हर साल 22 अप्रैल को ‘पृथ्वी दिवस’ (अर्थ डे) के रूप में मनाते हैं। इस बार की थीम पृथ्वी के पुर्ननिर्माण से जुड़ी हुई है। मतलब एक नए सिरे से इसके निर्माण की चिंता करना व बीड़ा उठाना है। इस भावना के पीछे है कि पृथ्वी मात्र भोगे जाने की वस्तु नहीं बल्कि, इसकी चिंता भी बराबर होनी चाहिए। आज पृथ्वी के बड़े संकटों में इसका बढ़ता तापमान प्रमुख मुद्दा है।
नदी हो या वन सभी किसी न किसी तरह के पर्यावरणीय संकटों से गुजर रहे हैं। 70% पानी के स्रोत, दुनियाभर के हिमखंड धीरे-धीरे अपनी क्षमताएं खो रहे हैं। ये एक तरह से पानी के फिक्स्ड डिपॉजिट रहे हैं, जो हिमनदियों के माध्यम से हमेशा पानी की उपलब्धता बनाए रहते हैं। लेकिन इनके हालात बेहद बुरी स्थिति में पहुंच चुके हैं, ताजा उदाहरण अंटार्कटिका है।
जियो फिजिकल रिसर्च लैटर में प्रकाशित एक रिर्पोट के अनुसार उद्योगों के कारण पृथ्वी का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। इससे एक तिहाई बर्फ पिघलकर समुद्र में पहुंच जाएगी और धरती पर सैलाब आ जाएगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि तापमान किसी भी कीमत पर 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ना चाहिए। वैसे भी 1.5 डिग्री सेल्सियस से करीब 14 फीसदी बर्फ पिघल सकती है।
इस अध्ययन के अनुसार अलास्का में 39 मील लंबी हिमनदी बढ़ते तापमान के कारण करीब 100 गुना तेज गति से बहना शुरू हो चुकी है। हिमालय के हिमखंड भी अच्छे हालात में नहीं कहे जा सकते। चमोली में हुई घटना हमारे सामने है। जब फरवरी के पहले सप्ताह में बड़े हिमस्खलन के कारण बड़ा जान-माल का नुकसान हुआ। इस घटना में 200 से ज्यादा लोगों की जा गयी और करोड़ों का नुकसान हुआ।
दुनिया में वनों के हालात तो और भी बदतर हैं। उद्योग क्रांति के बाद दुनिया के आधे से ज्यादा वन समाप्त हो गए हैं। भारत में ही 1988 से 2000 के बीच 100 मिलियन हैक्टेयर वन इसकी भेंट चढ़ गए। वनों की भूमिका को ऐसा समझा जाना चाहिए कि ये हवा पानी-मिट्टी के केन्द्र होते हैं। वनों की कमी इन तीनों पर ही बड़े संकट पैदा कर सकती है। वर्षाजनित नदियां इसकी परिणति हैं।
देश की वर्षा नदियां बड़े खतरे में पहुंच चुकी हैं और कारण इनके जलागमों से वनों का सफाया ही है। अब ये नदियां बाढ़ ही लाती हैं या पूरी तरह सूखकर समाप्ति की ओर बढ़ जाती हैं। इन नदियां पर निर्भर तालाब, कुएं भी विदा हो चुके हैं। स्वतंत्रता के बाद 24 लाख में से हमारे पास मात्र 5 लाख तालाब ही बचे हुए हैं। औसतन एक मीटर पानी हर वर्ष इन कुओं से नीचे जा रहा है और लाखों कुंए पाताल में पहुंच गए हैं।
हवा के हालात और भी ज्यादा बदतर होते चले जा रहे हैं। एक रपट के अनुसार दुनिया भर में 92 फीसदी लोग किसी न किसी रूप में वायु प्रदूषण से प्रभावित हैं। पृथ्वी का एक सबसे बड़ा अंग मिट्टी भी हम बहुत तेजी से खो चुके हैं। खेती में केमिकल फर्टिलाइजर्स का बहुतायत प्रयोग हो रहा है। दुर्भाग्य यह है कि हमने इन सबके संरक्षण पर चिंता न रखते हुए इनके विकल्पों पर ज्यादा जोर दिया। उदाहरण के लिए जब पानी खत्म हुआ तो हमने पानी के व्यापार चाहे वो प्यूरिफायर हो या फिर बोतलों का, इन बढ़ते व्यापार ने भी पानी को एक नए तरह के संकट में डाल दिया है।
वहीं दूसरी तरफ जब प्राण वायु संकट में आई तो फिर हम एयर प्यूरिफायर भी ले आए और साथ में आने वाले समय में एक बड़े व्यवसाय के रूप में ऑक्सीजन प्लाजा के नाम से एक व्यापार भी शुरू हो चुका है। मिट्टी तो पहले ही व्यापार की बलि चढ़ चुकी है। पृथ्वी को अगर बचाना है तो पृथ्वी दिवस में ‘माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः’ जैसे पुराणों में कहे गए वक्तव्यों को जेहन में रखते हुए इसके संरक्षण पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है।
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी
(लेखक पदमश्री से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता, हिमालयन पर्यावरण अध्ययन और संरक्षण संगठन के संस्थापक हैं ये उनके निजी विचार हैं)