपों के सवाल है। सन् 2020-21 में यह तय होने की भी चुनौती आ गई है कि इंसानी जीव में किसका क्या मतलब है? गोरों का कैसा तो कालों का कैसा? फिर गोरे बनाम काले बनाम चीनी मंगोलाइड बनाम इस्लाम बनाम हिंदुओं की तासीर में किस जीव, किस कौम, किस नस्ल की अहमियत सभ्यताओं के संघर्ष में निर्णायक होगी? कौन देवता होंगे और कौन राक्षस? सोचें, अंतरिक्ष के किसी स्पेस स्टेशन में बैठा कोई दार्शनिक या भगवान पृथ्वी और उसके इंसान को ले कर यदि ध्यान व मनन कर रहा होगा तो यह सोचते हुए क्या हैरान नहीं होगा कि ज्ञान-विज्ञान से विकास कर पृथ्वी को भूमंडलीकृत गांव में बदलने वाला मानव आज किस मुकाम पर है?

असंख्य क्रांतियों, विचारों, प्रयोगों, अनुभवों में पक-पक कर इंसान ने अंतरिक्ष को जीतने तक की उपलब्धि बनाई बावजूद इसके सन् 2020 का यह कैसा लम्हा जो इंसान उस वायरस के आगे लाचार है जो चमगाड़द जनित है! मसला वायरस का अकेला नहीं है। साइबेरिया, आर्कटिक में 35-38, डिग्री गर्मी याकि पृथ्वी के गर्म होने का है तो इंसान, होमो सेपियंस के अचानक चिड़ियाघर वाली सोशल डिस्टेंसिंग याकि जीने के तरीकों में दस तरह के उन परिवर्तनों का भी है, जिससे आदि मानव के गुफाओं का वक्त याद हो आता है। जन्म और मौत दोनों आज उस आदिम वक्त के साये में हैं, जब इंसान जानवर की मौत मरता था तो जन्म गुफा के निर्विकार जीवन की महज घटना होती थी! अपना मानना है सहस्त्राब्दियों पहले चिंपाजी याकि आदि मानव ने बुद्धि चेतना जब प्राप्त की, अफ्रीका की गुफाओं की बसावट से बाहर निकल उसने भय, खौफ पर विजय के साथ पृथ्वी पर फैलना शुरू किया तो वह मानव की व्यक्तिगत आजादी, खुराफात, इच्छा, कौतुक और सत्य की खोज में शुरू उसका फितरती सफर था। उसी से इंसान की बुद्धि, ज्ञान, सत्य के पट खुले। वह अपनी रचना अपने हाथों गढ़ता गया। जाहिर है बुद्धि की इंसानी फितरत, आजादी ने परिवार, समाज, धर्मं, सभ्यता, संस्कृति, नस्ल, कौम, देश का विस्तार बनाया। वह दूसरे जीवों से अलग मानव बना। तभी मानव सभ्यता से पृथ्वी वह हुई जो आज है! सो, मानव विकास व सहस्त्राब्दियों के मानव सफर के निचोड़ में वजह और सार की बात है बुद्धि के बूते सत्यशोधन! प्रकृति पर, अंधकार से सतत संघर्ष के साथ विजय इस धुन में कि तू डाल-डाल तो मैं पात-पात! प्रकृति में इंसान की पैदाइश बतौर जीव है। मगर उसने बाकी जीवों को पछाड़ा।

