प्रसाद का जाना एक साइड शो

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जब सरकारें आलोचना को सहजता से नहीं लेती हों तो उस युग में राजनीतिक विश्लेषण का एक परिणाम यह होता है कि सत्ता के सामने सच बोलना बेहद मुश्किल हो जाता है. शक्तिहीन को सच बताना तब बहुत आसान होता है, लिहाजा जब भी कोई विपक्षी दल संकट का सामना करता है या झटका खता है, टीवी चैनल और टिप्पणीकार यही करने लगते हैं. क्या ये चीजें भयानक नहीं हैं? हम ताजा संकट के लिए किसे दोष देते हैं? गलत होता है तो क्या जिम्मेदार लोगों को दोष नहीं दिया जाना चाहिए?

मीडिया के लिए खुशकिस्मती से कांग्रेस हमेशा एक या दो संकट के साथ हमेशा तैयार रही है, ताकि इन टिप्पणीकारों का काम चलता रहे. और युवा नेताओं के भविष्य का पुराना सवाल, कांग्रेस की बढ़ती अप्रांसगिकता, वंशवाद की बुराइयां आदि के बारे में हर दिन-रात उठाया जाता रहा है.जितिन प्रसाद के बीजेपी में शामिल होने की घोषणा के साथ कांग्रेस के जितने सवाल बीजेपी पर भी उठाए जाने चाहिए. आखिरकार जितिन प्रसाद का जाना हैरत भरा नहीं है. वह दो साल पहले भी ऐसे ही फैसले के बेहद करीब थे. और जबकि वो एक उदीयमान, योग्य, सौम्य और अच्छे व्यक्तित्व वाले हैं. उनके जाने से कांग्रेस के लिए धरती फटने जैसा नहीं है.

दूसरी ओर, बीजेपी द्वारा प्रसन्नतापूर्वक उनका स्वागत करना कई सवाल उठाता है. प्रसाद एक राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं. उनके पिता राजीव गांधी के सचिव थे. उनका पालन-पोषण बेहतरीन परिस्थितियों में हुआ. वो वैसी ही शख्सियत हैं, जिन्हें बीजेपी अक्सर ‘लुटियंस एलीट’ कहकर बुलाती है. यह सब अच्छा हो सकता है कि जब वो कांग्रेस में थे, जहां कोई बात मायने नहीं रखती. लेकिन बीजेपी उनके आगमन को वंशवाद के खिलाफ अपनी नफरत और लुटिसंय दिल्ली के खिलाफ अपने अभियान से अलग कैसे सहन कर सकती है.

साथ ही जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य और सचिन पायलट जैसे नेता जिस तरह के विशेषाधिकारों से लैस हैं, जिन्हें बीजेपी अपने पाले में लाने की मशक्कत कर रही है. ऐसा हो सकता है कि बीजेपी ने यह निर्णय़ किया हो कि वंशवाद आखिरकार उतनी बुरी चीज नहीं है. अब वो उन्हीं चीजों को लेकर लगाव दिखाने के साथ सराहना कर रही है, जिन्हें कभी विशेषाधिकार प्राप्त लुटियंस वर्ग का माना जाता है. यह सीखने लायक है कि जब प्रसाद का बीजेपी में स्वागत किया जा रहा था, तब उनके दून स्कूल की पृष्ठभूमि का जिक्र भी आया. लिहाजा ये शायद नई बीजेपी है, जिसने विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को गले लगा लिया है. लेकिन अगर इस मामले में यह जरूरी हो तब मैं सोचता हूं कि इस बारे में बताया जाना चाहिए.

एक अन्य वजह भी है. कांग्रेस से अलग बीजेपी में है कि वो अलग अलग तरह की पहचान बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित करती है. जब वो दूसरी पार्टियों से असंतुष्टों को अपने पाले में लाती है, खासकर उन लोगों को जो पहले उसकी हिन्दुत्ववादी योजनाओं का विरोध करते रहे हों, तो उसकी पहचान खोने का खतरा रहता है. हम पश्चिम बंगाल में ऐसा देखते हैं, जब बड़े पैमाने पर तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को बीजेपी में लाया गया था. इस प्रक्रिया में बीजेपी के प्रति वफादार और लंबे समय से काम करने वाले हतोत्साहित हो गए. लोग भी इस बात को लेकर हैरत में पड़ गए कि बीजेपी भला वास्तविकता में अलग कैसे हो सकती है, जब वो उन्हीं को अपने पाले में ला रही है, जो कभी उस पर हमला करते थे. परिणाम यह हुआ कि उसे एक करारी हार का सामना चुनाव में करना पड़ा.

