अब एक अदद ग्रोथ वैक्सीन

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नया साल करीब है। दुनिया को कोविड वैक्सीन के रूप में उम्मीद की किरण दिख रही है। ऐसे में सभी देश अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं को किसी तरह नॉर्मल बनाने में जुटे हैं। लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था का बुरा हाल है। हालंकि यह समझना मुश्किल है कि बुरा हाल क्यों है। भारत के फंडामेंटल्स मजबूत हैं और कुछ अच्छे नीतिगत फैसले भी हुए हैं। मसलन इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड, 2016 को लागू किया गया और बिजनेस प्रॉसेस को आसान बनाने के लिए भी कदम उठाए गए। फिर भी हमारी अर्थव्यवस्था ठप पड़ी है तो आखिर क्यों?

पहली नजर में लगता है कि मुसीबत की जड़ कोविड-19 ही है। पूरी दुनिया इससे पीड़ित है। जाहिर है, भारत भी अपवाद नहीं हो सकता। लेकिन आंकड़ों पर नजर डालें तो मामला केवल स्लोडाउन का नहीं है। भारत अपनी रैंक भी खो चुका है। जुलाई-सितंबर में यानी इस साल की तीसरी तिमाही में हमारे पास 63 देशों का जीडीपी डेटा (सारे देश जीडीपी का तिमाही डेटा नहीं बनाते) है। इनमें से 51 देश भारत की तुलना में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। केवल 11 हमसे पीछे हैं।

सबसे कड़ा लॉकडाउन पिछले 30 वर्षों में कभी ऐसा नहीं हुआ था। सुधारों का दौर शुरू होने के ठीक बाद 1993 में ही भारत में विकास ने रफ्तार पकड़ ली थी। फिर 2003 में यह और तेज हुआ। 2005 के बाद तो कई वर्षों तक भारत दुनिया के तीन सबसे तेज विकास दर वाले देशों में रहा। फिर आखिर यह कैसे हुआ कि विकास के मामले में हम दुनिया के टॉप 1 प्रतिशत से सीधे 20 प्रतिशत पर गिर गए? इसमें कुछ भूमिका निश्चित रूप से लॉकडाउन की भी रही। जब 25 मार्च को भारत में लॉकडाउन घोषित किया गया, तो उसे पूरी दुनिया में सबसे कड़ी पाबंदियों वाला लॉकडाउन कहा गया। लेकिन थोड़े ही दिनों में साफ हो गया कि गरीबों और प्रवासी मजदूरों की स्थितियों के बारे में सोचे और उनकी मदद का इंतजाम किए बिना ही लॉकडाउन लागू कर दिया गया था। नतीजा यह रहा कि पूरे देश में ढाई से चार करोड़ गरीब मजदूर सड़कों पर निकल आए और सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांवों की ओर पैदल ही चल पड़े। यह लॉकडाउन के बिल्कुल उलट स्थिति थी। यह महा-अनलॉकिंग बेहद नुकसानदेह साबित हुई।

फिर भी इन सबका असर ज्यादा देर नहीं रहने वाला। भारत के लिए असल चिंता की बात यह है कि यहां स्लोडाउन महामारी से पहले ही शुरू हो चुका था। वर्ष 2016-17 में भारत में जीडीपी विकास दर 8.2 प्रतिशत थी। उसके बाद हर साल विकास दर पिछले साल के मुकाबले कम ही होती रही। वर्ष 2020-21 तक यही हाल रहा। विकास यात्रा में पांच साल लंबी ऐसी ढलान तो आजादी के बाद से अब तक कभी नहीं देखी गई थी।

