महारोग तो एक भय है, राम नाम के स्मरण से ये मिटेगा

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हमारे यहां पंचांग में पांच वस्तु की प्रधानता हैजोग, लगन, ग्रह, वार और तिथि। जहां पंचांग की गणना शास्त्रीय पद्धति से होती है तो इस तरह उसका क्रम बना है। तिथि अंत में रखी गई है। गोस्वामीजी तिथि को प्रथम रखकर प्रधानता दे रहे हैं- नौमी तिथि मधुमास पुनीता। सुफल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।। योग पहले होना चाहिए, प्रभु के प्राकट्य का योग बना। लगन, ग्रह, नक्षत्र सब ठीक हुआ। शायद गोस्वामीजी आखिरी आदमी तक पहुंचना चाहते हैं। आखिरी आदमी योग में या समझेगा? पूज्यपाद गोस्वामीजी जाना चाहते थे आखिरी व्यक्ति तक, क्योंकि उसका राम आखिरी व्यक्ति तक जा रहा है।

बहुत बड़ी मात्रा में जा रहा है। हम मूर्तिपूजक हैं ; होना चाहिए। हमारा अधिकार है। श्रद्धा का मामला है, वो बरकरार रखा जाए, लेकिन इंसान को अनदेखा क्यों किया जाए? आखिरी व्यक्ति क्यों उपेक्षा का शिकार बने? तुलसी की ये वैश्विक दृष्टि थी। या जानता है आखिरी व्यक्ति योग के बारे में? इसलिए तुलसी ने प्रधानता पंचांग को दी, लेकिन इन पांच अंग में प्रथम प्रधानता तिथि को दी। क्योंकि आखिरी व्यक्ति को तिथि से लेन-देन होता है। तो तिथि की प्रधानता है। नौमि भौम बार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा।। और राम प्राकट्य की महिमा तो किसके लिए नहीं है? लेकिन इससे भी अधिक महिमा मेरे लिए है रामनवमी की।

उसी दिन ‘रामचरितमानस’ का प्राकट्य हुआ। राम प्रगट हुए हैं और हाथ में नहीं आते लेकिन ये ‘रामचरितमानस’ हमारे हाथ में है। तो भगवान राम इस मधुमास में प्रगट होते हैं। ‘रामचरितमानस’ का प्राकट्य मधुमास में होता है। राग बंधन है। मधुमास राग का महीना माना गया है। उसमें राम प्रगट हुए, ‘रामायण’ प्रगट हुई। आदमी असंग रहे उसको कोई भय नहीं रहता। अथवा तो संतसंग करे उसको भी भय नहीं रहेगा। शास्त्र का, हरिनाम का, परमात्मा का कोई भी संग भय निकाल देता है। वालि को कुछ समय के लिए राम का संग हो गया तो वो कितना निर्भय, अभय हो गया? और सुग्रीव करीब- करीब भयभीत बना रहा।

भगवान ने बालि को मारा तब भी आदमी निर्भय दिखता है। ललकारता है भगवान को, आपने मुझे क्यों मारा? आप धर्म हेतु आए हो। मेरी पत्नी कहती है, आप समदर्शी हो। कैसे भी ज्ञात-अज्ञात में संग हो गया है हरितत्तव का। निर्भयता से बात कर रहा था। प्रभु ने कहा, चलो, उसको ज्ञान हो गया। चलो, तो शरीर को रख लो, तुझे अचल कर दूं। ‘अचल करौं तनु राखहु प्राना।’ वालि ने इंकार किया कि मुझे शरीर रखना नहीं है। प्रभु ने कहा, मुझे तो तेरे अभिमान को तोडऩा था ; हो गई घटना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना। मैं मूढ़ नहीं, अब मुझे बेफिक्र कहने दो, मुझे तन नहीं रखना है। लेकिन आप को मेरे तनय को रखना पड़ेगा।

