स्कूलों का खुलना उत्सव की तरह

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आखिरकार स्कूल खुलने लगे हैं। हमारे देश में पिछले एक दशक से 6-14 आयु वर्ग के बच्चों के स्कूल में नामांकन की दर 95% से ऊपर पहुंच गई है। अब सुनिश्चित करना होगा कि बीते सालों की उपलब्धियां बनी रहें। जहां समुदाय और परिवारों के साथ स्कूल का रिश्ता मजबूत रहा है, वहां बच्चे जल्दी स्कूल वापस आ जाएंगे। जहां महामारी के दौरान शिक्षकों ने बच्चों तक पहुंचने का प्रयास किया, वहां बच्चे बेसब्री से स्कूल खुलने का इंतजार कर रहे हैं। इस साल स्कूलों का खुलना उत्सव जैसा होना चाहिए।

पिछले सौ साल में ऐसा कभी नहीं हुआ कि पूरे साल देशभर के सभी स्कूल-कॉलेज बंद रहे हों। पर यह भी याद रखना होगा कि सालभर स्कूल बंद रहने का असर बच्चों की आदत, मनःस्थिति और व्यवहार पर भी पड़ा होगा। अभिभावकों से लेकर शिक्षाविदों तक को चिंता है कि बच्चे पढ़ाई में पिछड़ गए हैं, पर बच्चे स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ और बहुत कुछ ग्रहण करते हैं। वे वहां दोस्ती, धैर्य, समूह में काम का तजुर्बा, दूसरे के अधिकार व विचार की कद्र, कमजोर की मदद, विनम्रता और अपने से अलग संस्कृति से परिचय जैसी तमाम बातें भी सीखते हैं।

लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन शिक्षा, डिजिटल पाठ्यसामग्री की खूब चर्चा रही। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के बहुत कम बच्चों की इन सुविधाओं तक पहुंच है। शिक्षा के मूल में है- सीखने यानी ‘लर्निंग टू लर्न’ का कौशल। किसी विषय को समझना, एकाग्रता से गहराई में उतरना, पाठ पढ़कर विश्लेषण करना-सीखने की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण बिंदु हैं। क्या बीते सालभर बच्चों को ऐसा माहौल मिल पाया, जिसमें वे ये गतिविधियां आसानी से कर पाए? शहरी या शिक्षित-समृद्ध परिवारों की बात अलग है।

दूर-दराज इलाकों में परिवार के लोग अमूमन ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं। स्कूल के फाटकों पर लटका ताला दिखता है, किंतु सीखने की आदत में आई कमजोरी देख पाना आसान नहीं। जब शिक्षक और शिक्षार्थी वापस मिलेंगे, तब उन्हें अपनी इस शिक्षा-शक्ति को मिलकर मजबूत करना होगा। अब जरा छोटे बच्चों के बारे में सोचें। मसलन जो बच्चे इस साल दूसरी कक्षा में पहुंचेंगे, वे वास्तव में कभी स्कूल ही नहीं गए। घर के आंगन से सीधे कक्षा की चारदीवारी में पहुंच जाएंगे।

इस बच्चे पर अचानक दूसरी कक्षा का पाठ्यक्रम थोपना उचित होगा? पहले इन्हें स्कूल आने के लिए तैयार करना होगा, फिर कक्षा में बैठने की आदत डालनी होगी और फिर स्कूल में कैसे सीखते हैं, वह दक्षता हासिल करनी होगी। पाठ्यक्रम के बोझ से उन्हें दबाना, क्या अन्याय नहीं होगा? मेरा वश चलता तो मैं इस साल उन्हें पहली या दूसरी की पाठ्यपुस्तक के बजाय रंग-बिरंगी कहानियों की किताब देती और प्राइमरी स्कूल के अच्छे शिक्षक को पहली-दूसरी कक्षा का जिम्मा देती।

पढ़ने-पढ़ाने और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में यह जरूरी है कि शिक्षक हर बच्चे को सही तरीके से समझें- बच्चे की खासियत, मौजूदा क्षमताएं, रुचियां। असली पहचान व परिचय में बेशक समय लगेगा पर स्कूल खुलते ही शिक्षक को हर बच्चे को व्यक्तिगत रूप से थोड़ा वक्त देना होगा। इसी दौरान उसकी मानसिकता को समझते हुए, पढ़ने और बुनियादी गणित कर पाने की क्षमता का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं। जब बच्चे को उसकी समझ के वास्तविक स्तर से पढ़ाया जाता है (न कि कक्षा के स्तर से) तो उसकी प्रगति तेजी से होती है।

स्कूल में बच्चों व शिक्षकों को एक-दूसरे से दोस्ती और संपर्क बनाने का समय दिया जाए। पाठ्यक्रम के बोझ से कोई तबाह न हो। बच्चों की मौजूदा स्थिति को ध्यान में रखकर कुछ महीने बुनियादी कौशलों पर काम किया जाए। उम्मीद की जानी चाहिए कि बच्चे खुशी-खुशी स्कूल आते रहें और अब तक सूनी स्कूल की इमारतें उनकी किलकारियों से गूंजती रहें।

रुक्मिणी बनर्जी
(लेखिका ‘प्रथम’ एजुकेशन फाउंडेशन से संबद्ध हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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