परुषोत्तम मास 18 सितम्बर से, जानें पूजा अर्चना की विधि

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धर्म प्रधान भारतवर्ष में धार्मिक कृत्यों के लिए सौरमास तथा चान्द्रमासों द्वारा काल गणना की परिपाटी प्राचीनकाल से चली आ रही है। दर्शपौर्णमासादि योगों तथा कालों में चान्द्रमास एवं संक्रान्ति जैसे पुण्यकाल के लिए सौरमास का उपयोग होता आ रहा है। संकल्पादि धर्मकृत्यों में सौर तथा चान्द्रमास का समन्वयपूर्वक ऋतु, त्योहार एवं व्रत-पर्वादि नियत रूप से होते रहें एवं इसकी एकरूपता बनी रहे इसलिए हिन्दू पंचांग के अनुसार ज्योर्तिविदों ने अधिक मास की योजना की है।
प्रख्यात ज्योतिषविद् श्री विमल जैन जी ने बताया कि सूर्य जितने समय में एक राशि पूर्ण करे, उतने समय को सौरमास कहते हैं, ऐसे बारह सौरमासों का एक वर्ष होता है, जो सूर्य सिद्धान्त के अनुसार 365 दिन 15 घटी 31 पल और 30 विपल का होता है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर कृष्णपक्ष की अमावस्या तक के समय को चान्द्रमास कहते हैं। ऐसे बारह मासों का एक चान्द्रवर्ष होता है जो 354 दिन, 22 घटी, 1 पल और 24 विपल का होता है, जिसके अनुसार एक सौर और चान्द्रवर्ष में प्रतिवर्ष 10 दिन, 53 घटी, 30 पल और 6 विपल का अन्तर हो जाता है। यदि इस प्रकार चान्द्रमासों को लगातार पीछे होने दिया जाता तो वे 33 वर्षों में अपने चक्र को पूरे कर लिये होते एवं चान्द्रपंचांग से सम्बद्ध पर्व इस अवधि में सभी ऋतुओं में तितर-बितर हो गए होते। इस अनिच्छित घटना को रोकने के लिए मलमास (अधिमास) के नियम चालू किये गये। जिसके अनुसार सौर तथा चान्द्रमास के वर्षों में लगभग ग्यारह दिन का अन्तर पड़ता रहता है और यही अन्तर पौने तीन वर्षों में 30 दिन का हो जाता है। इसलिए यह कहा जाता है कि, 32 मास, 16 दिन और 4 घटी का समय बीत जाने पर 29 दिन, 31 घटी, 50 पल, और 7 विपल का एक अधिशेष यानि अधिक (मल) मास आता है। कहा गया है

द्वात्रिंशद्भिर्गतैर्मासैः दिनैः षोडशभिस्तथा। घटिकानां चतष्केण पतति ह्यधिमासकः॥ इस वर्ष अधिक मास दिनांक 17 सितम्बर 2020, गुरुवार को दिन में 4 बजकर 30 मिनट से आरम्भ हो रहा है तथा 16 अक्टूबर 2020, शुक्रवार को अर्द्धरात्रि के पश्चात् 01 बजकर 01 मिनट तक रहेगा।

‘न पुरुषोत्तम-समो मासः’ ऐसा कहकर विद्वानों ने इसकी बार-बार प्रशंसा की है। ‘न कुर्यादधिके मासि काम्यं कर्म कदाचन।’

ज्योतिषविद् श्री विमल जैन जी के अनुसार अधिकमास में फल प्राप्ति की कामना से किये जाने वाले प्रायः सभी कार्य वर्जित हो जाते हैं, जैसे-कुआं, बावली तालाब एवं बाग-बगीचे आदि लगाने का आरम्भ, प्रथम व्रतारम्भ व्रत उद्यापन, देव-प्रतिष्ठा, वधू-प्रवेश, भूमि, सोना एवं तुला आदि महादान विशिष्ट यज्ञ-यागादि, अष्टका श्राद्ध उपाकर्म, वेदारम्भ, वेदव्रत, गुरुदीक्षा, विवाह, उपनयन एवं चातुर्मासीय व्रतारम्भ आदि।

प्रख्यात ज्योतिर्विद् श्री विमल जैन जी ने बताया कि पुरुषोत्तम मास में किये जाने वाले आवश्यक कर्म जैसे—प्राणघातक बीमारी आदि की निवृत्ति के लिए रुद्र मन्त्र जप, व्रतादि अनुष्ठान कपिल षष्ठी आदि व्रत, अनावृष्टि निवृत्ति हेतु पुरश्चरण-अनुष्ठानादि कार्य वषट्कार वर्जित हवन, ग्रहण-संबंधी श्राद्ध, दान-जपादि कार्य, पुत्रोत्पति के कर्म, गर्भाधान, पुंसवन, सीमंत-संस्कार तथा निश्चित अवधि पर समाप्त करने एवं पूर्वागत प्रयोगादि कार्य इस (अधिक) मास में किये जा सकते हैं।
अधिक मास में क्या खायें, क्या ना खायें? ज्योतिषविद् श्री विमल जैन जी ने बताया कि इस मास में गेहूँ, चावल, सफेद धान, मूंग, जौ, तिल, मटर, सतुआ, शहतूत, ककड़ी, केला, घी, कटहल, आम, पीपल, जीरा, सोंठ, सुपारी, आंवला तथा सेंधा नमक का सेवन करें। मांस, शहद, उड़द की दाल, चौलाई की साग, चावल की मांड़, उड़द, लहसून, प्याज, गाजर, मूली, राई, नशीले पदार्थ, तिल का तेल एवं दूषित अन्न का त्याग करना चाहिए। इस मास में जमीन पर शयन करना चाहिए। सायंकाल पूजा-अर्चना के पश्चात् एक समय अल्पाहार या भोजन करना चाहिए। इस मास में अपने परिवार के अतिरिक्त अन्यत्र कुछ भी खाने से बचना चाहिए। तैंतीस कोटि देवी-देवताओं की प्रसन्नता के लिए पुरुषोत्तम भगवान के मन्दिर में तैंतीस मालपुआ अर्पित करने का विधान है। इस मास में प्रतिदिन भगवान् पुरुषोत्तम का पूजन-अर्चन, कथा-श्रवण करना, व्रत-नियम से रहना चाहिए तथा कांस्य पात्र में रखकर अन्न-वस्त्रादि एवं तैंतीस मालपुआ का दान विशेष महत्वपूर्ण है।

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