प्रेम सिर्फ एक की आकांक्षा का नाम नही

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आखिर वैलेंटाइंस डे भी बीत गया। यह भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है। यह ल्यूपरसेलिया नामक एक प्राचीन रोमन त्योहार है, जो 14 वीं शताब्दी तक आते-आते प्रेम की अभिव्यक्ति के दिन में बदल गया। यहां वह अब इतना प्रचलित हो चला है कि संस्कृति के रक्षकों को पहरेदारी करनी पड़ती है। लेकिन भारत में प्रेम के निवेदन और उसकी अंतरंगता की स्वीकृति की अपनी गहन परंपरा रही है। पुराणों में इसकी कहानियां भरी पड़ी हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि हमारे यहां की विदुषी स्त्रियों ने ऐसे प्रेम निवेदनों को किस तरह स्वीकार किया है।

इस प्रसंग में लोपामुद्रा का चरित्र अद्भुत है। लोपामुद्रा उन 27 ऋषिकाओं में से एक थीं, जिन्होंने ऋग्वेद की रचना में अपना योगदान किया था। उन्होंने छह सूक्तों की रचना की थी, जो संभोग की देवी रति को समर्पित हैं और जिनमें स्त्री-पुरुष के अंतरंग संबंधों की व्याख्या की गई है। ऋग्वेद के सूक्तों की रचना का काल ईसा पूर्व 1950 से ईसा पूर्व 1100 के बीच माना जाता है, हालांकि इस काल निर्धारण को लेकर विवाद भी उठते रहते हैं।

लोपामुद्रा विदर्भ की राजकुमारी थीं। अगस्त्य मुनि उन्हें ब्याह कर अपने आश्रम में ले आए और अपनी साधना में लीन हो गए। लोपामुद्रा भी एक समर्पित पत्नी की तरह अपने अध्ययन और आश्रम के कार्यों में लग गईं। लेकिन एक दिन जब अगस्त्य ने उनसे प्रेम निवेदन किया तो उन्होंने कहा, ‘हे मुनि, प्रेम अकेले नहीं किया जा सकता। इसका सुख भी अकेले नहीं प्राप्त किया जा सकता। यह सुख तभी है, जब दोनों को उसकी समान अनुभूति हो।’

‘तो इसके लिए मुझे क्या करना होगा?’ अगस्त्य ने पूछा। लोपामुद्रा ने कहा, ‘मैं राजमहल में पली हूं, उसी वातावरण और उन्हीं सुविधाओं में अबाधित सुख का अनुभव कर सकूंगी।’
‘मैं राजसुख से वंचित तपस्वी हूं, वह वैभव या सुख सामग्री कहां से लाऊंगा? आपने जब इस विवाह को स्वीकार किया था तो इस विषय में भी अवश्य सोचा होगा’, अगस्त्य ने कहा।

लोपामुद्रा बोलीं, ‘नहीं, विवाह मैंने इसलिए किया, क्योंकि अपने पिता का दुख नहीं देखना चाहती थी। आपने राज्य को नष्ट करने की धमकी दी थी। आपके पराक्रम ने मेरे पिता को अवश बना दिया था। विवाह के बाद मैंने निष्ठापूर्वक आपका साथ दिया। लेकिन जो सुख आप चाहते हैं, उसके लिए उस सुख को पाने की योग्यता दिखानी होगी।’ इसके बाद अगस्त्य मुनि ने अपने तपोबल के नष्ट हो जाने का तर्क रखा, लेकिन लोपामुद्रा ने उसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा, ‘प्रेम से तप का फल नष्ट नहीं होता। यह वह फल है, जिसे आप तप से प्राप्त करते हैं।’

और अंतत: अगस्त्य मुनि को धन की तलाश में बाहर निकलना पड़ा। लोपामुद्रा ने प्रेम का निवेदन स्वीकार तो किया, लेकिन मुनि को भी यह समझा दिया कि प्रेम सिर्फ एक की आकांक्षा का नाम नहीं है। दूसरे के मन में भी वह आकांक्षा पैदा हो, इसके लिए स्वयं को उसके अनुरूप बदलना होता है। लोपामुद्रा ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि दांपत्य जीवन के समर्पण और सुख की सहभागिता में अंतर है।

