अपने इर्द-गिर्द समस्याओं को देखकर हम असर परेशान हो जाते हैं। बुरे ख्याल हमारे मन में आने लगते हैं। लगने लगता है कि अब कुछ ठीक नहीं होगा, सब कुछ खत्म ही हो जाएगा। लेकिन, क्या वाकई ऐसा होता है/ साहिर लुधियानवी ने लिखा है, ‘रात भर का है मेहमां अंधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा/ रात जितनी भी संगीन होगी, सुबह उतनी ही रंगीन होगी/ गम ना कर गर है बादल घनेरा।’ ये पंक्तियां मन में एक उम्मीद जगाती हैं कि सब ठीक हो जाएगा। उम्मीद ही तो है जो हमें जिंदा रखती है। कम से कम इतिहास तो यही कहता है। पहाड़- सी दिखने वाली हर दिक्कत के बीच से हमने एक रस्ता बनाया है। ‘हॉर्स मैन्योर क्राइसिस’ को याद कीजिए। अब से 130 साल पहले न्यूयॉर्क और लंदन को एक अजीबोगरीब समस्या का सामना करना पड़ा। आज के चमचमाते, रंगीन, फैशनेबल और साफ- सुथरे लंदन की सड़कें तब घोड़ों की लीद से भरने लगी थीं। यही हाल न्यूयॉर्क का भी था। मामला यह था कि एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने और सामान पहुंचाने के लिए लोग घोड़ों पर निर्भर थे।
घोड़ों को फैक्ट्रियों में जुतना था और खेतों में भी। मालगाडिय़ों से ढोकर लाए गए सामान को भी शहर में इधर से उधर ले जाने का काम घोड़ों के ही जिम्मे था। लंदन की सड़कों पर उस वक्त हर रोज 50 हजार से ज्यादा घोड़े सड़कों पर दौड़ रहे थे, इंसान और उनसे कहीं ज्यादा सामान ढोते हुए। और यही घोड़े अपने पीछे ढेर सारी गंदगी भी छोड़ रहे थे। टाइम्स अखबार ने तो यहां तक कह दिया था कि अगले कुछ सालों में लंदन की हर सड़क पर नौ-नौ फीट ऊंची लीद की परत जमी होगी। यह गंदगी अपने साथ कई और समस्याएं लेकर आ रही थी। मखी-मच्छर भिनभिना रहे थे। लोगों को टायफॉयड और दूसरी गंभीर बीमारियां होने लगी थीं। मुर्दा घोड़ों को दफनाना भी कोई छोटा सिरदर्द नहीं था। एक बार अकेले न्यूयॉर्क शहर में 15 हजार घोड़ों की लाशें एक साथ दफनाई गईं। जाहिर है, इंसान की कई जरूरतें पूरी कर रहे घोड़े देखते-देखते उसके लिए बहुत बड़ी मुसीबत बन गए थे। शहरों का यह हाल देख तमाम अफसर और पॉलिसी मेकर सिर पकड़ कर बैठे थे। लेकिन संकट की इस घड़ी में कुछ लोग ऐसे भी थे जो अपने दिमाग के घोड़े दौड़ा रहे थे।
फिर एक दिन सामने आई मोटरगाड़ी। इंसान ने अपनी समस्या का हल खोज लिया था। देखते-देखते शहरों में घोड़े गैरजरूरी होने लगे। गंदगी और बदबू से बेहाल शहर मौत के मुंह से निकल आए थे। सब कुछ ठीक हो गया था, बल्कि पहले से बेहतर। ऐसा ही कुछ हुआ था इलेक्ट्रिक लाइटों के साथ भी हुआ था। सदियों से शहरों में स्ट्रीट लैंप जलाते आए कर्मचारियों ने एक बार हड़ताल कर दी। उन्हें पता नहीं था कि दुनिया बदलने जा रही है। फिर बिजली की लाइटें लगीं तो अफवाह फैली कि इनकी रोशनी से आंखें खराब हो सकती हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स तक ने इस पर मुहर लगानी वाली रिपोर्टें छाप दी थीं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। रेलगाडिय़ां चलनी शुरू हुईं तो भी ऐसी पचासों अफवाहें फैलीं। इंग्लैंड के डॉक्टर कहने लगे कि रेलगाड़ी में ज्यादा सफर करने से इंसान को दिमागी बीमारियां हो सकती हैं! आज दुनिया के हर कोने में न जाने किस-किस रफ्तार से ट्रेनें दौड़ रही हैं।
ऐसे ही न जाने कितनी बार दुनिया खत्म हो जाने की बातें हुईं। कहा गया कि फलां साल में कोई धूमकेतु धरती से टकरा जाएगा और सब उलट-पलट हो जाएगा। 2020 आते-आते दुबई या मुंबई शहर डूब जाने की बात अभी कुछ ही समय पहले कही गई थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह धरती, पेड़-पौधे, नदियां, समंदर, पर्वत, इंसान, परिंदे, सब चहचहा हैं। अमेरिकी मोटिवेशनल स्पीकर और लेखक टोनी रॉबिन्स कहते हैं, ‘हर परेशानी एक तोहफा है। इन तोहफों के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। जितने भी बड़े आविष्कार हुए, फिर चाहे पहिया हो, बिजली का बल्ब या टेलीफोन, ऐसे ही नामुमकिन से लगने वाले हालात से निकल कर हुए हैं।’ इधर, कुछ समय से देश और दुनिया में फिर ऐसे हालात बन रहे हैं कि लगने लगा है जैसे सब खत्म हो जाएगा। चीन से शुरू हुआ कोरोना वायरस अब तक हजारों लोगों की जान ले चुका है। कई देश इस वायरस की जद में हैं।
कोमिका माथुर
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)