व्यति को अपनी विद्वत्ता पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए। घमंड ज्ञान को नष्ट कर देता है। दो चीजों को कभी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। अन्न के कण को और आनंद के क्षण। इस विषय में एक प्रसंग यूं है कि महाकवि कालिदास रास्ते में थे। प्यास लगी। वहां एक पनिहारिन पानी भर रही थी। कालिदास बोले, कि माते! पानी पिला दीजिए बड़ा पुण्य मिलेगा। पनिहारिन बोली, कि बेटा मैं तुहें जानती नहीं। अपना परिचय दो। मैं पानी पिला दूंगी। कालिदास ने कहा, कि मैं मेहमान हूं कृपया पानी पिला दें। पनिहारिन बोली, तुम मेहमान कैसे हो सकते हो? संसार में दो ही मेहमान हैं। पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम? तर्क से पराजित कालीदास अवाक् रह गए। कालिदास बोले कि मैं सहनशील हूं।
अब आप पानी पिला दें। पनिहारिन ने कहा कि नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापीपुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो? कालिदास मूच्र्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्ला उठे! कालिदास बोले, मैं हठी हूं। पनिहारिन बोली कि फिर असत्य। हठी तो दो ही हैं। पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बारबार निकल आते हैं। सत्य कहें कौन हैं आप? कालिदास अपमानित और पराजित हो चुके थे। कालिदास ने कहा कि फिर तो मैं मूर्ख ही हूं। पनिहारिन ने कहा कि नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो। मूर्ख दो ही हैं।
पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता हैए और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है। कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा पनिहारिन के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे! वृद्धा ने कहा, उठो वत्स! आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुन: नतमस्तक हो गए मां ने कहा, शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार से। तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुहारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा। कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।