चिकित्सा सही-अंधविश्वास गलत

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भारत में कोरोना महामारी के फैलाव के साथ ही आयुर्वेदिक दवाओं और प्राकृतिक चिकित्सा की मांग तेजी से बढ़ती गई है। ऐसी खबरें इस साल के आरंभ से आनी शुरू हुईं कि बड़ी संया में लोग प्राचीन आयुर्वेदिक दवाओं का रुख कर रहे हैं। तब कंपनियां लोगों की वैकल्पिक चिकित्सा की मांग पूरी करने में जुटी गईं। हल्दी वाला दूध और तुलसी की बूंदों जैसे घरेलू नुस्खे आकर्षक पैकेजिंग के साथ दुकानों की शेल्फ पर दिखने लगे। ऐसे हर्बल ड्रिंक का विज्ञापन आने लगे जिनका दावा था कि यह कोरोना वायरस से सुरक्षित रख सकता है। अब विज्ञापन आए तो लोग सहज ही समझते हैं कि वो उत्पाद अच्छा ही होगा। स्वस्थ जीवन शैली और परंपरागत ज्ञान से प्रचलन में आए घरेलू उपचारों को अपनाने में कोई हर्ज भी नहीं है। बल्कि उनसे कुल मिलाकर सेहत को फायदा ही होता है। इसके बावजूद ये मानना कि ऐसी कोई दवा कोरोना जैसी नई महामारी का इलाज है, ये ठीक नहीं होगा। आयुर्वेदिक दवाएं कोरोना को रोकने में कितनी कारगर हैं, इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण फिलहाल नहीं है। इसलिए किसी दवा को रामबाण मानकर निश्चिंत हो जाना अपने लिए खतरे को आमंत्रित करना है।

यह सच है कि आयुर्वेद का कारोबार हाल के दशकों में काफी फैला है। बहुत से लोग ये मान कर ऐसी दवाएं लेते हैं कि प्राकृतिक इलाज कैंसर से लेकर सर्दी जुकाम तक सब ठीक कर सकता है। इसीलिए इस समय यह उद्योग 10 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच चुका है। कोरोना महामारी ने इस कारोबार को और बल प्रदान किया है। कोरोना वायरस की वैसीन आने में देर ने लोगों को प्राकृतिक उपचारों की तरफ जाने पर मजबूर किया है। आयुर्वेद और दूसरे पारंपरिक इलाजों को सरकार भी खूब बढ़ावा दे रही है। 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद केंद्र में बकायदा अलग से आयुष मंत्रालय का गठन किया गया। आयुष मंत्रालय के अंतर्गत आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्धा, सोवा रिग्पा और होम्योपैथी को शामिल किया गया है। जनवरी में आयुष मंत्रालय ने पारंपरिक इलाजों को कोरोना वायरस से लडऩे का उपाय बताया था। बात आजमाने तक रहे तो ठीक है। लेकिन यह अंधविश्वास का रूप ले ले, तो बेहद खतरनाक रूप ले लेगी। मसलन, कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं होने के बाद भी गाय के गोबर और गौमूत्र से कोरोना वायरस का इलाज करने की हिमायत की गई है। इसलिए इस बारे में विवेक का परिचय देना अनिवार्य हो गया है।

कोरोना महामारी का एक असर यह भी हुआ है कि विकास नीति के मामलों में दुनिया की प्राथमिकताएं बदल रही हैं। स्थानीय उत्पादन और खेती अब विभिन्न देशों की प्राथमिकताओं में ऊपर आ गए हैं। नई कृषि नीति को पहले से ज्यादा ‘ग्रीन, फेयर और सिम्पल’बताया गया है। यूरोपीय संघ ने नई कृषि नीति के तहत लाए जाने सुधारों के मद में अगले सात सालों में 387 अरब यूरो खर्च करने का बजट तय किया है। साझा कृषि नीति पर खर्च होने वाला यह ईयू के कुल बजट का सबसे बड़ा हिस्सा होगा। नई नीति में तय किया गया है कि अगर किसान सरकारों से वित्तीय मदद लेना चाहेंगे, तो उन्हें पर्यावरण के लिहाज से और भी ज्यादा सत नियमों का पालन करना होगा। इसी साल मई में यूरोपीय परिषद ने ‘फार्म टू फोर्क’ रणनीति पेश की थी जिसका मकसद ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देना और खेती में कीटनाशकों और रासायनिक उत्पादों के इस्तेमाल को कम करना था। इन महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तमाम विस्तृत नियम भी नई साझा कृषि नीति का भी हिस्सा होंगे।

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