इस समय सकारात्मक रहना जरूरी है, लेकिन घोर सकारात्मकता यानी टॉक्सिक पॉजिटिविटी परेशानी बन सकती है। इसका मतलब है कि चाहे जो भी हो जाए, आपकी नौकरी चली जाए, घर में कोई अनर्थ हो जाए, आपका मकान चला जाए, फिर भी सकारात्मक रहना होगा। ऐसी सकारात्मकता हिंसक होती है क्योंकि वह आपकी भावनाओं को नकार रही है। वे भावनाएं जो वास्तविक हैं, तथ्य हैं। उदाहरण के लिए किसी की नौकरी चली जाए, तो लोग उस पर सकारात्मक रहने का दबाव डालते हैं, वह खुद पर सकारात्मक रहने का दबाव डालता है, जिससे उसकी वास्तविक वेदना दब जाती है।
बार-बार ऐसी बातें कही जाएंगी कि कृतज्ञ रहो कि तुम्हारे घर में किसी की तो नौकरी बची है या दूसरों के पास तो इतना भी नहीं है या कम से कम तुम्हारे सिर पर छत तो है। कृतज्ञ रहो, कृतज्ञ रहो… यह मंत्र जपा जाता है। कृतज्ञता बुरी नहीं है, लेकिन साथ में यह भी याद रखना चाहिए कि उससे मेरी वेदना तो नहीं जा रही। कृतज्ञता एक चीज है और नकारात्मक भावनाएं दूसरी चीज है। हम सोच रहे हैं कि हम सकारात्मकता पर ध्यान देते रहें तो यह वेदना कम हो जाएगी, लेकिन अगर शरीर को चोट लगी, तो क्या सिर्फ यह सोचकर कि मेरे पास क्या-क्या है, वह चोट ठीक हो जाएगी?
सकारात्मक रहने का मतलब यह नहीं कि इससे मेरी मानसिक वेदना चली जाएगी। सबसे पहली बात यही है कि इस वेदना को, इस दर्द को स्वीकार करना होगा। दोनों विरोधी भावनाएं एक साथ रह सकती हैं। हम सकारात्मक और कृतज्ञ रह सकते हैं, साथ ही हम में वेदना भी हो सकती है कि हमने कुछ खोया है। हमने देखा है कि घर में दु:ख का या नकारात्मक माहौल तो, लेकिन उस बीच कोई बच्चा कोई शरारत कर दे या प्यारी बात कर दे, तो हमारे चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। यानी दोनों भावनाएं साथ में होती हैं न। आज के समय में यह जानना बहुत जरूरी है कि सकारात्मक रहने का दबाव हमें नकारात्मक बना रहा है।
दूसरी बात, स्वीकार करें कि मुझे वेदना है, दर्द है, नकारात्मकता है और यह ठीक है। ठीक न होना भी, ठीक होता है क्योंकि समय ऐसा है। हम जानते हैं कि थोड़े समय में यह बुरा वक्त जाएगा पर भावनाओं को स्थिर होने में समय तो लगेगा। खुद को थोड़ा समय दें।
तीसरी बात यह है इस समय हमें उपदेश से ज्यादा मदद की जरूरत है। यह सही है कि हर बुरी स्थिति में कुछ सकारात्मक देखना चाहिए, लेकिन इसका दबाव नकारात्मक है। इसीलिए हमें उपदेश की जगह किसी के कंधे की जरूरत है, जिससे दिल की बात कह पाएं। कोई ऐसा जो हमारे बारे में राय न बनाए, भले ही समाधान न दे, लेकिन बात सुने। उस सुनने से ही हमें अपने नकारात्मक भाव से बहुत राहत मिलेगी। इसी तरह हम भी किसी की बात सुनें। अगर भावनाएं साझा करने के लिए कोई नहीं है तो भावनाओं को किसी डायरी में या मोबाइल में लिखें। लिखने से भी अंदर की नकारात्मक ऊर्जा कम होती है। भावनाओं को अंदर दबाकर न रखें।
दूसरी तरफ यह बात भी है पिछले कुछ समय में हम लोग एकदम रिलेक्स हो गए। हम थोड़ा लापरवाह हो गए, जिससे इस बार संकट और बड़ा हो गया। लेकिन सीख यही है कि हम आत्म-अनुशासन अपनाएं। चार प्रकार के लोग होते हैं, जो अलग-अलग तरह से सीखते हैं। पहला वो जो सुनकर सीख लेता है। अगर उसे कहें कि शराब पीने से लीवर खराब होता है, तो वह शराब नहीं पिएगा। दूसरा, सुनकर नहीं, देखकर सीखता है। वह कहता है कि मैंने सुना है कि शराब से लीवर खराब होता है, पर मेरा खराब नहीं होगा। फिर वह देखेगा कि किसी का शराब पीने से लीवर खराब हो गया। तो वह शराब पीना बंद कर देगा।
तीसरा कहता है कि किसी का लीवर खराब हो गया, पर जरूरी नहीं मेरा भी हो। वह अनुभव से सीखता है। जब उसका लीवर खराब होता है, तब उसके अंदर का बल्ब जलता है और वह शराब छोड़ता है। चौथा, सुनता है, देखता है और अनुभव भी करता है कि शराब से लीवर खराब होता है, वह फिर भी नहीं सीखता और लापरवाह रहता है। सुनकर सीखने वालों को बहुत कीमत नहीं चुकानी पड़ती। अभी भी जो सुनकर सीख रहे हैं, डॉक्टरों के, लोगों के अनुभव सुन रहे हैं, वे सुरक्षित हैं। सुनकर सीखें, देखकर सीखें, ताकि अनुभव नहीं करना पड़े।
गौर गोपाल दास
(लेखक अंतरराष्ट्रीय जीवन गुरु हैं ये उनके निजी विचार हैं)