मदरसों में आधुनिक शिक्षा

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हाल ही में असम की सरकार ने अपने राज्य के मदरसों और संस्कृत के केंद्रों को आधुनिक शिक्षा से जोडऩे के लिए कुछ कदम उठाए हैं। असम सरकार चाहती है कि इन मदरसों व केंद्रों को धार्मिक शिक्षा से ऊपर उठाते हुए स्कूल बनाया जाए जहां इन छात्रों को आधुनिक शिक्षा देने का प्रबंध हो। धार्मिक शिक्षा को उत शैक्षिक समय में न पढ़ाया जाए। इस मदरसों व केंद्रों में अध्ययनरत छात्र उस वैचारिक धारा में ढल सकेंगे जो समय की जरूरत है। सरकार के इस कदम को दो दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। पहला दृष्टिकोण नकारात्मक है। जो इन संस्थानों में धार्मिक शिक्षा आदान-प्रदान करने से जुड़ें है उनकी चिंता यह है कि यदि इन्हें स्कूल बनाकर आधुनिक शिक्षा से जोड़ा गया तो धार्मिक शिक्षा व धार्मिक ग्रंथ लुप्त होने के कगार पर होंगे। जिससे धर्म का प्रभाव स्वत: समाप्त हो जाएगा। उनका दूसरा चिंतन यह है इन संस्थानों में पढऩे वाले बाहरी व गरीब छात्र जिनका लालन-पालन का व्यय वह समुदायों से अर्थिक सहयोग प्राप्त करके करते हैं, वह समाप्त हो जाएगा। धार्मिक गुरुओं का इन संस्थानों से वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। इन कारणों से वह सरकारी सहायता व आधुनिक शिक्षा का विरोध करते हैं।

असम सरकार के इस दिशा में उठाए गए कदम का सकारात्मक पहलू यह है इन संस्थानों में पढऩे वाले लगभग अस्सी प्रतिशत वह छात्र हैं जो आर्थिक रूप से गरीब हैं, जिनके परिजन उनकी शिक्षा-दीक्षा का खर्च उठाने में असमर्थ है। वह आधुनिक शिक्षा ग्रहण तो करना चाहते हैं लेकिन गरीबी के चलते हासिल नहीं कर सकते। उनके लिए असम सरकार का कदम सार्थक है। लेकिन देश के अधिकांश राज्यों में सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा पर करोड़ों रुपये प्रति वर्ष खर्च करने वाली सरकार यदि इन संस्थानों पर अपनी दयादृष्टि डालती है तो इससे वह छात्र लाभांवित होंगे जो गरीबी के चलते आधुनिक शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। लेकिन अभी तक का जो सरकार का रवैया रहा है वह इन संस्थानों में काफी निराशजनक रहा है। व उसकी कथनी-करनी में काफी अंतर रहा। दो वर्ष पहले यूपी के मुयमंत्री योगी आदित्यनाथ न यूपी बोर्ड की भांति उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद के अंर्तगत संचालित मदरसों में एनसीआरटीई का पाठ्यक्रम लागू करने का निर्णय लिया था। दो वर्ष के उपरांत भी इन मदरसों में वही पुराना आधारहीन पाठ्यक्रम चल रहा है। जिसमें छात्र एक गाइड से तैयारी करके परीक्षा में शामिल होते हैं और अधिकांश परीक्षा में उत्तीण भी हो जाते हैं।

इन मदरसों में नियुत अध्यापकों का मानदेय भी कई-कई माह में जाकर मिलता है। स्थिति यह है कि वर्ष 2015 के बाद सरकार से मिलने वाला मानदेय में केवल एक वर्ष का ही मिल पाया है। बहरहाल सरकार यदि इन संस्थानों को आधुनिक शिक्षा से जोडऩा चाहती है। इन संस्थानों के लिए सरकार पहले पाठ्यक्रम का निर्धारण करे फिर इन संस्थानों में भी प्राइमरी स्कूलों की तरह नि:शुल्क पाठ्यक्रम की पुस्तकें उपलब्ध कराए ताकि इन संस्थानों में पढऩे वाले गरीब बच्चों पर पडऩे वाला आर्थिक भार कम हो। वह भी उसी विचारधारा से जुड़ सकें जिससे सरकार जोडऩा चाहती है। योंकि सच्चर कमैटी की रिपोर्ट अब से 12 वर्ष पहले आई थी जिसमें मुसलमानों की शैक्षिक व आर्थिक स्थिति दलितों से भी बदतर बताई गई है। यदि सरकार इस मुद्दे को लेकर वास्तव में गंभीर है तो उसको इन शैक्षिक दशा सुधारने के लिए कदम उठाने चाहिए। अब तक सरकारी प्रयासों की जो स्थिति का आंकलन किया जाए तो मन में निराश ही होगी। योंकि कदम उठाने से पहले ही उसपर होने वाली राजनीति व तर्क-वितर्क सरकारी प्रयासों को विफल बना देते हैं। इस दिशा में कोई गतिरोध न हो इसके लिए सरकार को चाहिए कि इन संस्थानों में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा प्रदान करने को निर्धारित शैक्षिक समय से अलग करने की मंजूरी दे तो सरकार का प्रयास सफल होगा।

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