प्रकृति और अन्य जीवों को कंट्रोल करने वाला वह विशिष्ट जीव बना, मानव हुआ तो इसके पीछे भले विकासवाद के सिद्धांत की थीसिस सोचें या इंसानी बुद्धि चेतना के क्रमिक विस्फोटों-अनुभवों का कोई दार्शनिक तर्क मानें मैं कोर वजह दिमागी स्वतंत्रता की फितरत को मानता हूं। वह कैसे बनी? अफ्रीकी गुफाओं के आदि मानव से लेकर सन् 2020-21 के मौजूदा वक्त की यह प्रवृत्ति निर्विवाद है कि इंसान चौतरफा फैला और जिधर गया वहां की चुनौतियों के आगे अपनी बुद्धि के प्रयोग से उसने सर्वत्र सौ फूल खिलाए। फिर अपनी-अपनी बगिया में अपना विचार बनाया। जीने का अपना अंदाज बनाया। इस अंदाज पर वज्रपात किसका था? जाहिर है प्रकृति का था। पूरा मानव इतिहास महामारी की आपदाओं से भरा पड़ा है। प्रकृति की आपदाओं ने इंसान की बुद्धि, चेतना को कुंद किया, उसे अंधविश्वासी, झूठ में जीने वाला बनाया तो सत्यशोधन को भी प्रेरित या मजबूर किया। अपना मानना है कि वेद से आज तक मानव सभ्यता का पूरा बुद्धि बल एक ही बात में खपा है कि सत्य क्या है? प्रकृति की पूजा, प्रकृति से संघर्ष, प्रकृति पर विजय और प्रकृति के आगे लाचारगी में इंसान का व्यवहार एक सा रहा है। वह लाचार, पस्त होता है तो अंधविश्वासी बन झूठ में जीता है लेकिन स्वतंत्र बुद्धि चेतना क्योंकि कहीं न कहीं पृथ्वी पर होती है तो दार्शनिक, तपस्वी, हठयोगी, वैज्ञानिक अपनी साधना-तपस्या, हठयोग आदि के भावों में सत्य खोज कर व पुनर्जागरण से प्रकृति को वापस साध लेते हैं और माना जाता है अजेय हुए! सन् 2020-21 का लम्हा इंसान की लाचारी का है। वह वायरस के आगे पस्त है। निश्चित ही इंसान टीका, इलाज खोज लेगा लेकिन इससे और इसके बहाने के कई परिणामों, द्वंदों, संकटों पर वर्ष 2020-21 में जो समुद्र मंथन है वह क्योंकि झूठ बनाम सत्य, देव बनाम असुर की प्रवृत्तियों में है तो अंत नतीजे में जो प्रवृत्ति जीतेगी और अमृत कलश जिसे प्राप्त होगा उसी से तब भविष्य के लिए तय होगा कि इंसान को आगे कैसे जीना है? पृथ्वी का भविष्य क्या है? हां, लम्हों की खता का मामला नहीं है, बल्कि पूरी मानव सभ्यता दोराहे पर है।

एक रास्ता चिड़ियाघर का है तो दूसरा इंसान की आजाद जिंदगी का! एक रास्ता चीन का है तो दूसरा स्वीडन, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड, जर्मनी, फ्रांस, यूरोपीय संघ का। एक तरफ शी जिनफिंग, पुतिन, डोनाल्ड ट्रंप, बोलसोनारो और नरेंद्र मोदी नाम के पंच परमेश्वर हैं, जो प्रजा को हांकते हुए वायरस के आगे ताली-थाली का विकल्प लिए हुए है तो दूसरी और स्वीडन, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, यूरोपीय संघ की सांस्थायिक प्रकृति वाली वह लीडरशीप है, जो वैज्ञानिकता, सत्य, समझदारी और बुद्धि से वायरस की चुनौती का सामना कर रही है। दांव पर क्या है? मानव सभ्यता का भविष्य। कौम, समाज, धर्म का भविष्य। हां, वायरस करोड़ों लोगों की जिंदगियां तबाह करेगा। पृथ्वी के अरबों लोगों के घरों को गरीब बनाएगा (भारत में न जाने कितने प्रतिशत लोग वापिस गरीब होंगे!)। वैश्विक आर्थिकी बरबाद होगी। विश्व व्यवस्था, वैश्विक व्यवस्था का शक्ति संतुलन बदलेगा। ध्यान करें कोई सौ साल से दुनिया की धुरी अमेरिका है। उस नाते समझें, नोट करके रखें कि अमेरिका अपने इतिहास की तीन उथल-पुथल याकि गृहयुद्ध, महामंदी-ग्रेट डिप्रेशन और विश्व युद्ध से भी अधिक विकट स्थिति में आज है। कोविड-19 की महामारी में उसकी आर्थिकी चौपट है तो सामाजिक तानाबाना बिखरा है वहीं लीडरशीप ऐसी अंहकारी है कि लोकतंत्र और नागरिक दोनों का भगवान मालिक है। तब दुनिया के नेतृत्व में आज कौन है? कोई नहीं! सोचें क्या लम्हा है! ऐसा वक्त पृथ्वी के आधुनिक इतिहास में कब था कि पृथ्वी महामारी, महामंदी, महातनाव, महाविद्वेष में कंपकंपाई हुई है और नेतृत्व करने वाला कोई नहीं! लीडर के नाम पर वे हावी हैं, जो या तो अंहकारी हैं, या राक्षस या मूर्ख ! फडफ़ड़ाते जीना और आगे की चिंता इंसान और जानवर में क्या फर्क है? मोटा जवाब है इंसान जानवर जैसे नहीं मरता। न जानवर माफिक जंगल में रहता है और न चिडिय़ाघर में। वह पिंजरे से बाहर, जंजीरों से मुक्त प्राणी है। उसकी बुद्धि, चेतन- अचेतन-अवचेतन ने ऐसा विकास पाया है कि वह सर्कस के बिग बॉस की निगरानी में, उसके चाबुक में जीवन नहीं जीना चाहेगा।