जहां तक कांग्रेस का सवाल है, प्रसाद का जाना एक साइडशो जैसा है. पिछले दो सालों में यह एकदम स्पष्ट हो गया है कि नेतृत्व का जो मॉडल राहुल गांधी ने चुना था, वो फेल हो गया है. राहुल गांधी ने खुद को अपने जैसे लोगों से ही घेर लिया था. युवा, पश्चिमी शिक्षा प्राप्त, स्मार्ट, राजनीतिक विरासत से ताल्लुक रखने वाले और पुराने कांग्रेस नेताओं के बेटे. व्यक्तिगत तौर पर इनमें से कई नेता बेहद योग्य और ईमानदार थे, लेकिन इन सबसे एक समग्र छवि बनती थी कि यह पार्टी वंशवादी राजनीति के एकदम अनुकूल है. अगर रोमेश थापर के 1980 के विध्वंसकारी वाक्यांश का उल्लेख किया जाए तो ‘बाबालोग’ की पार्टी. राहुल गांधी ने अब इस मॉडल को छोड़ दिया है, हालांकि शायद वो इसको लेकर इतने स्पष्टवादी नहीं है, जितना उन्हें होना चाहिए. कई युवा वंशवादी नेता जो खुद को उनकी कोर टीम का हिस्सा मानते थे, अब खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं औऱ अपने प्रति समर्थन और सहानुभूति में आई कमी से नाराज हैं.

इनमें से कई का कहना है कि उनसे किए गए वादे पूरे नहीं किए गए. उनका तर्क है कि ऐसा नहीं है कि राहुल ने उनकी जगह कोई और योग्य और स्मार्ट व्यक्ति नियुक्त किया हो. उनका दावा है कि राहुल ने खुद को ऐसे चापलूसों से घेर लिया है, जो हमेशा उनकी बड़ाई करते रहते हैं. यह वो रणनीति है, जो संकट में फंसे किसी नेता को हमला करने के लिए मुफीद बैठती है. पार्टी छोड़ने वाले ऐसे नेताओं का दावा है कि राहुल की कोर टीम में ऐसे लोग नहीं हैं, जो यह कहने की हिम्मत नहीं रखते कि क्या गलत है और क्या सही.

लिहाजा जितिन प्रसाद का जाना या कांग्रेस में रहना भले ही कुछ मायने न रखता हो, जहां तक राहुल की बात है, वो अपने राजनीतिक करियर की चरम पर पहुंच चुके हैं. लेकिन कांग्रेस की असली समस्या युवा वंशवादी नेता हैं. यही कारण है कि राहुल गांधी को अभी भी चुनाव लड़ने या लोगों को संभालने की फुर्सत नहीं है. कांग्रेस ने असम गंवा दिया, जहां उसे जीतना चाहिए था और पार्टी अभी भी इस बात को लेकर निश्चित नहीं है कि आखिर इसकी क्या वजह रही. केरल के मामले में कांग्रेस की पराजय पार्टी के भीतर गुटबाजी और कमजोर नेतृत्व का परिणाम प्रतीत होता है.

आंतरिक कलह पर काफी लंबे समय से चर्चा होती रही है, लेकिन कांग्रेस ने कुछ नहीं किया. सबसे बुरा रहा है, जिस तरह से कांग्रेस ने पंजाब में उठापटक से निपट रही है. यह उन चुनिंदा राज्यों में से है, जहां कांग्रेस के सामने कोई मजबूत विपक्ष नहीं है. प्रधानमंत्री का करिश्मा पंजाब में काम करता नहीं दिख रहा. अकाली दल अभी भी खुद को संभालने में लगे हुए हैं. बीजेपी-अकाली दल का पुराना गठबंधन टूट गया है. यह एक ऐसा राज्य है, जहां चुनावी जीत, राष्ट्रीय कारणों की बजाय मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की लोकप्रियता से ज्यादा ताल्लुक रखती है. फिर भी जब पंजाब में चुनाव कुछ महीने ही दूर हैं, वहां असंतोष और बगावत दिख रही हैं. विद्रोह पर सख्ती से काबू पाने की बजाय दिल्ली नेतृत्व ने बागियों को हौसला दिया है और मुख्यमंत्री की हैसियत को कमतर किया है.

यही कांग्रेस का असली संकट है. कोई भी उम्मीद नहीं करता है कि कांग्रेस यूपी में जीतेगी, जहां से प्रसाद ताल्लुक रखते हैं. लेकिन उम्मीद थी कि वो केरल और असम में जीतेंगे. और कोई भी यह सोच भी नहीं सकता था कि कांग्रेस पंजाब में खुद को अपना विपक्ष बना लेगी. वंशवादी आते और जाते रहते हैं. कांग्रेस के सामने असली खतरा विशेषाधिकार प्राप्त कुलीनों और यहां तक कि बीजेपी से भी नहीं है. असली खतरा उसके नेतृत्व द्वारा पार्टी को संभाल पाने की अक्षमता है.

वीर सांघवी
(लेखक देश के वरिष्ठतम पत्रकारों में से एक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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