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की प्राचीन इतिहास की प्रफेसर, डॉ. अर्चना शर्मा कहती हैं कि इससे ज़्यादा क्रांतिकारी चरित्र सत्यवती का है, जिसे दो बार प्रेम के प्रस्ताव मिले थे, एक बार मत्स्यगंधा के रूप में और दूसरी बार योजनगंधा या सत्यवती के रूप में। दोनों बार वे प्रस्ताव उसने अपनी ही शर्तों पर स्वीकार किए। सत्यवती, लोपामुद्रा की तरह कोई ऋषिका या विदुषी दार्शनिक नहीं थी, एक सामान्य नाविक की बेटी थी, जो यात्रियों को नदी के पार पहुंचाया करती थी। उससे मछली की तीव्र गंध आती थी, जो उसके सान्निध्य को अरुचिकर बनाती थी। लेकिन ऋषि पराशर उस पर मोहित हुए और उससे प्रेम निवेदन किया।

मत्स्यगंधा ने भी निवेदन स्वीकार किया, लेकिन उसने तीन शर्तें रखीं। पराशर को वे शर्तें माननी पड़ीं, जिनमें से एक शर्त मछली के उस गंध से उसे मुक्ति दिलाने की थी। यह सोचने की बात है कि इस एकल संबंध के बाद जिस तरह पराशर मुनि अप्रभावित रहे और अपने तपोव्रत के लिए चले गए, उसी तरह मत्स्यगंधा भी अक्षत और स्वतंत्र रही।

मछली की गंध समाप्त होने के बाद वही कन्या सत्यवती बनी, जिसकी सुगंध और सौंदर्य के आगे हस्तिनापुर के राजा शांतनु विवश हो गए। उन्होंने सत्यवती के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा और वह प्रस्ताव किन शर्तों पर स्वीकार हुआ, यह कथा सबको मालूम है। राजा शांतनु को मानना पड़ा कि उसी से उत्पन्न पुत्र उनके राज्य का उत्तराधिकारी बनेगा। सत्यवती की इस कथा और उसके व्यक्तित्व की दृढ़ता का उल्लेख सिर्फ महाभारत में नहीं, देवी भागवत और हरिवंश पुराण में भी मिलता है।

प्रेम का निवेदन करने और उस निवेदन को स्वीकार करने को हमारी प्राचीन संस्कृति में दोष नहीं माना गया है। लेकिन वह किसी लोलुप की इच्छा और किसी वंचित, लाचार या कमजोर स्त्री की स्वीकृति की तरह नहीं होना चाहिए। हमारे प्राचीन साहित्य में ही एक कथा शकुंतला और दुष्यंत की भी है। कण्व ऋषि के आश्रम में राजा दुष्यंत का प्रेम प्रस्ताव स्वीकार कर लेने के बाद शकुंतला को न सिर्फ अकेले वन में समय बिताना पड़ा, बल्कि दुष्यंत की राजसभा में अपमानित भी होना पड़ा। दुष्यंत ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया, उसे अपनी पहचान साबित करनी पड़ी। दुष्यंत प्रतापी राजा थे। वे अपनी राजमुद्रा तो पहचान सकते थे, लेकिन जिससे प्रेम किया था, उसे नहीं पहचान सके। निश्चित रूप से ऐसा प्रेम निवेदन पाने की आकांक्षा तो स्त्री नहीं कर सकती।

उसे पुरुष को प्रेम की लालसा की क्षणिकता से बाहर निकालना होता है। जैसे अगस्त्य और शांतनु (पुरुष) को प्रेम का सुख प्राप्त करने के योग्य साबित होना पड़ा था, उसी तरह लोपामुद्रा और सत्यवती (स्त्री) को भी भावना के आवेश में बहने की जगह उस लक्ष्मणरेखा पर दृढ़ता से खड़े रहना पड़ा था, जो उन्होंने स्वयं खींची थी। प्रेम के निवेदन और स्वीकृति के उस विस्तार को वैलेंटाइंस डे के गिफ्ट में कैसे बांधा जा सकता है?

बाल मुकुंद
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार है)

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