वह बुद्धि बल की स्वतंत्रचेतना में उड़ता आजाद पंछी है। लेकिन सन् 2020-21 ने उसे जमीन पर ला पटका है। वह वायरस के डंक का मारा है और जानवर की मौत मर रहा है। उसकी लाश बिना क्रियाकर्म, बिना संवेदना के फूंकी जा रही है। सचमुच कोविड-19 की महामारी ने पृथ्वी की सात अरब 60 करोड़ आबादी को आंखों देखी बेमौत मौत से कई तरह झिंझोड़ा होगा। मानव इतिहास की पिछली महामारियों प्लेग, चेचक, स्पेनिश फ्लू में करोड़ों लोग जब मरे थे तब दुनिया गांव नहीं थी। लोगों को तुरंत खबर नहीं लगती थी। लोग पढ़, सुन, देख कर समझने, अनुभव की क्षमता और साधन कुएं के मेढ़क जितने लिए हुए थे। उस नाते मानव सयता के इतिहास में वर्ष 2020-21 का लम्हा अतुलनीय है। पूरी मानवता अपनी सामूहिकता से बेमौत मौत की हकीकत से रूबरू है। तभी नया यक्ष प्रश्न है कि मानव अब क्या करे? वह कैसा बने, ऐसा क्या करे, जिससे वह जानवर की मौत न मरे? जवाब में जितने मुंह उतनी बातें! मगर पृथ्वी के सात अरब 60 करोड़ लोग योंकि राष्ट्र-राज्य के 195 बाड़ों में विभाजित हैं इसलिए जवाब में इन बाड़ों की प्रतिनिधि सरकारों की रीति-नीति पर गौर करना होगा। मोटे तौर पर एक राय चौतरफा सुनाई दे रही है कि इंसान अपने आपको बदले। अपने जीने के तरीके, जीने की सोच और उसकी व्यवस्थाओं को बदलना होगा। कोई कहता है हमारा बचना प्राचीन पंरपरा, पारंपरिक इलाज, विश्वास, आस्था, अंधविश्वास, यज्ञ-काढ़ा, ताली-थाली, दीया जलाने जैसे जादू-टोनों से संभव है तो किसी का कहना है कि महामारी के साथ जीना सीखो। फिर वैज्ञानिक सत्यवादी वह एप्रोच है, जिसमें आधुनिक मेडिकल व्यवस्था, रिसर्च-अनुसंधान, टेस्टिंग-ट्रेसिंग-रिस्पांस-वैसीन का रोडमैप है और यह मानव की स्वतंत्रचेता बुद्धि-ज्ञान पर आश्रित है।

