नई सोच की दरकार

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Female doctor talking with patient along coworker in ICU. Man is lying on bed amidst essential workers. Healthcare workers are in protective workwear. (Female doctor talking with patient along coworker in ICU. Man is lying on bed amidst essential work
Female doctor talking with patient along coworker in ICU. Man is lying on bed amidst essential workers. Healthcare workers are in protective workwear. (Female doctor talking with patient along coworker in ICU. Man is lying on bed amidst essential work

पिछली बार शुरुआत से जुड़ी उम्मीद की बात हुई थी। फिर पिछले महीने 11 तारीख को मेरी जिंदगी में नई चीज की शुरुआत हुई, जिसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। मैं कोविड पॉजिटिव पाया गया। इसके साथ उम्मीद का तालमेल हो सकता है या? मुश्किलों में उम्मीद कहां? जब हम किसी गाड़ी का माइलेज निकालते हैं तो कहते हैं ‘स्टैंडर्ड कंडीशन में’। यानी इतने किमी की गति से चलने पर, इतना एवरेज मिलेगा। या ऐसा ही हम सब की जिंदगी में भी है कि जब स्टैंडर्ड कंडीशन रहे तब हम उम्मीद रखें, वर्ना न रखें। उम्मीद किसलिए रखें? इसलिए कि परिस्थिति ऐसी है या इसलिए क्योंकि हमारी जरूरत है। दरअसल जब हम नाउम्मीदी की सारी परिस्थितियां अपने जीवन में पाते हैं, उन्हीं परिस्थितियों में उम्मीद की जरूरत है। पर कैसे? जैसे मुझे कोविड हो गया, तो मैं खुद पर नाराज होऊंगा। कैसे हो गया, मुझे काम पर जाने की या जरूरत थी, तमाम एहतियात के बाद कैसे हो गया? इन चीजों में उम्मीद नहीं, गुस्सा है, खुद को बेचारा बनाना है। ऐसा तब होगा जब मैं उम्मीद का स्रोत बाहर ढूंढूं। उम्मीद का स्रोत बाहर नहीं, हमारे अंदर है। दरअसल हम खुद से भी उम्मीद नहीं रखते। हम सोचते हैं कि लोग क्या सोचेंगे कि तुझे इसमें भी उम्मीद दिखती है। हम असर कहते हैं कि ये चीज व्यावहारिक (प्रैटिकल) नहीं है।

आपने देखा होगा कि लोगों को इस बात की प्रैटिस (अभ्यास) है कि कुछ अच्छा चल रहा है, तो उम्मीद रखो, लेकिन बुरे में तो बस बुरे का सामना करो। यह प्रैटिस हमें तोडऩा है। हमें चुनना है कि या हम ऐसे ढर्रे में जाना चाहते हैं, जहां नाउम्मीदी हो या हम नाउम्मीदी की परिस्थिति में उम्मीद का ढर्रा बनाएं। जी हां, उम्मीद का स्रोत हमारे अंदर है। वैसे ही, जैसे नाउम्मीदी का स्रोत भी हमारे अंदर है। हर वक्त हमारे अंदर जिजीविषा है। जैसे जब चीता हिरण की तरफ दौड़ता है, तो हिरण अधिकतर बच पाता है क्योंकि उसकी जीने की इच्छा, किसी और की भूख की इच्छा से बड़ी है। तो उम्मीद का आधार यही है कि आप अपने कल को कितना प्रज्वलित बनाना चाहते हैं, कितनी उम्मीद भरना चाहते हैं। मुझे कोरोना हुआ तो लोग कह रहे हैं कि तुम्हें तो मायूस होना चाहिए, पर तुम हंस रहे हो। दरअसल मुझे, मेरे लिए हंसना है। मुझे अपने लिए उत्साहित रहना है क्योंकि जब मैं उत्साहित रहता हूं तो अपने जीवन स्रोत को खुला रखता हूं। मैं उम्मीद रख रहा हूं कल से। चिंताएं आती हैं लेकिन क्या मैं उनकी वजह से दुखी रहूं या यह सोचूं कि देखो जिंदगी अभी बाकी है। और इस परिस्थिति से मुझे यहीं से निकलना है। कई साल में मैंने पाया है कि जब-जब मैं उम्मीद रखकर आगे बढ़ा, तो सचमुच मैंने अलग कल पाया है। चुनौती का दौर भी आपकी जिंदगी का हिस्सा है। कोविड बिन बुलाए आया है, तो मैं बिन बुलाई नाउम्मीदी क्यों रखूं, मैं उम्मीद बुलाकर रखूंगा।

क्योंकि यही लौ मुझे रोशन रखती है। मैं जानता हूं कि जब भी मैं नाउम्मीदी के आसपास उम्मीद की लौ लेकर काम करता हूं तो अपनी इस लौ से दूसरों की जिंदगी रोशन कर पाता हूं। लोग जब नाउम्मीदी में हों और आप उम्मीद की लौ लेकर निकलते हैं, तो वे आपसे प्रेरित होते हैं। हो सकता है शुरुआत में लोग आपको अव्यावहारिक कहें, हंसें भी, लेकिन आप उन्हें भी उम्मीद दे पाएंगे। हम सबमें उम्मीद है, लेकिन हम उसकी बात करने से घबराते हैं। हम सोचते हैं कि यह बात अटपटी लगेगी। उन सभी हालात में जहां लोग कहते हैं कि कुछ नहीं हो सकता, आप उम्मीद की लौ जगाएं।अपना अटपटापन दिखाएं। जरूरत है इस वक्त कि हम अटपटी बातें करें क्योंकि जो बातें लाजिमी हैं, वो हमें पस्त करती हैं। अटपटी उम्मीद रखते हैं कि हम उस माहौल में भी कुछ खास कर सकते हैं, जहां लगता है कि कुछ नहीं हो सकता। जो चीज दूसरों को पहले अटपटी लगेगी, वही लोग बाद में कहेंगे कि यह तो अनूठी चीज है। जब हम नई राह पकड़ते हैं, नई तरह सोचते हैं, तब होती है एक अनूठी जिंदगी की शुरुआत। आपने चुनौतियों के बीच उम्मीद रखी है। लेकिन अब आप उम्मीद का स्रोत बनिए। वह उम्मीद जो आपको कल की ओर ले जाएगी। अनूठे संयोगों को, नए अवसरों को पहचानने में मदद करेगी।

आशीष विद्यार्थी
(लेखक मोटिवेशनल स्पीकर व एटर हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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