फिर भी सोशल मीडिया का किंतु-परंतु

0
269

गत 25 मई की शाम लगभग आठ बजे अमेरिका के एक श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक शौविन ने अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की अपने घुटनों से कुचलकर हत्या कर दी। वजह बहुत मामूली थी। जॉर्ज पर बीस डॉलर का नकली नोट देने का आरोप था। लेकिन मामला एक अश्वेत से जुड़ा था, इसलिए डेरेक शौविन को यह उसे अपने पैरों तले कुचलकर मार डालने के लिए काफी लगा। इसके बाद समूचा अमेरिका एक झटके में सुलग उठा। एक विडियो में सामने आया कि प्रदर्शनकारियों ने वहां के राष्ट्रपति आवास वाइटहाउस तक में घुसने की कोशिश की, जिसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को कुछ देर के लिए बंकर में छुपकर रहना पड़ा। अमेरिका के लिए रंगभेद या नस्लभेद नया नहीं है, न ही इस तरह के प्रदर्शन नए हैं। कुछ नया है तो सिर्फ यह कि इस बार वहां के राष्ट्रपति को भागकर बंकर में छुपना पड़ा। लूटिंग-शूटिंग का विवाद इसके बाद बात अमेरिका तक सीमित नहीं रही। अफ्रीका और कई यूरोपीय देशों में भी नस्लभेद और रंगभेद विरोधी प्रदर्शन शुरू हो गए। सबसे ज्यादा बेचैनी सोशल मीडिया पर दिख रही है।

यूट्यूब ने घटना के विरोध में अपना लोगो ब्लैक एंड वाइट कर दिया। माइक्रोसॉफ्ट के सत्या नाडेला और ट्विटर के जैक डॉरसी से लेकर गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई तक ने इसके खिलाफ मोर्चा खोला। इसी दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने ‘लूटिंग बिगिन्स, शूटिंग बिगिन्स’ (लूटपाट की तो गोली खाओगे) का प्रोफाइल अपडेट कर दिया। ट्विटर ने इसे हिंसक मैसेज के रूप में टैग किया, पर फेसबुक ने इसपर कुछ नहीं किया। यह तब, जबकि फेसबुक में काम करने वाले ढेरों लोगों का मानना है कि हिंसा किसी भी शक्ल में स्वीकार नहीं की जा सकती, चाहे वह न्यायिक हिंसा ही क्यों न हो। उसके प्रॉडक्ट डिजाइन डायरेक्टर डेविड गिलिस ने कहा कि ट्रंप का बयान ‘अतिरिक्त न्यायिक हिंसा’ को उकसाता है। इस विषय पर मार्क जकरबर्ग और फेसबुक कर्मचारियों में लगभग 90 मिनट मीटिंग चली। इसमें मार्क ने अपने कर्मचारियों की बातों को यह कहकर किनारे लगा दिया कि हिंसा भड़काने पर सरकार द्वारा बल प्रयोग के जिक्र की अनुमति फेसबुक की नीति है।

हालांकि उसी समय ट्विटर किसी भी तरह की हिंसा या बल प्रयोग के खिलाफ खड़ा था और गूगल-यूट्यूब भी कमोबेश इसी नीति पर रहे। स्वाभाविक रूप से फेसबुक का रवैया हिंसा को प्रोत्साहित करने वाला बताया गया। हालांकि फेसबुक पर ऐसे आरोप पहली बार नहीं लगे हैं। अपने ही देश में चाहे एंटी-सीएए प्रोटेस्ट हों या पिछले पांच-छह सालों में देश के विभिन्न हिस्सों में हुई उत्पीड़न की घटनाएं, फेसबुक पर ऐसे सैकड़ों आरोप लगे कि रिपोर्ट करने के बावजूद उसने हिंसक चर्चा से जुड़ी सामग्री को न ब्लॉक किया न वॉर्निंग लगाई। इसके उलट सोशल मीडिया के अन्य मंचों ने ऐसी चीजों को रिपोर्ट करने पर समुचित कार्रवाई की है। ट्विटर ने तो हिंसा की चर्चा करने वाले ऐसे लोगों के भी ट्वीट ही नहीं एकाउंट तक ब्लॉक किए, जो किसी न किसी रूप में सत्ताधारी खेमे से जुड़े नजर आ रहे थे। उसके यहां न्यायिक और गैर न्यायिक हिंसा की एक ही कैटिगरी है, जबकि फेसबुक के पास इसके लिए अलग-अलग खाने हैं। इसकी क्या वजह हो सकती है? क्या यह आरोप सही है कि मार्क जकरबर्ग को सरकारी हिंसा के साथ खड़े होने में फायदा दिख रहा है?

