गुम हो गए रेडियो के नाटक

0
708

मैं एक श्रोता था,श्रोता हूँ और श्रोता रहूँगा। बचपन में हमारे घर में एक छोटा सा रेडियो होता था जो ऊँचाई पर रखा रहता था और मैं एक स्टूल पर एक टाँग पर खड़ा होकर रेडियो नाटक सुना करता था। एक पैर थक जाता तो पैर बदल लेता था। समय ने करवट ली और मैं आकाशवाणी पहुँच गया और रेडियो नाटक की स्वर परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। ये था सन 1973 । वहाँ मुझे मिले स्वर्गीय सत्येन्द्र शरत, मेरे मेंटोर जिन्होंने मुझे रेडियो नाटक की विधा सिखाई। आकाशवाणी के अनेक दिग्गजों के सानिध्य में मैंने रेडियो नाटक के फूलने का सहभागी बना। मैंने जब जब पिछले मुड़ कर देखा तो मुझे अनेक सोपान पीछे दिखे और अपने आप को रेडियो नाटक नए अध्यायों से गुजरता पाया । इस बीच मेरे अनेक नाटकों को आकाशवाणी वार्षिक पुरस्कार भी मिला। ये बात और है कि कलाकारों को कोई सम्मान नहीं मिला। हाँ! कभी चाय समोसा मिल जाता था। अब तो ये भी नसीब नहीं होता। मृदुला गर्ग द्वारा लिखित नाटक एक और अजनबी नामक मेरे पहले नाटक को आकाशवाणी राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था शायद 1975 में जिसके निर्देशक थे स्वर्गीय सत्येन्द्र शरत। मैं पिछले 5 दशक से रेडियो नाटक से जुड़ा हूँ और मैंने हज़ारों नाटकों में भाग ही नहीं लिया बल्कि नाटकों और धारावाहिकों का निर्देशन भी किया है।

पिछले समय में नाटकों की जमकर रिहर्सल की जाति थी, नाटक पर बातचीत होती थी तब कहीं रेकार्ड किया जाता था। लेकिन आज आलेख हाथ में आया, स्टुडियो में गए, एक दो पेज पढ़े और कहा जाता है कि आइये माइक्रोफ़ोन पर। किसी के पास टाईम ही नहीं है। नाटक की गुणवत्ता जाए भाड़ में। आकाशवाणी में प्रोग्राम स्टाफ़ और इंजीनियरिंग स्टाफ़ में सदा गतिरोध रहा है जिसका परिणाम है रेडियो नाटक का अनाथ हो जाना। रेडियो नाटक को स्थापित करने वालों में प्रमुख हैं सर्वश्री एस एस एस ठाकुर, गंगा प्रसाद माथुर, एफ सी माथुर, अनवर खाँ, पद्मश्री चिरंजीत, सत्येन्द्र शरत, दीना नाथ, विश्वप्रकाश दीक्षित बटुक, कुमुद नागर, भारत रत्न भार्गव इत्यादि। इन दिग्गजों के योगदान को नकारना मूर्खता का परिचय देना होगा। इन सभी महान दिग्गजों के साथ काम करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त है। इन सभी के साथ काम करके रेडियो नाटक करने की मेरी बुनियाद मज़बूत हुई। या आकाशवाणी ने इनके अतुलनीय योगदान को सराहा। नहीं! आकाशवाणी दिल्ली के स्टुडियो कॉरिडोर में लगी तस्वीरों में से एक भी तस्वीर इनमें से किसी की नहीं है। सारी तस्वीरें संगीत के दिग्गजों की हैं। बहुत अच्छी बात है परन्तु आकाशवाणी में नाटक से सौतेला व्यवहार क्यों? ये सौतेला व्यवहार आकाशवाणी में हमेशा से होता आ रहा है ।

रेडियो नाटक में कलाकार की फ़ीस अधिकतम 3400 रुपये है जबकि संगीत कलाकारों की फ़ीस कई गुना अधिक। क्यों? आकाशवाणी में रेडियो नाटक को कुचला गया है। भारत सरकार ने दो महत्वपूर्ण विभाग बनाए हैं। संगीत नाटक अकेडमी और गीत एवम् नाटक प्रभाग यानि संगीत और नाटक दोनो आवश्यक हैं तो फिर आकाशवाणी में रेडियो नाटक का तिरस्कार क्यों? बात यहीं समाप्त नहीं होती। अब तो आकाशवाणी में मुझ जैसे वरिष्ठ नाटक कलाकार को अपमानित और प्रताडि़त भी किया जाता है और आकाशवाणी के अधिकारी मूक दर्शक बने रहते हैं। अपने जीवन के 50 वर्ष रेडियो नाटक के लिए आकाशवाणी को देने वाले वरिष्ठतम कलाकार का चाहे अपमान हो, उसे चाहे आकाशवाणी के स्टूडियो में उसे प्रताडि़त किया जाए परन्तु उनके ब्लू आइड ब्वायस वैभव श्रीवास्तव और निखिलदीवान को कुछ नहीं होना चाहिए। अनेक वर्षों से रेडियो नाटक को दबाया कुचला और नष्ट किया जा रहा है। इसका जीता जागता प्रमाण मेरे साथ घटी घटना ही नहीं है बल्कि आकाशवाणी के स्टूडियो कोरिडोर में लगे चित्रों में एक भी रेडियो नाटक की विभूतियों का ना होना है।

आकाशवाणी के लिंक में रेडियो नाटक कहीं नहीं है। कहाँ हैं पिछले 70 के नाटकों का इतिहास? कहाँ है उन नाटकों की रिकॉर्डिंग जो हम एक पांव पर खड़े होकर सुनते थे? नाट्यवेला, लहरें, म्यूजि़क मास्टर भोला शंकर, लोहा सिंह, ढोल की पोल, मुंतियास पहलवान , शद्दू ख़लीफ़ा , बहरी बिरादरी, आवाज़ की दुल्हन, चण्डीदास और ऐसे हज़ारों नाटक तब के और अबके जो हमने किए। या इन्हें लायब्रेरी निगल गयी या किसी ने इन्हें नष्ट कर दिया? 2005 में डिजिटल करने के लिए प्रयास में एक ऑडिट किया गया था। या उसमें पता नहीं चला कि डिब्बे तो नाटक के हैं, परन्तु टेप कहाँ हैं? ये अंधेर नगरी ज़रूर है लेकिन राजा चौपट नहीं है। एक कमिटी बनाकर इसकी खोजबीन होनी चाहिए और कमिटी में आकाशवाणी से बाहर के सिद्धहस्त पेशेवर लोग होने चाहिये! कहीं ऐसा ना हो कि रेडियो नाटक भी एक दिन मोहन जोदडों और हड़प्पा की खुदाई में सिंधु घाटी की सभ्यता की भाँति निकले और एक दिन ऐसा आए कि किसी प्रसिद्ध संग्रहालय के एक विशेष विभाग में बोतलों में कुछ सैम्पल मिलें जिन पर लिखा हो ‘रेडियो नाटक’।

नीरज शर्मा
(लेखक वरिष्ठ रंगकर्मी हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here