नेपाल में ओली की मुसीबत आएगा अविश्वास प्रस्ताव

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नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने एतिहासिक फैसला दे दिया है। उसने संसद को बहाल कर दिया है। दो माह पहले 20 दिसंबर को प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने नेपाली संसद के निम्न सदन को भंग कर दिया था और अप्रैल 2021 में नए चुनावों की घोषणा कर दी थी। ऐसा उन्होंने सिर्फ एक कारण से किया था। सत्तारूढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में उनके खिलाफ बगावत फूट पड़ी थी। पार्टी के सह-अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ ने मांग की कि पार्टी के सत्तारूढ़ होते समय 2017 में जो समझौता हुआ था, उसे लागू किया जाए। समझौता यह था कि ढाई साल ओली राज करेंगे और ढाई साल प्रचंड! लेकिन वे सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं थे। पार्टी की कार्यकारिणी में भी उनका बहुमत नहीं था। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रपति विद्यादेवी से संसद भंग करवा दी।

नेपाली संविधान में इस तरह संसद भंग करवाने का कोई प्रावधान नहीं है। ओली ने अपनी राष्ट्रवादी छवि चमकाने के लिए कई पैंतरे अपनाए। उन्होंने लिपुलेख-विवाद को लेकर भारत-विरोधी अभियान चला दिया। नेपाली संसद में हिंदी में बोलने और धोती-कुर्त्ता पहनकर आने पर रोक लगवा दी। (लगभग 30 साल पहले लोकसभा-अध्यक्ष दमननाथ ढुंगाना और गजेंद्र बाबू से कहकर इसकी अनुमति मैंने दिलवाई थी।) ओली ने नेपाल का नया नक्शा भी संसद से पास करवा लिया, जिसमें भारतीय क्षेत्रों को नेपाल में दिखा दिया गया था लेकिन अपनी राष्ट्रवादी छवि मजबूत बनाने के बाद ओली ने भारत की खुशामद भी शुरू कर दी। भारतीय विदेश सचिव और सेनापति का उन्होंने काठमांडो में स्वागत भी किया और चीन की महिला राजदूत हाउ यांकी से कुछ दूरी भी बनाई।

उधर प्रचंड ने भी, जो चीनभक्त समझे जाते हैं, भारतप्रेमी बयान दिए। इसके बावजूद ओली ने यही सोचकर संसद भंग कर दी थी कि अविश्वास प्रस्ताव में हार कर चुनाव लड़ने की बजाय संसद भंग कर देना बेहतर है लेकिन मैंने उस समय भी लिखा था कि सर्वोच्च न्यायालय ओली के इस कदम को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। अब उसने ओली से कहा है कि अगले 13 दिनों में वे संसद का सत्र बुलाएं।

जाहिर है कि तब अविश्वास प्रस्ताव फिर से आएगा। हो सकता है कि ओली लालच और भय का इस्तेमाल करें और अपनी सरकार बचा ले जाएं। वैसे उन्होंने पिछले दो माह में जितनी भी नई नियुक्तियां की हैं, अदालत ने उन्हें भी रद्द कर दिया है। अदालत के इस फैसले से ओली की छवि पर काफी बुरा असर पड़ेगा। फिर भी यदि उनकी सरकार बच गई तो भी उसका चलना काफी मुश्किल होगा। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि नेपाल के इस आंतरिक दंगल का वह दूरदर्शक बना रहे।

डा. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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