कईयों का मानना है कि यदि मानव ने अपने-आपको, अपने खानपान को नहीं बदला और पृथ्वी-पर्यावरण की चिंता सर्वोपरि नहीं बनाई तो विनाश तय है। पृथ्वी को ज्यादा भोगेंगे तो वह एक दिन इंसान का मृत्युभोज कर लेगी! कुछ ऐसे मत व संप्रदाय भी हैं, जो महामारी को कौम विशेष पर ईश्वर का श्राप मान अपने आपमें आश्वस्त है कि हमारा कुछ नहीं बिगडऩा है। जाहिर है सन् 2020-21 के मुकाम पर बुद्धि यदि एवरेस्ट के शिखर पर है तो कूपमंडूकता का पैंदा पाताललोक से कम नहीं है। तभी यह सत्य स्थायी है कि सात अरब 60 करोड़ लोगों की भीड़ में बहुलता क्या तो भेड़- बकरियों की है क्या मूर्ख, लंगूर और कठमुगा जानवरों की! बहरहाल, जैसे देश चलता है वैसे दुनिया के सात अरब 60 करोड़ लोगों का चलना है और वह कुल मिला कर विशिष्ट वर्ग, सभ्रांत-शासक वर्ग के कुछ लाख चेहरों से है। 195 देशों में यदि सत्तावान, रीति-नीति निर्धारकों-नियंताओं में सौ-सौ लोगों का सभ्रांत वर्ग चिन्हित करें तो दुनिया को चलाने वाले बीस हजार लोग होंगे। इसे दो लाख या बीस लाख की संख्या में कनवर्ट करें तब भी सोचें कि सात अरब 60 करोड़ लोगों का कुल मिला कर मतलब या है? इन दिनों सुन रहे हैं कि ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’! जरा इस बात को मानव समूह, वर्ग-वर्ण के खांचों में बदलें तो कुलीन-रूलिंग लास को छोड़ कर कई अरब लोगों की भीड़ बेमतलब लगेगी? भारत में पिछले तीन महीनों में लाखों परिवार पैदल चले और भीड़ जानवरों की तरह रेलों में ढोई गई या ढोई जा रही है तो क्या यह तख्ती नहीं बनती कि ‘इज इंडियन लाइव्स मैटर?’ इस सवाल के पीछे की दशा में पृथ्वी के छह-साढ़े छह अरब चेहरों को रखा जा सकता है!

दुनिया में कोई पचास तानाशाह देश हैं। इनके तानाशाह शासकों के लिए लोगों का जीना, जीव की गरिमा का मतलब शून्य है। मैं बात को घूमा दे रहा हूं। मगर समझने में आसानी के नाते गांठ बांधें कि मानव विकास, होमो सेपिंयस का सफर, उसकी टाइमलाइन में निगेटिव और पॉजिटिव में बुद्धि का विन्यास कितना ही हुआ हो लेकिन ऐसा संभव बनाने वाले दार्शनिक, शासक, ज्ञानीविज्ञानी याकि मानवता के नियंताओं की संख्या कुल मिलाकर सैकड़ों- हजारों में ही है लाखों, करोड़ों में नहीं! तभी सन् 2020-21 का मौजूदा लम्हा भी उन चंद चेहरों का है, जिन पर पूरी मानवता के अच्छे-बुरे, इस पृथ्वी के भविष्य का दारोमदार है। ऐसा पहले भी होता रहा है। पिछली सदी पर गौर करें, एक हिटलर था, जिससे विश्व युद्ध शुरू हुआ और एक चर्चिल, रूजवेल्ट थे, जिनकी कमान से वह खत्म हुआ। एक अब्राहम लिंकन थे, जिनसे गुलामी की प्रथा खत्म हुई। ऐसे ही सहस्त्राब्दी के दायरे में बूझ सकते हैं। एक ईसा, एक मोहम्मद, एक कार्ल मार्क्स, एक अरस्तू, एक आइंस्टीन, एक कोलम्बस, एक चंगेज खान, एक बुद्ध, एक शंकराचार्य जैसी चुनिंदा शख्सियतों से मानव सयता में एक-एक ग्यारह हुए और इंसान ने वह मुकाम पाया जो आज है! जाहिर है यदि आज महामारी मानवता, इंसान के जीने के तरीके का सकंट पैदा किए हुए है तो दुनिया के चंद नियंता हैं, जिससे तय है या होगा कि आगे क्या रास्ता है! सात अरब 60 करोड़ लोग महामारी से बाहर निकलेंगे तो वे चीन का, तानाशाही का रास्ता अपनाएंगे या सच्चे लोकतांत्रिक देशों का या मूर्ख अधकचरी लोकतांत्रिक व्यवस्था के रास्ते में ही स्वर्ग मानेंगे?

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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