‘मानस’ कार स्पष्ट लिखते हैं, तन नहीं, मेरा तनय रख लो। एक बाप इससे ज्यादा अपनी औलाद के लिए या चाहता है? परमात्मा के पास यही तो मांगेगा कि हम रहे ना रहे, कुल परंपरा में सतसंग बना रहे, स्मरण बना रहे, किसी का शरण बना रहे। कोई परम का संग करने से अभय आता है। हमें किन-किन प्रकार के भय होते हैं? किस बात का भय? क्यों? भय का कारण है राग। जिस चीज के प्रति राग हो जाता है, वो एक भय सदा इसके पीछे रहता है कि ये कहीं खो न जाए, छूट न जाए! वस्तु अच्छी लगे ये पर्याप्त नहीं, अभयता दे, वो वस्तु होनी चाहिए। ‘भागवत’ में दैवी संपदा में अभय को ही प्रधानता दी है।

बहुत बड़ी कमाई होती है, लेकिन उसके मन में एक भय रहता है, कहीं घाटा न हो जाय। किडनैप न हो जाय, लुट न जाय। कितने प्रकार के भय हैं? राम का वचन है, मैं अभय कर देता हूं। एक बार मेरी शरण में आ जाय। पुकार ले बस! हम सब सोचें मेरे भाईबहन, किसी भी चीज में राग पैदा होने से पहले भय तो ये है कि यदि वस्तु छूट जाएगी तो? दूसरा है मृत्यु का भय। कहीं बीच में ही मैं चला जाऊं तो या होगा? ये मरण का भय। मृत्यु पर बोलना बहुत आसान है लेकिन आए तब बोलना कठिन है!

मरण का भय हो सकता है लेकिन मरण का भय छूटेगा रामस्मरण से। जिन्होंने स्मरण किया; कबीर कहते हैं। शून्य मरे अजपा मरे अनहद हू मर जाय। मसनेही ना मरे कह कबीर समझाय। मृत्यु के भय से आदमी तभी मुक्त हो सकता है, जिसका स्मरण बलवान हो। जप भी श्रम देगा। जप साधना है। साधना श्रम देती है लेकिन सुमिरन आदमी को निर्भय करता है। किसी की याद आते ही आंख में आंसू आ जाय, आदमी निर्भय होने लगता है क्योंकि अंदर भरा हुआ सब खाली हो जाता है। हानि लाभु जीवन मरतु जसु अपजसु बिधि हाथ। मरण विधाता के हाथ में है। विधाता को कहना चाहिए कि हे पितामह, मरण आप के हाथ में मुबारक, लेकिन मेरे ठाकुर का स्मरण तो मेरे हाथ में है, तुम्हें जो करना वो करना! मैं स्मरण छोडूंगा नहीं। तीसरा भय रहता है अपकीर्ति। राग के कारण और हमारे ऋषिमुनियों ने मनीषिओं ने अपकीर्ति को मृत्यु से भी भयंकर कहा है।

अपकीर्ति होगी, लेकिन तुलसी कहते हैं, राम की लीला गानेवाले, सुननेवाले कीर्तिवान हो जाएंगे। धन्य हो जाएंगे। एक भय होता है महारोग का जिस देह पर हमें इतना राग है, जिसको देहाभिमान कहते हैं, देहासक्ति कहते हैं। ये चौथा भय है महारोग। जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल। जिसका नाम त्रिताप को मिटानेवाला है। तो महारोग एक भय है। राम-स्मरण से महारोग का भय मिटता है। कहीं राग के कारण किसा का अपराध न हो जाए ये भी एक भय है। एक व्यक्ति के राग के कारण दूसरे व्यक्ति का अपराध पैदा न कर दे; दूसरे की अपेक्षा न हो जाए, ये अपराधबोध जो जाए। तो सब के भय भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। और समानधर्मी, समानव्यवसायी, समान विद्यावाले लोगों को मेरे से दूसरा आगे न निकल जाए, ऐसी स्पर्धा का भय पैदा होता है। राम सब के हो गए। राम आम लोगों के हो गए। शबरी तक, केवट तक, बंदर-भालू तक, पत्थर तक, असुरों तक, सब तक प्रभु पहुंचते हैं।

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