बहरहाल, देश के बड़े कॉरपोरेट जमकर मुनाफा कमा रहे हैं और कुछ वित्तीय संकेतक भी अच्छे संकेत दे रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि अर्थव्यवस्था के लुढ़कने की कीमत कौन चुका रहा है? पिछले हफ्ते नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) की नई रिपोर्ट जारी हुई, जिसमें 17 भारतीय राज्यों और पांच संघ शासित प्रदेशों का हाल बताया गया है। यह रिपोर्ट बहुत कुछ कहती है। इसके मुताबिक पिछले पांच साल के दौरान उम्र के हिसाब से बच्चों के वजन और उनकी लंबाई का औसत विकास कम रहा है। बच्चों में कुपोषण के मोर्चे पर स्थिति पहले से बदतर हो जाए, ऐसा 1998 के बाद से कभी नहीं हुआ था। कुपोषण चूंकि आर्थिक रूप से मजबूत तबकों की समस्या नहीं है, इसलिए इन आंकड़ों से साफ है कि पिछले पांच वर्षों में जो आर्थिक गिरावट आई है, उसका खामियाजा वास्तव में शहरी गरीबों और किसानों को भुगतना पड़ रहा है।

ये दुखद है। खासकर इसलिए क्योंकि भारत में क्षमता की कमी नहीं है। नब्बे के दशक की शुरुआत से ही भारत इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलजी (आईटी) सेक्टर में ग्लोबल लीडर रहा है। इसके फार्मास्युटिकल, हाइअर एजुकेशन और रिसर्च सेक्टरों में भी काफी संभावना है। तो फिर गड़बड़ कहां है? स्थितियां बेहतर बनाने के लिए क्या करने की जरूरत है?

पहला, भारत में नीतियां निर्धारित करने में प्रफेशनलिज्म बिल्कुल नहीं है। जीडीपी, असमानता या कुपोषण से जुड़े आंकड़ों का इस्तेमाल करने पर देशद्रोह के आरोप लगा देना या इन सचाइयों से नजरें फेर लेना गलत है। दूसरा, आने वाले बजट में अर्थव्यवस्था की गाड़ी को धक्का देने के लिए जरूरी होगा कि वित्त मंत्री बड़े पैमाने पर प्रतिभाओं को आकर्षित करने पर ध्यान दें। यह कवायद पूरी तरह से शहरी गरीबों, बेरोजगारों, छोटे कारोबारियों और किसानों पर केंद्रित होनी चाहिए। सभी अनावश्यक खर्चे काटते हुए यह काम करना होगा। बावजूद इसके, वित्तीय घाटा बढ़ेगा जो कि ऐसे संकट के दौरान बढ़ता ही है। हमारे पास योजना यह होनी चाहिए कि कैसे अगले दो वर्षों में इसे फिर से काबू में लाया जाए।

रचनात्मक निवेश इसके अलावा हमारे सभी प्रयास देश की निवेश दर बढ़ाने और इसके क्रिएटिव सेक्टर (रिसर्च, हाइअर एजुकेशन, विज्ञान और टेक्नॉलजी) को बढ़ावा देने पर केंद्रित होना चाहिए। लेकिन इस मामले में मुझे वित्त मंत्री से सहानुभूति है क्योंकि इनमें से ज्यादातर मामले उनकी पहुंच से बाहर हैं। किसी देश में निवेश, खासकर रचनात्मक निवेश सिर्फ वित्तीय और मौद्रिक नीति पर निर्भर नहीं करता। इसके लिए विश्वास की भी जरूरत होती है। ऐसी स्टडी रिपोर्ट्स की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है जो बताती हैं कि विश्वास या भरोसे का विकास से सीधा रिश्ता होता है। भारत में भेदभाव और नफरत की बढ़ती भावना के चलते धार्मिक अल्पसंख्यकों तथा पिछड़ी जातियों का हाशिये पर पहुंचते जाना न केवल समाज के नैतिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि हमारी आर्थिक ताकत को भी नष्ट कर रहा है। हमारी जिम्मेदारी है कि हम इसे ठीक करें।

कौशिक बसु
(लेखक अमेरिका की कार्नेल यूनिवर्सिटी में कार्ल मार्क्स प्रोफेसर हैं व भारत सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

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