बाढ़ की कहानी हमेशा अनसुनी

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मॉनसून की शुरुआत के साथ ही असम और बिहार में बाढ़ ने कहर बरपाना शुरू कर दिया है। असम में अब तक दो दर्जन जिलों के पांच लाख से अधिक लोग बाढ़ की चपेट में आ चुके हैं और 50 से ज्यादा की मौत हो चुकी है। बिहार में भी कोसी, महानंदा, कमला बलान और बागमती नदियों का जलस्तर बढ़ने से बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दायरा बढ़ रहा है। दुनिया भर में बाढ़ के कारण होने वाली मौतों का पांचवां हिस्सा भारत में होता है और हर साल इससे देश को कम से कम एक हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। बाढ़ से जान-माल की क्षति तो होती ही है, संबंधित राज्य विकास की दौड़ में भी वर्षों पीछे चला जाता है। अध्ययन करके रख लिया करीब दस वर्ष पूर्व चिंता जताई गई थी कि भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर वर्षा के बादलों को मोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला पश्चिमी घाट मानवीय हस्तक्षेप के चलते सिकुड़ रहा है। उसके बाद मामले के सभी पहलुओं का अध्ययन करके रिपोर्ट देने के लिए केंद्र द्वारा ‘गाडगिल पैनल’ का गठन किया गया था। पैनल ने समय से अपनी रिपोर्ट भी दे दी, लेकिन वह ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है।

भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान द्वारा सन 1900 के बाद साल दर साल हुई वर्षा के आंकड़ों के आधार पर 2014 में किए गए अध्ययन में बताया गया था कि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते मानसूनी बारिश की तीव्रता बढ़ती जा रही है और विनाशकारी बाढ़ की घटनाएं आगे और बढ़ेंगी। आजादी के कुछ वर्षों बाद ‘राष्ट्रीय बाढ़ आयोग’ की स्थापना हुई थी, जिसके जरिये राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत देश में 150 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करने के लिए कई हजार किलोमीटर लंबे तटबंध और बड़े पैमाने पर नालियां व नाले बनाए गए। साथ ही निचले क्षेत्रों में बसे कई गांवों को ऊंची जगहों पर बसाया गया। पिछले पचास सालों में बाढ़ पर सरकारों द्वारा 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा राशि खर्च की जा चुकी है। इसके बावजूद यदि हालात साल-दर-साल बदतर हो रहे हैं तो कमी आखिर कहां है? उत्तरी बिहार को वहां की उफनती नदियों के कहर से बचने के लिए कई मजबूत तटबंध बनाए गए थे, जो दशकों तक काम आते रहे लेकिन अब इनमें से कई तटबंध अब इतने कमजोर हो चुके हैं कि थोड़ी सी बारिश में ही उनमें जगह-जगह दरारें आ जाती हैं।

ऐसी ही बड़ी-बड़ी दरारों के कारण पिछले साल बिहार के कई इलाकों में बाढ़ से भारी तबाही हुई थी। वैसे भी देश के विभिन्न हिस्सों में बांधों के टूटने या उनमें आने वाली दरारों के चलते प्रतिवर्ष बाढ़ का विकराल रूप सामने आता है। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह है कि बाढ़ को प्राकृतिक आपदा का नाम देकर पल्ला झाड़ने के बजाय बांधों की मजबूती और मरम्मत के लिए समुचित कदम क्यों नहीं उठाये जाते? भारी वर्षा से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए प्रशासन क्यों नहीं मानसून से पहले ही मुस्तैद होता? अनियोजित और अनियंत्रित विकास के चलते हमने पानी की निकासी के अधिकांश रास्ते बंद कर दिए हैं। ऐसे में बारिश कम हो या ज्यादा, पानी आखिर जाएगा कहां? दूसरी समस्या यह है कि प्रकृति में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप के चलते समुद्रों का तल लगातार ऊंचा उठ रहा है। इससे समुद्रों में नदियों का पानी समाने की गति कम हो गई है।

यह भी अक्सर बाढ़ का बड़ा कारण बनता है। बाढ़ से नुकसान कम हो, इसके लिए हमें नदियों में गाद का भराव कम करना होगा, साथ ही निचले स्थानों को और गहरा कर उनमें बारिश तथा बाढ़ के पानी को एकत्र करने की ओर ध्यान देना होगा, जिससे बाढ़ के खतरे से निपटने के साथ-साथ गर्मियों में जल संकट से निपटने में भी मदद मिले। मॉनसून के दौरान बाढ़ की विनाशलीला देखने और बाकी साल जल संकट से जूझते रहने के बाद भी यह बात हमारी समझ से परे रह जाती है कि बाढ़ के रूप में जितनी बड़ी मात्रा में वर्षा जल व्यर्थ बह जाता है, अगर उसके आधे जल का भी संरक्षण कर लिया जाए तो अगले दो दशकों तक देश में जल संकट की कमी नहीं रहेगी और खेतों में सिंचाई के लिए भी पर्याप्त जल होगा। अलबत्ता इधर उत्तर प्रदेश और बिहार में इस दिशा में कुछ कार्य शुरू किया गया है।

वहां मनरेगा के तहत हजारों तालाबों की गहराई बढ़ाने से लेकर उनके किनारों का पक्कीकरण करने का कार्य किया जा रहा है। इससे बारिश के पानी की कुछ मात्रा तालाबों में जरूर सहेजी जा सकेगी। ऐसी पहल देश के हर राज्य में की जानी चाहिए। मगर इस तथ्य को भी रेखांकित करने की जरूरत है कि तकरीबन सभी राज्यों में तालाब जिस तेजी से विलुप्त होते गए हैं, उसके पीछे केवल प्राइवेट बिल्डरों और अन्य माफिया की गैरकानूनी अतिक्रमणकारी गतिविधियों की ही भूमिका नहीं है। सरकारी योजनाओं के तहत पूर्ण कानूनी स्वरूप में चलाए गए कई प्रॉजेक्ट भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। सरकार की प्राथमिकताओं और विकास के मॉडल का सवाल यहीं पहुंच कर प्रासंगिक हो जाता है।

थोड़ी संवेदनशीलता भी चाहिए आखिर वजह क्या है कि पश्चिमी घाट के सिकुड़ने के कारणों, उसके परिणामों और उसे बचाने के उपायों की पूरी जानकारी होते हुए भी जमीन पर कुछ नहीं हो पाता? गाडगिल पैनल की रिपोर्ट पड़ी-पड़ी धूल खाती रह जाती है? इन सवालों से तो टकराना ही होगा, यह भी समझना होगा कि बाढ़ और सूखा अलग-अलग आपदाएं नहीं हैं। ये एक-दूसरे से जुड़ी हैं। जल प्रबंधन की कारगर योजनाएं, तटबंधों की समय से मरम्मत जैसे कदम इनके लिए जरूरी तो हैं पर काफी नहीं हैं। इन सबके साथ ही जंगल, पहाड़, नदी, झील समेत पूरी पारिस्थितिकी के प्रति थोड़ी संवेदनशीलता की जरूरत है, सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, सरकारी नीतियों के स्तर पर भी।

योगेश कुमार गोयल
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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