..हमारी दिमागी गुलामी अब तक ज्यों की त्यों ही बनी है

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कुछ लोगों ने दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका लगाई है कि माहमारी के इस दौर में ‘सेंट्रल विस्टा’ के काम को रोक दिया जाए। क्या है, यह सेंट्रल विस्टा ? इसके नाम से ही आप समझ लीजिए कि इसके पीछे कैसा दिमाग काम कर रहा है। यह वही दिमाग है, जो अंग्रेज का दिमाग था। हम आजाद हो गए लेकिन हमारी दिमागी गुलामी अभी भी ज्यों की त्यों बनी हुई है।

स्वतंत्र भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भारत के अन्य नागरिकों की तरह रहना चाहिए था लेकिन उन्होंने अपने पुराने मालिकों की जीवन-शैली अपना ली है। वायसराय जहां रहता था, वहां हमारे राष्ट्रपति रहने लगे और ब्रिटिश सेनापति जहां रहता था, उस तीन मूर्ति हाउस में प्रधानमंत्री रहने लगे। नेहरु के बाद दो बार और बदले गए प्रधानमंत्री निवास लेकिन अब जो सेंट्रल विस्टा बन रहा है, उस पर लगभग 23 हजार करोड़ रु. खर्च होंगे। हमारा संसद भवन बड़ा बने और केंद्रीय सचिवालय भवन भी बेहतर हो, यह जरुरी है लेकिन प्रधानमंत्री और उप-राष्ट्रपति के निवासों पर हम सैकड़ों करोड़ रु. खर्च क्यों करें ?

सच्चाई तो यह है कि इस वक्त भी राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के जो निवास हैं, वे जरुरत से ज्यादा बड़े हैं। उनके रख-रखाव पर लाखों रु. रोज़ खर्च होते हैं। ये रुपए कहां से आते हैं ? ये देश की नंगी-भूखी जनता का पैसा है। गरीब जनता के पैसे पर ये ठाठ-बाट किसलिए किया जाता है ? क्या अपनी हीनता-ग्रंथि से मुक्ति पाने के लिए ? यदि हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री लोग सामान्य घरों में रहें तो क्या उनका सम्मान घट जाएगा ? क्या वे शक्तिहीन हो जाएंगे ? बिल्कुल नहीं।

मैंने कई देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को उनके साधारण घरों में रहते हुए देखा है। मैंने उन्हें बसों और रेल के डिब्बों में यात्रा करते हुए भी देखा है। वशिंगटन डी.सी. में मैंने कई अमेरिकी सांसदों को अपने पासवाले कमरे में किराए पर रहते हुए देखा है। यह ठीक है कि इन जन-सेवकों को पूरी सुविधा और सुरक्षा जरुर मिलनी चाहिए लेकिन उसके नाम पर उनकी बादशाहत पर कानूनी रोक लगनी चाहिए।

इसी रोक की मांग ये याचिकाकर्ता उच्च न्यायालय से कर रहे हैं। सरकार की तरफ से अदालत को जो सफाई दी गई है, उसमें याचिकाकर्ताओं की मन्शा पर शक किया गया है। यह शक ठीक भी हो सकता है कि ऐसे लोग हर मामले में मोदी की टांग खींचना चाहते हैं लेकिन यह भी सत्य है कि माहमारी के इस विकट समय में सेंट्रल विस्टा पर अरबों रु. के खर्च की खबर जले पर नमक छिड़कने के बराबर है। कोरोना ने बता दिया है कि कोई भी कभी भी खिसक सकता है तो अब 2022 में ही सेंट्रल विस्टा का बनना जरुरी है, क्या ? तालाबंदी के इस माहौल में सैकड़ों मजदूरों को इस काम में झोंके रखना ठीक है ?

डा. वेद प्रताप वैदिक
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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