आखिर अहिंसक आंदोलनों से जुड़े बहुतेरे लोग भी यह शिकायत कर ही रहे हैं कि फेसबुक शांति और समानता से जुड़े सपनों पर चर्चा करने वाली उनकी सामग्री को हटा चुका है। समानता, अस्मिता, आजादी और अहिंसा जैसे शब्द आम नागरिकों की राजनीतिक बहस में तब शामिल हुए जब हमने उदारवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद और लोकतंत्र से जुड़े कुछ नए प्रयोग करने शुरू किए। लेकिन नस्लवाद, जातिवाद, धर्मवाद और रंगभेद जैसी चीजें मनुष्य के साथ तभी से लगी चली आ रही हैं, जबसे उसने देवता गढ़े हैं। जानवरों में देवता नहीं होते और वे अपनी जरूरत पूरी करने के लिए या उन पर हमला होने पर ही हिंसक होते हैं। इसके उलट हमने हिंसक होने के हजारों बहाने गढ़ रखे हैं। ऐसे में ट्विटर का यह कहना सही है कि न्यायिक हिंसा भी हिंसा का ही एक बहाना है, और ट्विटर की इस नीति का समर्थन फेसबुक के स्टाफ ने भी किया है। अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड वाली घटना के बाद वहां नस्लभेद को बढ़ावा देती न्याय व्यवस्था के भी कई किस्से सामने आए हैं। खुद राष्ट्रपति ट्रंप के ऐसे कई सारे ट्वीट हैं।

उनके पुराने समय के ढेरों किस्से हैं, जिनमें वे खुलेआम नस्लवाद को बढ़ावा देते दिख रहे हैं। यही वजह है कि उनके बार-बार ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ कहने के बावजूद वहां नस्लवाद के भुक्तभोगी और उनसे सहानुभूति रखने वाले लोग ट्रंप के अमेरिका में अपनी अस्मिता का एड्रेस पूछ रहे हैं। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और ट्विटर जैसे दुनिया के टेक जॉयंट्स ने वक्त की नजाकत के साथ-साथ वक्त की जरूरत को भी काफी कुछ पकड़ लिया है, पर फेसबुक इन सबसे अलग न्यायिक हिंसा के ही पाले में खड़ा है। हिंसा की कई कैटिगरी इसके चलते अमेरिका में उसका विरोध फेसबुक ऑफिस से बाहर निकलकर आम जनता तक फैल चुका है।

वहां नस्लवाद के साथ ही फेसबुक से भी छुटकारे का अभियान शुरू हो गया है। इससे कहीं न कहीं यह बात भी निकलकर आती है कि हिंसा भले ही न्यायिक करार दी जाए, उसके लिए सैकड़ों दलीलें ढूंढ ली जाएं, पर नस्ल, जाति, धर्म, क्षेत्र जैसे बंटवारों की तरह वह भी अंतत: एक कुतर्क ही है। दिलचस्प है कि अमेरिका में चल रहे इस आंदोलन में तकनीक की दुनिया भी काफी कुछ सिखा रही है। लेकिन इसकी कोई उपयोगिता तभी है, जब यह गोल-गोल बातों से शक्तिशाली हितों की सेवा करने के बजाय न्याय के लिए लड़ रहे उत्पीड़ित लोगों के साथ खड़ी हो। अमेरिका से शुरू हुई इस कसौटी का सामना अब उसे पूरी दुनिया में करना पड़ेगा।

राहुल पांडेय
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here